साल अर्थात् संवत्सर उसे कहते हैं जिसमें सभी महीने पूर्णत: निवास करते हों। प्रत्येक ऋतु के चक्र को वत्स कहते हैं। इसके उत्पादक पिता सूर्य हैं। इसी वत्स से वत्सर या संवत्सर नाम पड़ा। सामान्यत: अपनी किन्हीं उपलब्धियों अथवा घटनाओं को यादगार बनाने के लिए समय-समय पर लोगों द्वारा अपने-अपने नवसंवत्सर प्रारंभ किए गए। अधिकतर संवत्सरों को इसके प्रवर्तकों द्वारा अपनी उपलब्धियों को प्रकाश की तरह श्रेष्ठ दिखाने के लिए शुक्ल प्रतिपदा को प्रारंभ किया गया। सूर्य के संबंध से संवत्सर, बृहस्पति के संबंध से परिवत्सर एवं सावन के संबंध से ईडावत्सर, चंद्र के संबंध से अनुवत्सर, नक्षत्र के संबंध से वत्सर कहा गया है। पश्चिम के देश लंबे समय तक सुव्यवस्थित और वैज्ञानिक संवत्सर का निर्माण नहीं कर सके। प्रारंभ में उन्हें संख्या का ज्ञान नहीं था।
संख्या की गणना के लिए वे ‘पाई’ का प्रयोग करते थे जो समस्या पैदा करने वाला और अव्यावहारिक था। थोड़े विकसित क्रम में रोमवासियों को 1,000 तक की संख्या का ज्ञान हुआ जिसे वे ‘मिल्ली’ कहते थे। यही शब्द कालांतर में अंग्रेजी में ‘मिलेनियम’ बना जिसका अर्थ 10,00,000 है। यूनानियों की संख्या ‘मिरियेड’ थी अर्थात् 10,000। भारत में पद्म, शंख आदि की गिनती की परंपरा रही है। ललित विस्तार ग्रंथ में अंक 10 की 53वीं शक्ति का वर्णन है। ‘शीर्ष प्रवेलिक’ ग्रंथ में 194वीं स्थान वाली संख्या का वर्णन है। पाश्चात्य जगत में पहले 10 महीने का ही वर्ष होता था। महीनों के दिनों में भी साम्यता नहीं है।
प्रारंभ में उनका वर्ष 304 दिन का ही होता था। 48 ई. में इसे बढ़ाकर 355 दिन का कर दिया गया। राजा इंपोरियम ने वर्ष के महीनों को 10 से बढ़ाकर 12 माह करके जनवरी और फरवरी दो नए महीने जोड़े। राजा जूलियस सीजर ने पूर्व में प्रचलित ‘पेटेंबर’ महीने को अपने नाम पर ‘जुलाई’ नाम दिया और पहले के शासकों से अपने को बड़ा दिखाने के लिए 31 दिन का महीना निर्धारित किया। रोम के शासक आॅगस्टक का जन्म छठे मास में हुआ था। इसीलिए पूर्व के महीने ‘हैक्सेंबर’ को अपने नाम पर ‘अगस्त’ कर दिया।
1582 ई. में रोम के पोप ग्रेगरी अष्टम ने पुन: रोम कैलेंडर में सुधार किया। उनके पहले यहां नववर्ष 25 मार्च को मनाया जाता था। पोप ने 25 मार्च के स्थान पर 1 जनवरी को पहला दिन घोषित किया, जिसका विश्वभर में प्रबल विरोध हुआ। इंग्लैंड तथा अमेरिका के उपनिवेशों में 1732 ई. तक नववर्ष 25 मार्च को ही प्रारंभ होता था। ग्रेगेरियन कैलेंडर में 10 मास (दिसंबर) अब बारहवां मास बन गया। 18वीं शताब्दी के मध्यकाल तक ब्रिटेन तथा उसके औपनिवेशिक राज्य में उसे 10वां मास ही माना गया।
1923 ई. में रूस के ग्रीक चर्च तथा बाल्कन राज्यों में वर्ष मार्च से फरवरी तक ही चलता रहा। 25 दिसंबर को प्राचीन रोम में सूर्य पूजा का महानता महोत्सव मकर संक्रांति मनाया जाता था। रोम निवासी माह के पहले दिन को ‘कलेंडर्स’ और अपने पंचांग को कैलेंडर कहते थे। इसका अर्थ है धार्मिक और नागरिक पर्व त्योहारों के लिए काल विभाजन का कार्य। भारत में इसे दो प्रकार का माना गया-एक, धरती द्वारा सूर्य की परिक्रमा के आधार पर सौर वर्ष और दूसरा, चंद्रमा द्वारा धरती की 12 परिक्रमा पूर्ण करने के आधार पर चांद्र वर्ष। रोम में पूर्व में चांद्र वर्ष मनाया जाता रहा है। अरब में अब भी चांद्र वर्ष ही चलता है। वर्तमान पाश्चात्य देशों में सौर वर्ष का ही प्रचलन है। संस्कृत के सौर शब्द से ही लैटिन के ‘शोलर’ शब्द की व्युत्पत्ति मानी जाती है। संस्कृत में सूर्य का एक नाम मित्र है। रोम में सूर्य का एक विशाल मंदिर है जिसे आदित्यालय कहा जाता है। उसका नाम बिगड़कर इतवार हो गया।
