वीर सावरकर के व्यक्तित्व का विस्तार इतना अधिक है कि इसे मात्र एक फिल्म में समेटा नहीं जा सकता, लेकिन एक अच्छा फिल्मकार उसका अहसास जरूर करवा सकता है। फिल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर इसमें सफल है। फिल्म देखकर आप भावुक और रोमांचित होंगे, लेकिन आपके अंदर आक्रोश भी उठेगा कि देश के लिए पूरा जीवन होम कर देने वाले क्रांतिवीरों के साथ इतिहास ने कैसा अन्याय किया है। आपको ध्यान आएगा कि विनायक दामोदर सावरकर का नाम वीर सावरकर क्यों पड़ा, और यदि आप समाचार पढ़ते-देखते हैं तो ख्याल आएगा कि ये कैसे लाग हैं जो जहाज की खिड़की तोड़ समुद्र में छलांग लगाने वाले , फिर तैरते हुए फ्रांस के समुद्र तट पर पहुंचने वाले, फांसियों के दौर में क्रांतिकारी आंदोलन को आगे बढ़ाने वाले, 50 साल कालापानी की सजा पाकर भी न टूटने वाले, कालापानी की अमानवीय यातनाएं सहते हुए देशभक्ति काव्य की रचना करने वाले, नजरबंदी की बेड़ियों से मुक्त होने पर छुआछूत समाप्ति का प्रखर अभियान खड़ा करने वाले और राजनैतिक पद- सत्ता का आमंत्रण पाकर उसे ठुकराने वाले वीर सावरकर को क्या ‘कायर’ कहने की हिमाकत करते हैं?
युवा सावरकर क्रांतिकारी तो थे ही, उन्होंने स्वाधीनता संग्राम को बहुत कुछ दिया भी है, जिसकी चर्चा इतिहास से गायब है। अत्यंत गरीब घर के सावरकर अपनी प्रतिभा के बल पर ब्रिटिश कानून का अध्ययन करने लंदन पहुंचे ताकि अंग्रेजी कानून समझकर, अंग्रेजों से उन्हीं के तरीकों से लड़ सकें। वहां अध्ययन में अव्वल रहते हुए, ब्रिटिश पुस्तकालयों को छान-खंगालकर 1857 के स्वाधीनता समर का पहला प्रामाणिक इतिहास लिखा। सावरकर की इस पुस्तक को आने वाले सभी क्रांतिकारियों ने अपने माथे से लगाया। कालापानी की दोहरी सजा पाने वाले वे पहले और आखिरी क्रांतिकारी थे। सावरकर ही थे जिन्होंने सबसे पहले बम बनाने का तरीका (बॉम्ब मैन्युअल) छपवाकर भारत के क्रांतिकारियों को उपलब्ध करवाया।
चंद लोगों का सावरकर से जो विद्वेष है, उसके तीन कारण हैं। एक, सावरकर के संघर्षों और बलिदान के सामने व्यक्ति और परिवार विशेष के इर्दगिर्द गढ़ा गया इतिहास फीका पड़ जाता है। दूसरा, सावरकर निर्भीक होकर हिंदुत्व की व्याख्या और भारत की अखंडता का आग्रह करते हैं और तीसरा, खुलकर मुस्लिम तुष्टीकरण का विरोध करते हैं। सावरकर के रूप में रणदीप हुड्डा, गांधी बने राजेश खेड़ा से तुष्टीकरण और अतार्किक मांगों को लेकर तीखे सवाल पूछते हैं। भविष्य में, सावरकर के रूप में हिंदुत्व की व्याख्या करते हुए रणदीप हुड्डा रील्स और शॉर्ट्स में छाए रहेंगे। लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के साथ उनका आत्मीय संबंध, डॉ आंबेडकर और गांधी जी से उनके संवाद भी निस्संदेह फॉरवर्ड होते रहेंगे।
फिल्म में सावरकर के परिवार का मार्मिक और प्रेरक चित्रण है, जो चर्चाओं से गायब है। सावरकर के बड़े भाई गणेश सावरकर का क्रांतिकारी जीवन, दोनों भाइयों को कालेपानी की सजा और वहां संगीनों के साये में कागज के पुर्जों के माध्यम से भाइयों का वातार्लाप लोमहर्षक है। सावरकर की पत्नी यमुनाबाई उपाख्य माई सावरकर का संघर्ष और संकल्प लोगों को जानना चाहिए। कम ही लोगों को पता है कि कैसे सावरकर का पूरा परिवार स्वाधीनता संग्राम में स्वाहा हो गया। कैसे तथाकथित ‘अहिंसक’ कांग्रेस कार्यकर्ताओं ने उनके छोटे भाई डॉ. नारायण दामोदर सावरकर, जो एक चिकित्सक और लेखक थे, की मॉब लिंचिंग की, जिससे अंतत: उनकी मृत्यु हो गई। गांधी हत्या के बाद, राजनैतिक लक्ष्य साधने के लिए, राजनीतिक संरक्षण में मॉब लिंचिंग का जो नग्न नृत्य देश में स्थान-स्थान पर किया गया, फिल्म में उसकी एक झलक देखने को मिलती है।
