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संकट में ‘घर’ देता साथ

सी.ए.ए. का विरोध करने वाले लोग जान लें कि विश्व में जहां भी हिंदू हैं, वे संकट के समय अपने ‘घर’ भारत की ओर देखते हैं। इसलिए उनकी अपेक्षाओं को पूरा करना भारत सरकार का नैतिक दायित्व बनता है

by राजेश गोगना
Apr 5, 2024, 08:52 am IST
in भारत, विश्लेषण
सी.ए.ए. लागू होने पर दिल्ली में रह रहे पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थी खुशी मनाते हुए

सी.ए.ए. लागू होने पर दिल्ली में रह रहे पाकिस्तानी हिंदू शरणार्थी खुशी मनाते हुए

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अभी कुछ दिन पहले ही भारत सरकार ने नागरिकता संशोधन अधिनियम (सी.ए.ए.) लागू किया है। इस कारण पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से प्रताड़ित होकर भारत में शरण लेने वाले कुछ हिंदू और सिखों को यहां की नागरिकता मिली है। हालांकि कुछ लोग सी.ए.ए. का यह कहते हुए विरोध कर रहे हैं कि यह समानता के कानून का उल्लंघन है। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया है। इस संदर्भ में यह देखना होगा कि इस कानून की कितनी जरूरत थी। इसके लिए थोड़ा इतिहास में जाना होगा।

11 अगस्त, 1947 को पाकिस्तान की संविधान सभा में अपने एक भाषण में मोहम्मद अली जिन्ना ने कहा था, ‘‘आप स्वतंत्र हैं; आप अपने मंदिरों में जा सकते हैं, आप अपनी मस्जिदों में जा सकते हैं या पाकिस्तान के इस राज्य में किसी भी अन्य पूजास्थल पर जा सकते हैं। आप किसी भी मजहब, जाति या संप्रदाय के हो सकते हैं, इससे राज्य का कोई लेना-देना नहीं है।’’

राजेश गोगना
महामंत्री, ह्यूमन राइट्स डिफेंस इंटरनेशनल

1947 में विभाजन के समय पाकिस्तान में पांथिक अल्पसंख्यक मुख्यत: हिंदू और सिख 20-23 प्रतिशत थे। उस समय इन हिंदुओं और सिखों ने जिन्ना की बातों पर भरोसा किया और उनमें से बहुत सारे लोग वहीं रह गए। लेकिन जिन्ना का वह वादा झूठा निकला। उनके जिंदा रहते हुए ही पाकिस्तान के राजनीतिक तथा फौजी नेतृत्व ने जिन्ना के वादे को जूते तले रौंद दिया और पाकिस्तान में रह रहे लाखों हिंदुओं, सिखों और ईसाइयों को एक इस्लामी शासन में दोयम दर्जे के नागरिक के रूप में रहने के लिए मजबूर कर दिया।

वर्षों तक पाकिस्तान के अल्पसंख्यक विभाग के मुख्य द्वार पर लिखा था- ‘केवल इस्लाम ही अल्लाह के लिए स्वीकृत मजहब है।’ पाकिस्तान में रहने वाले पांथिक अल्पसंख्यकों की स्थिति और मानसिकता को समझने के लिए उपरोक्त वाक्य पर्याप्त है। यह वाक्य स्थापित करता था कि इस्लाम के अलावा कोई भी मजहब पाकिस्तान में स्वीकार्य नहीं है और किसी भी अन्य मजहब को मानने वाले को अंतत: इस्लाम की शरण में ही आना होगा।

दशकों के संघर्ष और अस्थिरता के बावजूद अफगानिस्तान में हिंदू और सिख अपनी सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को बनाए रखने की कोशिश करते रहे हैं। इसके बावजूद इन समुदायों की जनसंख्या में काफी गिरावट आई। 1990 के दशक में लगभग 80,000 हिंदू और सिख अफगानिस्तान में रहते थे, लेकिन 2021 तक यह संख्या घटकर कुछ 100 तक आ गई है। यह गिरावट मुख्यत: वहां बढ़ती हिंसा, मजहबी प्रताड़ना और आर्थिक अस्थिरता के कारण हुई है। बहुत से हिंदू और सिख अफगानिस्तान छोड़कर भारत, यूरोप और अन्य देशों में शरण ले चुके हैं, जिससे इन समुदायों की जनसंख्या में और भी कमी आई है। इस पलायन से अफगानिस्तान में इन समुदायों के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिन्ह लग गया है।

