तंत्र वही जो ‘लोक’ मन भाए

Published by
हितेश शंकर

‘लोकमत परिष्कार’ सुनने में जितना भारी-भरकम और गूढ़ है, परिकल्पना और व्यवहार में उतना ही आसान और सरल है। यह शासन व्यवस्था को सुचारु रखने का सीधा-सा सूत्र है। ‘तंत्र’ यानी व्यवस्था को परिस्थितियों के भरोसे छोड़ने की बजाय ‘लोक’ यानी जनता उसकी खोज-खबर लेती रहे और कमियों को ठीक करने का उपाय करती जाए ताकि व्यवस्था उत्तरोत्तर उत्तम होती जाए और जनता की अपेक्षाओं के अनुकूल परिणाम दे। विश्व के सबसे जीवंत और विविधतापूर्ण लोकतंत्र के महापर्व के अवसर पर आज इसी लोकमत परिष्कार की बात करने का समय है।

हितेश शंकर

लोकतंत्र ऐसी व्यवस्था है, जो लोकमत पर टिकी है। और अगर लोकतंत्र को सुदृढ़ करना है तो लोकमत को परिपक्व होना पड़ेगा, उसे निरंतर समय-काल-परिस्थिति के सापेक्ष उत्तरोत्तर बढ़ना होगा। यही है ‘लोकमत परिष्कार’। दीन दयाल उपाध्याय जी का दर्शन ‘अंत्योदय’ यानी समाज के अंतिम व्यक्ति की उन्नति और उत्थान की भावना पर आधारित है और लोकतंत्र के जो आदर्श ध्येय हैं, उनमें भी उस अंतिम व्यक्ति की चिंता करने वाले समाज की कल्पना है। इसमें संदेह नहीं कि लोकमत परिष्कार के बिना एक मजबूत लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती लेकिन क्या इतना ही पर्याप्त है? नहीं। क्योंकि लोकमत पर आधारित लोकतंत्र की अंतर्निहित प्रकृति कुछ इस तरह निर्धारित की गई है कि उसके परिष्कृत, परिपक्व और न्यायसंगत होने की अपनी ही एक व्यवस्था है।

इसलिए लोकतंत्र उस वृक्ष के समान है जिसका पुष्पित-पल्लवित होना उसकी शाखाओं, उसकी पत्तियों के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है और वे शाखाएं-पत्तियां कैसी होंगी, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि उस वृक्ष की जड़ें कितनी स्वस्थ हैं। यानी, दोनों का एक-दूसरे पर आश्रित होना, एक-दूसरे को पुष्ट करते हुए परस्पर समृद्ध होना! इसलिए यदि हम लोकमत के साथ-साथ लोकतंत्र के परिष्कार की बात करें, तो इसके कई आयाम होंगे, जिनका अनुसरण करते हुए चुनाव-दर-चुनाव लोकतंत्र की नींव को और अधिक सुदृढ़ बनाया जा सकता है।

मतदाता की परिपक्वता

मानव विकास का एक लोकप्रिय सिद्धांत कहता है कि यह कभी एकरेखीय नहीं रहा। यानी पूरी दुनिया के हर कोने का विकास एक साथ समान रूप से नहीं हुआ। दुनिया में एक ही साथ अत्यंत विकसित, अर्द्ध विकसित, अल्प विकसित और निम्न विकसित सभ्यताएं अपनी-अपनी गति से चलती रहीं। लेकिन किसी भी कालखंड में बात जब मानव सभ्यता को मापने की होती है तो इसका पैमाना बनती है सर्वाधिक व्यापक और प्रचलित धारा। यही बात लोकमत परिष्कार के मामले में भी लागू होती है।