कुल 60 संवत्सर परिगणित हैं। इसका चक्रभ्रमण होता है। प्रारंभ 20 ब्रह्मा के, 20 विष्णु के और 20 महेश के निर्धारित हैं। वर्तमान कलियुग के आरंभ के संदर्भ में यूरोप के प्रसिद्ध खगोलवेत्ता बेली का कथन है, ‘‘हिंदुओं की खगोलीय गणना के अनुसार विश्व का वर्तमान समय यानी कलियुग का आरंभ ईसा के जन्म से 3,102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। इस प्रकार यह कालगणना मिनट तथा सेकेंड तक की गई। आगे वे यानी हिंदू कहते हैं, कलियुग के समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे तथा उनके पंचांग या टेबल भी यही बताते हैं। ब्राह्मणों द्वारा की गई गणना हमारे खगोलीय टेबल द्वारा पूर्णत: प्रमाणित होती है। इसका कारण और कोई नहीं, अपितु ग्रहों के प्रत्यक्ष निरीक्षण के कारण यह समान परिणाम निकला है।’’
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् नवंबर, 1952 में वैज्ञानिकों और औद्योगिक परिषद द्वारा ‘पंचांग सुधार समिति’ की स्थापना की गई। समिति ने 1955 में सौंपी अपनी रपट में विक्रमी संवत् को भी स्वीकार करने की सिफारिश की थी, किंतु तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू के आग्रह पर ग्रेगेरियन कैलेंडर को ही राष्ट्रीय कैलेंडर के रूप में स्वीकार किया गया। ग्रेगेरियन कैलेंडर की कालगणना मात्र 2,000 वर्ष के अति अल्प समय को दर्शाती है, जबकि यूनान की कालगणना 1,582 वर्ष, रोम की 2,757 वर्ष, यहूदी 5,768, मिस्र की 28,691, पारसी 1,98,875 तथा चीन की 9,60,02,305 वर्ष पुरानी है।
इन सबसे अलग यदि भारतीय कालगणना की बात करें तो हमारे ज्योतिष के अनुसार पृथ्वी की आयु एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 110 वर्ष है जिसके व्यापक प्रमाण हमारे पास उपलब्ध हैं। हमारे प्राचीन ग्रंथों में एक-एक पल की गणना की गई है। जिस प्रकार ईस्वी सन् का संबंध ईसा से है, इसी प्रकार हिजरी का संबंध मुस्लिम जगत और हजरत मोहम्मद से है। किंतु विक्रमी संवत् का संबंध किसी भी धर्म से न होकर सारे विश्व की प्रकृति, खगोल सिद्धांत और ब्रह्माण्ड के ग्रहों और नक्षत्रों से है। इसलिए भारतीय कालगणना पंथनिरपेक्ष होने के साथ सृष्टि की रचना और राष्ट्र की गौरवशाली परंपराओं को दर्शाती है।
इतना ही नहीं, सबसे पुरातन ग्रंथ वेदों में भी इसका वर्णन है। नव संवत् यानी संवत्सरों का वर्णन यजुर्वेद के 27वें और 30वें अध्याय के मंत्र क्रमांक क्रमश: 45 और 15 में विस्तार से दिया गया है। सौर मंडल के ग्रहों और नक्षत्रों की चाल, निरंतर बदलती उनकी स्थिति पर ही हमारे दिन, महीने और साल आधारित हैं। इस वैज्ञानिक आधार के कारण ही पाश्चात्य देशों के अंधानुकरण के बावजूद, चाहे बच्चे के गर्भाधान की बात हो, जन्म की बात हो, नामकरण की बात हो, गृह प्रवेश या व्यापार प्रारंभ करने की बात हो, हम एक कुशल पंडित के पास जाकर शुभ मुहूर्त पूछते हैं। भारत में अभी प्रचलित सभी संवतों में विक्रमी संवत् को सर्वाधिक लोकप्रिय एवं प्रमाणित माना गया है। इस संवत् को शकों को पराजित करने के उपलक्ष्य में राजा विक्रमादित्य ने 58 ईसा पूर्व प्रारंभ किया था।
