इन दिनों पूरी दुनिया में इस बात की चर्चा है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शीघ्र ही 100 वर्ष का होने वाला है। इसके साथ संघ की व्यापकता से भी लोग हैरान हो रहे हैं। संघ के बाहर के लोग इस बात की चर्चा करते हैं कि आखिर वह कौन-सा सूत्र है, जिस पर चलते हुए संघ एक विशाल वट वृक्ष बन चुका है। इसे समझने के लिए एक बात का उल्लेख करना जरूरी है। दिसंबर, 1920 में नागपुर में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ था। इससे कुछ पहले नागपुर के महाविद्यालयों के छात्रों की एक सभा हुई। उसमें यह निर्णय लिया गया कि कांग्रेस अधिवेशन के साथ-साथ अखिल भारतीय महाविद्यालयीन विद्यार्थी परिषद (आल इंडिया कॉलेज स्टूडेंट्स कांफ्रेंस) का भी आयोजन किया जाए।
इस विद्यार्थी परिषद के प्रचार-प्रसार के लिए एक उत्साही युवा रामभाऊ गोखले ने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र देकर विभिन्न स्थानों का दौरा करने का निर्णय लिया। इस हेतु रामभाऊ सबसे पहले मुंबई जाकर गांधी जी से मिले और उनसे भिन्न-भिन्न प्रांतों के प्रमुख व्यक्तियों के नाम देने की प्रार्थना की, लेकिन गांधी जी ने मना कर दिया। इससे रामभाऊ बहुत ही दु:खी होकर नागपुर लौटे और डॉ. हेडगेवार से मिले। उन्हें पूरी बात भी बता दी। इसके बाद डॉ. हेडगेवार ने उन्हें दिल्ली, कोलकाता, ढाका, मेमन सिंह, पटना, वाराणसी आदि स्थानों के कुछ लोगों के नाम दिए और उन्हें परिषद के प्रचार के लिए प्रोत्साहित किया।
इससे रामभाऊ को एक नई ऊर्जा मिली और वे देश का दौरा करने के लिए निकल पड़े। डॉ. हेडगेवार से मिले सहयोग के बारे में वे लिखते हैं, ‘‘डॉ. हेडगेवार ने दौरे के लिए अपना रेशमी साफा दिया तथा आवश्यक सूचनाएं भी दीं। वे मेरे लिए कितने उपयोगी रहे, उसे शब्दों में प्रकट करना कठिन है।’’ (डॉ. हेडगेवार चरित्र, पृष्ठ-82) यह घटना बताती है कि संघ इतना बड़ा संगठन कैसे बना।
अब बात कांग्रेस सेवा दल की, जो आज केवल कागजों पर सिमट कर रहा गया है। 1923 में कांग्रेस के काकीनाडा अधिवेशन में सेवा दल बनाने का निर्णय हुआ। इसके लिए डॉ. ना.सु. हर्डीकर के नेतृत्व में एक समिति का गठन किया गया। पहले डॉ. हर्डीकर ने ‘हिन्दुस्तानी सेवा मंडल’ बनाया (इसी का विस्तृत रूप है कांग्रेस सेवा दल)। इसके दो वर्ष बाद 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना हुई। संघ निरंतर आगे बढ़ रहा था, वहीं ‘हिन्दुस्तानी सेवा दल’ पिछड़ता जा रहा था। संघ क्यों आगे बढ़ रहा है, इसे जानने के लिए मुंबई से डॉ. हर्डीकर ने 10 दिसंबर, 1934 को डॉ. हेडगेवार को एक पत्र लिखा। डॉ. हेडगेवार ने इसका उत्तर देते हुए लिखा, ‘‘आपका 10 दिसंबर, 1934 का पत्र मिला। पत्र पाकर अत्यंत आनंद हुआ। आप स्वयं आकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का निकट से अध्ययन करना चाहते हैं, यह हमारे लिए अत्यंत हर्ष और संतोष का विषय है। …दैवयोग से इसी अवसर पर संघ के शीत शिविर भी होते हैं। अत: अनायास ही आपको इन शिविरों को भी देखने का अवसर मिल जाएगा।’’ (डॉ. हेडगेवार चरित्र, पृ. 291-92)
माना जाता है कि इसके कुछ समय बाद संघ की शाखाओं की नकल करते हुए हिन्दुस्तानी सेवा दल की शाखाएं शुरू की गर्इं। इन्हें चलाने के लिए वेतनभोगी कार्यकर्ता रखे गए। शाखा में आने वालों को गणवेश (निक्कर, कमीज, टोपी आदि) मुफ्त में दिया जाता। उनके लिए जलपान आदि की भी व्यवस्था होती। शिविर आदि में जाने-आने का किराया, खाने-पीने व रहने का सारा व्यय कांग्रेस की ओर से होता था।