इस प्रक्रिया में लोक की विभिन्न परतें अपनी परिस्थितियों के अनुसार अपनी गति से अपनी यात्रा कर रही होती हैं। इनकी प्रमुख धारा जितनी व्यापक और सर्वग्राह्य होगी, यह प्रक्रिया उतनी ही सुदृढ़ होगी। विभिन्न सभ्यताओं की विकास-यात्रा के समान यह काम भी शनै:-शनै: होने का है। बस सुनिश्चित यह करना होता है कि यह यात्रा सही दिशा में बढ़ती रहे। भोजन, आवास, शिक्षा, कौशल प्रशिक्षण और उद्यमिता से जुड़ी जितनी भी योजनाएं हैं, उनका उद्देश्य लोक को सबल करने का है। नागरिक जितने जानकार होंगे, तंत्र को उतनी ही मजबूती दे पाएंगे।

लोकतंत्र के लिए एक सूचित नागरिकता का अपना ही महत्व है। नागरिक शिक्षा एक सतत प्रक्रिया होनी चाहिए, जो भागीदारी और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं की समझ के महत्व पर जोर देती है। मतदाता को इस बात की जानकारी होनी चाहिए कि उसे मतदान के लिए कब, कहां और कैसे पंजीकरण करना है तथा कब, कहां और कैसे मतदान करना है। भारत का निर्वाचन आयोग मतदाताओं को शिक्षित करने के लिए लगातार प्रयास कर रहा है। इस दिशा में निर्वाचन आयोग का प्रमुख कार्यक्रम सुव्यवस्थित मतदाता शिक्षा एवं निर्वाचक सहभागिता अर्थात् ‘स्वीप’ कार्यक्रम बहुत सफल रहा है। इस कार्यक्रम का उद्देश्य ही मतदाताओं को सूचित, शिक्षित और प्रेरित करना है। इसका परिणाम यह हुआ है कि पिछले कुछ वर्षों के दौरान मतदाता पंजीकरण में लगातार वृद्धि तो हुई ही है, लोकतंत्र के पर्व में युवा मतदाताओं और महिलाओं की अधिक भागीदारी से मतदान प्रतिशत भी बढ़ा है।

याद कीजिए देश में 1951-52 का पहला लोकसभा चुनाव। उस समय अशिक्षा सबसे बड़ी चुनौती थी। महिलाएं अपना नाम तक बताने में संकोच करती थीं। उस दौर में अधिकांश महिलाएं अपने नाम से अधिक अपने पिता या पति के नाम को महत्व देती थीं और इसी को अपनी पहचान मानती थीं। इसी कारण निर्वाचन आयोग 80 लाख महिलाओं के नाम शामिल नहीं कर सका था। इसका अगला पहलू है यह चुनाव करना कि किसे चुनना है और यह इस बात पर निर्भर करता है कि लोगों की समझ कितनी परिपक्व हुई है। सरकार की विभिन्न जनोन्मुख योजनाओं से लेकर शिक्षण-प्रशिक्षण और उत्थान की राह पर चलते हुए यह ज्ञान अपने-आप परिष्कृत होता जाता है और इस ज्ञान का उद्देश्य यह होता है कि लोक अपने आप को जैसा चाहे, जिस तरह चाहे, अभिव्यक्त करे।

चुनौती: एक जीवंत लोकतंत्र के लिए मुक्त भाषण और प्रेस की सुरक्षा आवश्यक है, जो खुली बहस और सूचना के प्रसार की अनुमति देती है। लेकिन इसकी सीमा रेखा को भी समझना आवश्यक है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का मतलब यह नहीं कि किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह या समुदाय को इसकी आड़ में कुछ भी लिखने, बोलने और समाज में वैमनस्यता फैलाने की छूट प्राप्त है। अभिव्यक्ति की सीमा क्या हो, यह कौन तय करेगा? मुट्ठी भर लोग?