फिल्म देखते हुए कई ऐतिहासिक प्रसंग मन में तैरने लगते हैं। सावरकर पर निर्लज्ज होकर अभद्र टिप्पणियां करने वालों के पूर्व पुरुषों -पुरखों की बातें पाठकों से साझा करना अनिवार्य लगता है। पहला प्रसंग— श्रीमती इंदिरा गांधी का स्वाधीनता संघर्ष में वीर सावरकर के प्रयासों का विशेष स्थान बताते हुए उन्हें भारत का विलक्षण पुत्र कहना। दूसरा प्रसंग है, कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया के संस्थापक सर मानवेंद्र राय द्वारा 1937 में, बंबई में सावरकर के सम्मान में आयोजित कार्यक्रम में कहे गए शब्द। उन्होंने कहा था— ‘सावरकर 20वीं शताब्दी के अग्रगण्य स्वाधीनता सेनानी हैं, जिन्होंने देश की स्वाधीनता के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। उन्होंने यह परवाह नहीं की कि उन्हें फांसी हो जाएगी अथवा अंदमान की जेल में डाल दिया जाएगा। मैं उनकी राजनीतिक विचारधारा से सहमत नहीं हूं लेकिन मेरे मन में उनके लिए बहुत सम्मान है, क्योंकि वह उन कुछ देशभक्तों में से हैं जिन्होंने अपना जीवन खतरे में डाला और जिनका बलिदान, वीरता और तत्व दर्शन सम्मान के योग्य है। मैं स्वतंत्र जीवन (कालापानी और उसके बाद नजरबंदी, कुल 27 वर्ष) में उनका स्वागत करता हूं।’ सावरकर की ‘माफी’ का शोर मचाने वालों के लिए ये शब्द यथार्थ के अंगारे हैं।
इसी कड़ी में ध्यान आता है 27 जून 1937 को ‘लोकमान्य’ अखबार में वीर सावरकर के लिए प्रकाशित शुभकामना संदेश, जिनमें पंडित जवाहरलाल नेहरू और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के भी संदेश हैं। नेताजी ने अपने शुभकामना संदेश में सावरकर से कांग्रेस से जुड़ने का आग्रह भी किया था। सावरकर ने इस आग्रह को स्वीकार नहीं किया। कांग्रेस की वैचारिक प्रतिबद्धता और तौर-तरीकों पर उनका विश्वास नहीं था। विडंबना है कि इस आग्रह के 2 वर्ष बाद, 1939 में, जबलपुर के त्रिपुरी कांग्रेस अधिवेशन में, गांधी जी के खुले विरोध के बावजूद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस कांग्रेस के अध्यक्ष का चुनाव तो जीत गए, परंतु असहयोग के चलते काम नहीं कर सके, और 29 अप्रैल 1939 को उन्होंने त्यागपत्र दे दिया। नेताजी सुभाष वीर सावरकर से प्रेरित थे, इस ऐतिहासिक तथ्य को फिल्म में दिखाया गया है।
कांग्रेस में नहीं जाने के अपने निर्णय के बारे में सावरकर ने प्रेस से कहा था— ‘भव्य स्वागत समारोह के लिए मैं देश और हिंदुओं के हितों को बलिदान नहीं कर सकता। यदि मैं अंग्रेजों के हिसाब से चलता तो क्या आपको नहीं लगता कि मैं इससे भी भव्य सम्मान समारोह, पद और सुविधाएं प्राप्त कर लेता? राष्ट्रहित, मेरी युवावस्था से, मेरे हर कार्य की मार्गदर्शक शक्ति रहा है। शहर दर शहर, जहां मैं जाता हूं, कांग्रेस के लोग मेरे ऊपर हमले करते हैं, लेकिन मुझे इसका कोई भय अथवा पश्चाताप नहीं है।’ सावरकर ने आगे व्यंग्य किया— ‘…आखिरकार वे शांतिप्रिय और अहिंसक लोग हैं।’
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