यह संवत् प्रकृति में बदलाव का संकेत करता है। जीवन में नएपन का एहसास कराता है। यह शौर्य और विजय का दिवस है। सातवीं शताब्दी में ब्रह्मगुप्त एवं बारहवीं शताब्दी में भास्कराचार्य ने अपनी रचनाओं में इस संवत् की चर्चा की है। 372 ई. में इस संवत् की प्रसिद्धि कृतनाम से थी। भारतवर्ष के लगभग सभी प्रांतों में इस संवत् का प्रचलन है। किसी स्थान पर इसका वर्षारंभ चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से होता है, तो कहीं-कहीं कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से भी होता है। नर्मदा नदी के उत्तरी भाग गुजरात प्रांत को छोड़कर भारत में सर्वत्र यह संवत् चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से चलता है।
यूरोप के प्रसिद्ध खगोलवेत्ता बेली का कथन है-
‘‘हिंदुओं की खगोलीय गणना के अनुसार विश्व का वर्तमान समय यानी कलियुग का आरंभ ईसा के जन्म से 3,102 वर्ष पूर्व 20 फरवरी को 2 बजकर 27 मिनट तथा 30 सेकेंड पर हुआ था। इस प्रकार यह कालगणना मिनट तथा सेकेंड तक की गई। आगे वे यानी हिंदू कहते हैं, कलियुग के समय सभी ग्रह एक ही राशि में थे तथा उनके पंचांग या टेबल भी यही बताते हैं। ब्राह्मणों द्वारा की गई गणना हमारे खगोलीय टेबल द्वारा पूर्णत: प्रमाणित होती है। इसका कारण और कोई नहीं, अपितु ग्रहों के प्रत्यक्ष निरीक्षण के कारण यह समान परिणाम निकला है।’’
महान गणितज्ञ भास्कराचार्य ने प्रतिपादित किया है कि चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से दिन-मास-वर्ष और युगादि का आरंभ हुआ है। युगों में प्रथम सतयुग का आरंभ भी इसी दिन से हुआ है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वर्ष प्रतिपदा कहलाती है। इस दिन से ही नया वर्ष प्रारंभ होता है। चैत्र शुक्ल पक्ष आरंभ होने के पूर्व ही प्रकृति नववर्ष आगमन का संदेश देने लगती है। प्रकृति की पुकार, दस्तक, गंध, दर्शन आदि को देखने, सुनने, समझने का प्रयास करें तो हमें लगेगा कि प्रकृति पुकार-पुकार कर कह रही है कि पुरातन का समापन हो रहा है और नवीन बदलाव आ रहा है, नववर्ष दस्तक दे रहा है।
वृक्ष-पौधे अपने जीर्ण वस्त्रों को त्याग रहे हैं, जीर्ण-शीर्ण पत्ते पतझड़ के साथ वृक्ष शाखाओं से पृथक हो रहे हैं, वायु द्वारा सफाई अभियान चल रहा है। पेड़-पौधों में नई पत्तियां आ जाती हैं। मानो प्रकृति पुरातन वस्त्रों का त्यागकर नूतन वस्त्र धारण कर रही है। पलाश खिल रहे हैं, वृक्ष पुष्पित हो रहे हैं, आम बौरा रहे हैं, सरसों नृत्य कर रही है, वायु में सुगंध और मादकता की मस्ती अनुभव हो रही है। हमारे पूर्वजों ने इतने वैज्ञानिक एवं कालजयी ज्ञान-विज्ञान को लंबे अनुसंधान एवं प्राप्त परिणामों के आधार पर विकसित किया था। लेकिन नई पीढ़ी को अपनी इस श्रेष्ठ परंपरा का ज्ञान ही नहीं है।
वह यह नहीं जानती कि हमारा नव वर्ष कब आ रहा है और कब जा रहा है। यदि हम नई पीढ़ी तक अपने नव वर्ष की वैज्ञानिकता और महत्ता को पहुंचा सकें, तो मानो यह जीवन सफल हो गया। एक दिन-रात में 86,400 सेकेंड हिंदू कालगणना का सूक्ष्मतम अंश परमाणु है तथा महत्तम अंश ब्रह्मा आयु है। जो इस प्रकार है- 2 परमाणु = 1 अणु, 3 अणु = 1 त्रसरेणु, 3 त्रसरेणु = 1 त्रुटि, 100 त्रुटि = 1 वेध, 3 वेध = 1 लव, 3 लव = 1 निमेष, 1 निमेष = 1 क्षण, 5 क्षण = 1 काष्ठा, 15 काष्ठा – 1 लघु, 15 लघु को ही एक दंड कहते हैं। दो दंडों को एक मुहूर्त तथा 6 तथा 7 दंडों का एक प्रहर होता है। एक दिन-रात में 3280500000 परमाणु काल तथा 86,400 सेकेंड होते हैं। इसका अर्थ सूक्ष्मतम माप यानी 1 परमाणु काल 1 सेकेंड का 37968वां हिस्सा है।
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