बिल्कुल नहीं। भारत एक लोकतांत्रिक देश है और इसकी संवैधानिक-लोकतांत्रिक व्यवस्था को बंधक बनाकर अपनी बात मनवाने की छूट किसी को नहीं दी जा सकती। पिछले कुछ वर्षों से सड़कों पर अराजकता फैलाने, देवी-देवताओं का अपमान कर बहुसंख्यक समाज की भावनाएं आहत करने, आतंकवादियों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मानवाधिकार की वकालत करने, शिक्षण संस्थानों में देश विरोधी नारे लगाने और भाषण देने जैसी घटनाएं क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के दायरे में आती हैं? स्वतंत्रता और स्वच्छंदता में अंतर होता है, यह समझना होगा। राष्ट्रहित में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की मर्यादा तय की जानी चाहिए।

निष्पक्ष प्रतिनिधित्व, स्वतंत्र चुनाव

चुनावी प्रक्रिया ऐसी होनी चाहिए, जिसमें समाज के सभी वर्गों, विशेषकर अल्पसंख्यकों और हाशिए के समूहों का निष्पक्ष प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके। भारत में लोकसभा, विधानसभा से लेकर राष्ट्रपति चुनाव तक को आयोजित करने का काम निर्वाचन आयोग का है। यह राजनीतिक प्रभाव से मुक्त एक स्वतंत्र संवैधानिक निकाय है, जो चुनावों का निष्पक्ष संचालन सुनिश्चित करता है। निर्वाचन प्रक्रिया पर जनता का विश्वास रहे, इसके लिए यह स्वतंत्रता आवश्यक भी है। 1962 के पहले जो दो लोकसभा चुनाव हुए, उनमें वैसे उम्मीदवारों का बोलबाला रहा, जो संभ्रांत थे और अंग्रेजों की भाषा को ही सर्वोपरि मानते थे। लेकिन तीसरे आम चुनाव में किसान और सामान्य पृष्ठभूमि वाले जन प्रतिनिधियों के चुने जाने के बाद धीरे-धीरे उनका वर्चस्व टूटा।

चुनाव पारदर्शी, समावेशी होने चाहिए और धोखाधड़ी और हेरफेर को रोकने के लिए स्वतंत्र निकायों द्वारा निगरानी की जानी चाहिए। मत पत्र से चुनाव के दौर में बूथ कब्जाने की पहली घटना बिहार में बेगूसराय जिले के मटिहानी विधानसभा क्षेत्र में हुई थी। इसे कांग्रेस का गढ़ माना जाता था। 1952 के चुनाव में यह सीट कांग्रेस के पास थी। 1957 में कांग्रेस और कम्युनिस्ट पार्टी के बीच मुकाबला था। लेकिन कांग्रेस पार्टी के उम्मीदवार ने बाहुबल का प्रयोग किया और बूथ पर किसी को मतदान के लिए आने ही नहीं दिया।

इसके बाद दिनदहाड़े बूथ लूटे जाने लगे। 1970-80 के दशक में तो यह चलन चरम पर पहुंच गया था। बाद के वर्षों में जब चुनाव आयोग ने ईवीएम का प्रयोग शुरू किया तो मतगणना आसान हो गई, चुनाव में होने वाले खर्चे कम हुए और स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव कराना भी संभव हो सका।

चुनाव आयोग अपनी निगरानी में मतदाताओं का पंजीकरण करता है, मतदाता सूचियों का रखरखाव करता है और मतदाता पहचान-पत्र जारी करता है ताकि चुनावों में किसी प्रकार की धांधली या गड़बड़ी रोकी जा सके। आयोग यह सब इसलिए सुनिश्चित करता है ताकि वैध मतदाता ही चुनावी प्रक्रिया में हिस्सा लें।

चुनौती: चुनाव आयोग के समक्ष धनबल, आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन के बढ़ते मामले और राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले चुनावी खर्च पर अंकुश लगाना बड़ी चुनौती है। आज के प्रौद्योगिकी और तकनीक के दौर में इससे भी बड़ी चुनौती है कृत्रिम बुद्धिमता (एआई) और साइबर सुरक्षा।