1956-57 की बात है। उन दिनों मैं अमृतसर में किला मैदान में लगने वाली सायंकाल की संघ शाखा का मुख्य शिक्षक था। कुछ दिन बाद पास में ही बेरी गेट के पार्क में हिन्दुस्तानी सेवा दल की शाखा लगनी शुरू हो गई। अपने भी कुछ स्वयंसेवक उसमें जाने लगे। उनमें से एक आठवीं कक्षा का छात्र भी था। वह हमारी शाखा में कुछ दिन से आ नहीं रहा था। मैं एक दिन उसके घर गया और पूछा कि आजकल शाखा में नहीं आ रहे हो? उसने कहा, ‘‘मैं अब कांग्रेस सेवा दल की शाखा में जाता हूं।’’ मैंने कहा, ‘‘वहां क्या खासियत है?’’ उसने कहा, ‘‘वहां तो खासियत ही खासियत है। आप समय पर आने पर जोर देते हैं। शरारत करने पर दंडित करते हैं। मुंह से गालियां निकालने नहीं देते (उसे गालियां देने की आदत थी)। खाने-पीने के लिए कभी कुछ देते नहीं।’’ उसकी बात भी ठीक थी। मैं भी कुछ बोल नहीं सका। लेकिन कुछ दिन बाद ही कांग्रेस सेवा दल की वह शाखा बंद हो गई। इससे यह बात सिद्ध हुई कि प्रलोभन के सहारे कोई संगठन आगे नहीं बढ़ सकता।
यहां एक और घटना बहुत ही सटीक लगती है। 1953-54 में कांग्रेस में बड़ी तीव्रता से यह अनुभव किया गया कि नए कार्यकर्ताओं का निर्माण नहीं हो रहा है। काफी मंथन के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि जैसे संघ प्रतिवर्ष एक-एक मास के शिक्षण शिविर लगाता है, वैसे ही शिक्षण शिविर यदि कांग्रेस के भी लगाए जाएं तो कांग्रेस को भी हर साल नए-नए कार्यकर्ता उपलब्ध होने लगेंगे। अत: शिक्षण शिविर लगाने की योजना निश्चित हुई। उसे मूर्तरूप देने का दायित्व सौंपा गया श्री महावीर त्यागी को, जो बाद में प्रतिरक्षा उपमंत्री भी रहे। योजना को कार्यरूप में परिणत करते समय उनके सामने एक कठिनाई आ गई। उनके पास भाषण आदि करने वाले नेताओं की तो कोई कमी नहीं थी, किंतु संघ की तरह शारीरिक शिक्षा कौन दे?
इस समस्या के समाधान के लिए श्री त्यागी दिल्ली में झंडेवाला स्थित संघ कार्यालय पहुंचे। उन्होंने संघ के अधिकारियों को अपनी योजना बताई और निवदेन किया कि वे शारीरिक प्रशिक्षण देने के लिए कुछ प्रशिक्षक देने की कृपा करें। संघ अधिकारियों ने श्री त्यागी को आश्वस्त किया कि उन्हें प्रशिक्षक मिल जाएंगे, लेकिन वे उतने ही समय के लिए आपके शिविर में जाएंगे, जितना समय आपने प्रशिक्षण के लिए तय किया होगा। वे भोजन भी वहां नहीं करेंगे। इसके बावजूद शिविर समाप्ति पर आपके प्रशिक्षणार्थी यदि संघ के स्वयंसेवक बन कर निकलने लगें तो हमें दोष मत दीजिएगा। इसके बाद कांग्रेस के नेताओं ने अपनी इस योजना को बंद कर दिया।
आज समय की गति के साथ कांग्रेस सेवा दल प्राय: लुप्त हो गया है। 1970 के दशक में ‘यूथ कांग्रेस’ अकस्मात् प्रकट हुई। इसे ही बाद में ‘युवा कांग्रेस’ या ‘युवक कांग्रेस’ भी कहा जाने लगा। संघ और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं में बहुत अंतर है। कांग्रेस ने 9 अगस्त, 1973 को दिल्ली में युवा रैली की। इसके लिए पूरे देश से युवाओं को लाया गया। दिल्ली आते-जाते रास्ते में इन युवाओं ने जो किया, वह उन दिनों के समाचार पत्रों में कई दिनों तक छपा। उन युवाओं ने दुकानें लूट लीं, जिसने विरोध किया उसे मारा-पीटा। कई रेलवे स्टेशनों पर तोड़-फोड़ की गई। रेलवे कर्मचारियों को पीटा गया।
गुजरात के वलसाड स्टेशन पर तो इन लोगों की कारगुजारियों के कारण पुलिस को गोली भी चलानी पड़ी थी। दोष उन युवाओं का नहीं था। शायद कांग्रेस नेतृत्व उन्हें ऐसा ही बनाना चाहता था। इसका उदाहरण 1975 के आपातकाल में भी मिला। 25-26 जून,1975 की मध्यरात्रि को कांग्रेस सरकार ने आपातकाल घोषित कर दिया। इसके साथ ही विपक्षी नेताओं को जेल में बंद कर दिया गया। फिर युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने आपातकाल का विरोध करने वालों के साथ जो दुर्व्यवहार किया, वह इतिहास के पन्नों में दर्ज है। वहीं संघ के स्वयंसेवकों के अनुशासन की प्रशंसा की जाती है। स्वयंसेवकों के इसी व्यवहार से समाज के अन्य लोग भी संघ से जुड़ते जा रहे हैं। यही है संघ की सफलता का राज।
(लेखक संघ के प्रचारक रहे हैं और कई पुस्तकों के रचयिता हैं)
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