बांग्लादेश में पांथिक अल्पसंख्यकों की जनसंख्या में पिछले कुछ दशकों में कमी आई है, खासकर हिंदू समुदाय में। 1971 में स्वतंत्रता के समय वहां हिंदू जनसंख्या लगभग 22 प्रतिशत थी, जो अब घटकर 8 प्रतिशत से भी कम रह गई है। इस कमी के पीछे कई कारण हैं। इनमें मजहबी भेदभाव, संपत्ति से वंचित करने के मामले और अन्य सामाजिक एवं आर्थिक चुनौतियां शामिल हैं। इसके अलावा अन्य अल्पसंख्यकों, जैसे कि बौद्ध और ईसाई समुदायों के सामने भी समान चुनौतियां हैं। हालांकि बांग्लादेश सरकार ने इन समुदायों की सुरक्षा और समानता सुनिश्चित करने के लिए कदम उठाए हैं, लेकिन समस्या अभी भी जटिल बनी हुई है।

श्रीलंका में गृहयुद्ध के कारण हुए विस्थापन ने बड़े पैमाने पर तमिल हिंदू शरणार्थियों को भारत की ओर पलायन करने के लिए मजबूर किया। अनुमान के अनुसार भारत में लगभग 1,00,000 से अधिक तमिल शरणार्थी रह रहे हैं, जिनमें से अधिकांश तमिलनाडु में हैं।

अफ्रीका में हिंदुओं पर अत्याचार और उनका पलायन, विशेष रूप से युगांडा में 1972 में हुआ, जब तानाशाह इदी अमीन ने गैर-अफ्रीकी नागरिकों को देश छोड़ने का आदेश दिया। इससे लगभग 80,000 भारतीय और हिंदू, जिनमें से अधिकतर व्यापारी वर्ग से थे, को युगांडा छोड़ना पड़ा। केन्या और तंजानिया में भी इसी प्रकार के चुनौतीपूर्ण हालात थे, लेकिन युगांडा की तुलना में कम उग्र थे।

कनाडा, आस्ट्रेलिया, अमेरिका और यूरोप में हिंदू समुदाय विविधता और सहिष्णुता के बीच बढ़ रहा है। इन देशों में लाखों हिंदू निवास करते हैं। अमेरिका में लगभग 22,30,000, कनाडा में 4,97,965, आस्ट्रेलिया में 4,40,300 से अधिक और यूरोप में भी बड़ी संख्या में हिंदू रहते हैं। इसके बावजूद, हिंदू सामाजिक अलगाव, धार्मिक भेदभाव और सांस्कृतिक पहचान के संरक्षण की चुनौतियों का सामना करते हैं।

खाड़ी देशों में हिंदू समुदाय मुख्यत: प्रवासी कर्मचारी होते हैं। यहां लगभग 35,00,000 मिलियन हिंदू हैं, विशेष रूप से संयुक्त अरब अमीरात, सऊदी अरब और कतर में। इन देशों में हिंदुओं को धार्मिक अभिव्यक्ति को लेकर कुछ मर्यादाओं का सामना करना पड़ता है।

उपरोक्त स्थिति अपने आप में यह स्थापित करती है कि दुनिया भर में हिंदू हर जगह पर अपनी धार्मिक एवं सांस्कृतिक पहचान के कारण से या तो संकट में हैं या संकट में आने की पूरी संभावनाओं के बीच अपने आप को बचा कर रख रहे हैं। अपनी धार्मिक और सांस्कृतिक पहचान को लगातार बचाकर रखने की यह कोशिश किसी भी प्रकार से आदर्श स्थिति नहीं है। यह हिंदुओं को अपने अस्तित्व पर मंडराते किसी भी खतरे के समय, एक समुदाय के तौर पर हमेशा भारत की ओर देखने के लिए मजबूर करती है। इन सभी के पास भारत के अलावा और कोई देश भी नहीं है, जिसकी तरफ वे आशा और विश्वास से देख सकें, जहां हिंदुओं के प्रति अनंत प्रेम और सद्भावना की भावना नागरिकों में व्याप्त हो।

2019 में भारतीय संसद द्वारा पारित सी.ए.ए. पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से मजहबी अत्याचारों से बचकर आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई शरणार्थियों को नागरिकता प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त करता है। यह कानून दुनिया के कुछ हिस्सों में रह रहे हिंदू, सिख, बौद्ध तथा जैन समुदाय के लोगों को कुछ हद तक राहत देता है, लेकिन दुनिया भर में हिंदुओं पर छाए संकटों का दायरा काफी बड़ा है।

स्वाभाविक है कि अगर पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में रह रहे हिंदू, सिख, बौद्ध, ईसाई और जैन अपने संकट के समय भारत की तरफ देखते हैं, तो निश्चित तौर पर दुनिया भर में रह रहे हिंदू भी अपने पर संकट आने पर भारत की तरफ ही देखेंगे और जब भी वे भारत की तरफ देखेंगे तो भारतीय नेतृत्व को उनकी अपेक्षाओं पर खरा उतरना ही पड़ेगा।

Topics: हिंदू समुदायafghanistanhindu communityअफगानिस्तानBuddhistjainParsi and Christian.जैनसी.ए.ए.हिंदूsikhखाड़ी देशbangladesh#hinduबांग्लादेशपाकिस्तानसिखPakistan
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