चुनाव में एआई का दुरुपयोग कर मतदाताओं को कोई प्रभावित न कर सके और चुनाव परिणामों की विश्वसनीयता बनी रहे, इसके लिए निर्वाचन आयोग को नई प्रौद्योगिकी के प्रति सचेत रहने के साथ-साथ मतदाताओं की सूचनाओं को भी सुरक्षित रखना होगा। इसके साथ ही, बार-बार ईवीएम की निष्पक्षता पर वितंडा खड़ा करने का अनुचित प्रयास करने वाले राजनीतिक दलों को भी अपने विरोध की सीमा रेखा की पहचान करने की आवश्यकता है। तकनीक ऐसी दोधारी तलवार होती है जिसका इस्तेमाल अच्छे और बुरे, दोनों उद्देश्यों के लिए हो सकता है। लेकिन संभावित बुरे प्रभाव के कारण आप तकनीकी विकास की राह को तो छोड़ नहीं देते! ईवीएम पर सवाल उठाकर वापस बैलेट पेपर युग में नहीं जा सकते। व्यवस्था सेंधमारी मुक्त कैसे हो, इस दिशा में सतत प्रयास करना तर्कसंगत है और इसके लिए भी आपको तकनीक का ही सहारा लेना होगा।

शक्ति संतुलन और कानून का राज

लोकतंत्र की जड़ें कितनी गहरी हैं और इसका भविष्य कितना निरापद है, यह विशेषकर दो बातों पर निर्भर करता है- एक, विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन कैसा है और दो, कानून के राज की स्थापना में न्यायिक क्षमता और निष्पक्षता कैसी है। विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं के बीच एक स्पष्ट विभाजन सत्ता के संकेंद्रण को रोकता है तथा चेक एंड बैलेंस को बढ़ावा देता है। शक्तियों के पृथक्करण का उद्देश्य किसी व्यक्ति या व्यक्तियों के समूह द्वारा शक्ति के दुरुपयोग को रोकना, राज्य की मनमानी, तर्कहीन व निरंकुश शक्तियों से समाज की रक्षा करना और सभी की स्वतंत्रता की रक्षा करना एवं राज्य के उपयुक्त अंगों को संबंधित कर्तव्यों के प्रभावी निर्वहन के लिए सक्षम करना है। फ्रांसीसी दार्शनिक मांटेस्क्यू के अनुसार, राज्य की शक्ति उसके तीन अंगों- कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका- में बांट देनी चाहिए। जैसे-

  • प्रत्येक अंग की क्षमता अलग-अलग हो, अर्थात् एक अंग में कार्य करने वाला व्यक्ति दूसरे अंग का हिस्सा नहीं होना चाहिए।
  • एक अंग को दूसरे अंगों के कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए।
  • एक अंग को दूसरे अंग का काम नहीं करना चाहिए।

मांटेस्क्यू का यह सिद्धांत व्यक्ति की स्वतंत्रता की रक्षा करता है और राज्य को सर्वाधिकारवादी होने से बचा सकता है। सत्ता के संकेंद्रण से भ्रष्टाचार, कुशासन, भाई-भतीजावाद और सत्ता के दुरुपयोग की आशंका बढ़ जाती है। ऐसे में यह सिद्धांत यह सुनिश्चित करता है कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में निरंकुशता प्रवेश न कर सके और नागरिक मनमाने शासन से बचे रहें।

सब बराबर: मजबूत, स्वतंत्र कानूनी संस्थान जवाबदेही को लागू करने और सत्ता के दुरुपयोग के खिलाफ सुरक्षा के लिए कानून का शासन अनिवार्य हैं। सामान्य शब्दों में इसका अर्थ यह है कि कानून सर्वोपरि है और यह सभी लोगों पर समान रूप से लागू होता है। कानून के शासन पर डायसी का सिद्धांत भी यही कहता है-

  • कानून से ऊपर कोई नहीं है, न कोई संस्था और न कोई व्यक्ति विशेष।
  • किसी को तब तक दंडित नहीं किया जा सकता, जब तक वह कानून का उल्लंघन न करे।

1973 के केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने कानून के शासन को संविधान के मूल ढांचे के रूप में शामिल किया है। इसी तरह, 1978 में मेनका गांधी बनाम भारत संघ मुकदमे में भी सर्वोच्च न्यायाय ने अनुच्छेद-21 में प्रदत्त व्यक्तिगत स्वतंत्रता का हवाला देते हुए स्पष्ट किया कि कानून की प्रक्रिया निष्पक्ष, उचित और तर्कसंगत होनी चाहिए। काल्पनिक, दमनकारी या मनमानी नहीं। विधि के शासन का पालन सुनिश्चित करने में राज्य के हर वर्ग की अलग-अलग भूमिका होती है और न्यायपालिका उन सभी के मूल में है। निष्पक्ष, स्वतंत्र और प्रभावी न्यायपालिका के बिना कानून का शासन कायम नहीं किया जा सकता। अर्थात् अदालतों, न्यायाधीशों और न्यायिक कर्मचारियों को बिना किसी प्रभाव, हस्तक्षेप या दबाव में आए अपना काम करने में सक्षम होना चाहिए। कानून की व्याख्या और कार्यान्वयन की जिम्मेदारी न्यायपालिका पर है, इसलिए इसे समाज में उत्पन्न होने वाले सभी मामलों पर कानून लागू करने में सक्षम होना चाहिए, चाहे ये मामले व्यक्तियों, कंपनियों के बीच हों या शक्तियों के पृथक्करण के अनुसार राज्य और सरकार की अन्य शाखाओं (कार्यकारी व विधायी) के संबंध में।

चुनौती: इसमें संदेह नहीं कि विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच शक्ति संतुलन पतली रस्सी पर चलने जैसी बाजीगरी है और कई बार इनके परस्पर टकराव की स्थितियां भी आती हैं। और यही कारण है कि सुप्रीम कोर्ट को यह विशेष अधिकार प्राप्त है कि वह न केवल लिखित कानूनों के दायरे में रहकर न्याय सुनिश्चित करे, बल्कि वह न्याय के व्यापक उद्देश्यों के हित में नई व्यवस्था भी दे। वैसे ही, संसद को अधिकार है कि वह परिस्थिति के आधार पर नए कानून बनाकर न्यायिक प्रणाली के लिए एक दिशासूचक का काम करे। यह एक सतत प्रक्रिया है और हर शाखा अपनी निर्धारित शक्तियों के साथ अपने दायित्वों का निर्वाह करती है। कई बार ऐसा होता है, वर्तमान में भी ऐसे विभिन्न मामले हैं, जिनमें कानूनी राज की स्थापना के कदमों को धारणा आधारित व्याख्या का जामा पहनाने की कोशिश की जाती है। यह पहले भी हुआ है, अब भी हो रहा है और आगे भी होगा। किंतु लोकतंत्र की धार की परीक्षा यही होती है कि वह धारणाओं-पूर्वाग्रहों की काट तथ्यों-साक्ष्यों से करे।

राजनीतिक भागीदारी और बहुलवाद को बढ़ावा

लोकतंत्र के लिए संजीवनी का काम करती है व्यापक भागीदारी। जिस तरह समाज में कई धाराएं-विचारधाराएं होती हैं, राजनीति में भी उनकी भागीदारी होनी चाहिए। एक बहुदलीय प्रणाली, जो विविध राजनीतिक विचारों को प्रोत्साहित करती है, सत्ता के संकेंद्रण को रोकने और स्वस्थ बहस को बढ़ावा देने में मदद कर सकती है।

नागरिकों का मतदान करना, अपने प्रतिनिधियों के साथ संवाद करना लोकतांत्रिक संलग्नता को मजबूत करता है। राजनीतिक भागीदारी में गतिविधियों की एक विस्तृत शृंखला शामिल होती है, जिसके माध्यम से लोग विकसित होते हैं और विभिन्न विषयों पर अपनी राय व्यक्त करते हैं, जैसे- समाज का और अधिक विकास कैसे किया जाए। लोग आगे बढ़कर ऐसे निर्णयों में शामिल होने और उन्हें आकार देने का प्रयास करते हैं, जो उनके जीवन को प्रभावित करते हैं।

यह भागीदारी व्यक्तिगत, पारिवारिक या सामाजिक मुद्दों को लेकर सोच विकसित करने से लेकर समूहों, संगठनों में शामिल होने तथा स्थानीय, क्षेत्रीय या राष्ट्रीय स्तर पर हो सकती है। लोग राजनीति पर चर्चा करते हैं, राजनेताओं को भला-बुरा कहते हैं, लेकिन राजनीति को करियर बनाने या इसमें हिस्सा लेने के बारे में नहीं सोचते। इसका कारण यह है कि वे प्राय: उन मुद्दों की अनदेखी करते हैं, जो उनसे संबंधित हैं। या लोगों को ऐसा लगता है कि उनके पास बदलाव लाने या निर्णय लेने को प्रभावित करने की सीमित शक्ति है। सिर्फ राजनीति में ही नहीं, शिक्षा, स्वास्थ्य, आजीविका और अन्य सामाजिक क्षेत्रों में भी राजनीतिक सक्रियता जरूरी है।

चुनौती: विविधता और बहुलता और जीव-जगत-प्रकृति, सबकी सुध लेने की संस्कृति इस धरती के संस्कार में है। यही यहां की विशेषता है। कहते हैं कि कमजोरी और मजबूती एक ही सिक्के के दो पहलू होते हैं। इसलिए हमारी विविधता और बहुलता को बदरंग करने की साजिशों के प्रति सावधान रहना होगा। विधायिका-कार्यपालिका-न्यायपालिका के किसी फैसले को मत-पंथ के चश्मे से देखना एक ऐसा विषय है जो अक्सर अलग-अलग तरह से सामने आ जाता है।

भ्रष्टाचार के विरुद्ध सख्ती

भ्रष्टाचार विरोधी उपायों को लागू करना और सरकार में पारदर्शिता को बढ़ावा देना लोकतांत्रिक प्रणाली में जनता के विश्वास को बनाए रखने में मदद कर सकता है। देश में भ्रष्टाचार ब्रिटिश राज की देन है। अंग्रेजों ने सुनियोजित तरीके से देश के लोगों को शीर्ष राजनीतिक एवं प्रशासनिक गतिविधियों से दूर रखा। इतना ही नहीं, ‘आफिशियल सीक्रेट एक्ट-1923’ बनाकर अपनी भ्रष्टाचारी संस्कृति को संस्थागत रूप दिया। इस कानून में किसी भी सरकारी अधिकारी द्वारा राजकीय सूचना या संदेश को सार्वजनिक करने को अपराध घोषित किया गया।

स्वतंत्रता के बाद भी यह व्यवस्था बनी रही और भ्रष्टाचार का दायरा बढ़ता गया। 1991 का आर्थिक उदारीकरण देश के लिए निर्णायक था। उदारीकरण ने आर्थिक सुधारों के साथ-साथ लाइसेंस और परमिट कोटा पूरी तरह खत्म कर दिया, पर भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने से पहले भारत की अर्थव्यवस्था नीतिगत पंगुता, क्रोनी कैपिटलिज्म, अपारदर्शी लेन-देन, व्यापक भ्रष्टाचार की गिरफ्त में थी। अपने 10 वर्ष के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मोदी ने शासन में पारदर्शिता और जवाबदेही बढ़ाने के लिए कई महत्वपूर्ण विधायी सुधार किए तथा तकनीक को बढ़ावा दिया और संस्थागत सुदृढ़ीकरण किए। अगले 5 वर्ष में उन्होंने भ्रष्टाचार के विरुद्ध कड़े कदम उठाने की घोषणा करते हुए इस लोकसभा चुनाव को ‘लोकतंत्र को बचाने और नष्ट करने’ के बीच की लड़ाई बताया है। एक मजबूत नागरिक समाज देश की रीढ़ होता है।

इस प्रभावी नागरिक समाज में गैर-सरकारी संगठन और सामुदायिक समूह शामिल होते हैं, जो राज्य से स्वायत्त होते हैं। ये स्वतंत्र समूह सार्वजनिक नीति को आकार देते हैं, सरकारों को जवाबदेह रखते हैं, शांति को बढ़ावा देते हैं, मानवाधिकारों की रक्षा करते हैं और नागरिकों के हितों की रक्षा करते हैं व उन्हें बढ़ावा देते हैं। साथ ही, ये नागरिकों की समस्यों का समाधान करते हैं। कानून का शासन बनाए रखने और उसे मजबूत बनाने में नागरिक समाज महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह महामारी से लेकर युद्ध व आपदा की स्थिति में लोगों के अधिकारों की रक्षा करता है। भारत के कई इलाकों में संगठित नागरिक समाज साझा संसाधनों- जल, जंगल, जमीन आदि का प्रबंधन करता है, विशेषकर वनवासी क्षेत्रों में।

चुनौती: इसमें संदेह नहीं कि भ्रष्टाचार लोकतंत्र की जड़ों को दीमक की तरह खा जाता है। जिनकी ‘कमाई के सोते’ सूख जाते हैं, वे कई तरह के छद्म- प्रपंच करके उसकी पुरानी ‘रवानगी’ को बहाल करने की कोशिश करते हैं। इसके लिए तंत्र को तैयार रहना होगा। वैसे भी, जब कोई रोग ‘वंशानुगत’ हो जाए तो उसका इलाज लंबा चलता है। सरकार की अपनी एक सीमा है, इसलिए गैरसरकारी समुदायों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है। लेकिन अगर यह मंच निहित देशी-विदेशी स्वार्थों को साधने का जरिया बन जाए तो उसकी मुश्कें कसनी पड़ती हैं और राजग सरकार के दौरान हमने ऐसा होते देखा भी है।

आज के समय में लोकतंत्र को सबसे बड़ा खतरा लोकतांत्रिक बाने में चलाए जा रहे षड्यंत्रों से है। विभिन्न गुटों-मतों-पंथों की बात करके लोकतंत्र को मजबूती देने वाले रंग-बिरंगे धागों से बने सुंदर वस्त्र से उन धागों को अलग करने के प्रयास करना, ‘आइडिया आॅफ इंडिया’ के नाम पर भारत और भारतीयता की जड़ें खोदना, हाथ में संविधान लेकर उसी के खिलाफ काम करना। लेकिन विश्वास रखिए, लोकतंत्र को मजबूत करने के संस्थागत-व्यवस्थागत प्रयासों और स्वभावगत प्रतिबद्धताओं पर। लोक और तंत्र, दोनों उत्तरोत्तर परिपक्व और विकसित होते रहेंगे। इस सतत अनुष्ठान के उपरोक्त पंचामृत का पान करते रहें

और लोकतंत्र को सुदृढ़ करने में भागीदारी निभाते रहें। लोकतंत्र के वर्तमान महापर्व में अपने वोट के माध्यम से स्वयं को अभिव्यक्त करें।
पाञ्चजन्य के इस अंक में लोकमत परिष्कार के आह्वान के साथ पढ़िए चुनाव की दहलीज पर खड़े ’जन का मन’. देखिए उस बयार की बानगी जो इस समय पूरे देश में बह रही है।

@hiteshshankar

Share
Leave a Comment