बिहार में होली का सतरंगी कलेवर देखने को मिलता है। कहीं छाता होली का प्रचलन है, तो कहीं फूलों की होली का। धुरखेल और ढोलक की थाप पर जब होली खेलती टोली निकलती है तो मुर्दा दिलों में भी थिरकन आ जाती है। हालांकि बदलते दौर का प्रभाव भी होली पर देखने को मिल रहा है। मिथिला, भोजपुरी भाषी एवं मगध प्रदेश में होली के अलग-अलग अंदाज हैं।
मिथिला के बनगांव की घुमौर होली, भोजपुरी भाषी क्षेत्र में धुरखेल होली, मगध क्षेत्र में बुढ़वा मंगल होली, वहीं समस्तीपुर में छाता पटोरी होली मनाने का प्रचलन है। पटना में दूसरे राज्यों से आए लोगों के साथ वहां की होली भी आई है। पटना में विभिन्न प्रदेशों की होली के रंग भी दिख जाते हैं।
पटोरी की छाता होली
समस्तीपुर के पटोरी प्रखंड में होली का एक विशेष रंग देखने को मिलता है। यहां के धमौन में छाता होली खेली जाती है। धमौन पटोरी प्रखंड अंतर्गत है, इसीलिए इसका नाम दिया गया है छाता पटोरी होली। इसमें बांस के बड़े-बड़े छाते तैयार किए जाते हैं। उन छातों को रंगीन कागज से सजाया जाता है। एक छाता बनाने में 5 हज़ार रु से अधिक की लागत आती है। इन छातों में सन्देश भी लिखा रहता है। इसका प्रारम्भ 16 वी सदी से माना जाता है, लेकिन 1930 ई. से इन छतरियों को नया स्वरूप प्रदान किया गया। पहली सुसज्जित छतरी नबुदी राय के घर से निकाली गई थी।
धमौन में यादवों की बड़ी बस्ती है। उनके कुल देवता निरंजन स्वामी हैं। यहां उनके कुल देवता का मंदिर भी है। सबसे पहले उनको यहां गुलाल चढ़ाया जाता है। उसके बाद सभी एक—दूसरे को रंग और ग़ुलाल लगाते हैं। इस दौरान इन छातों को घुमाया भी जाता है। एक—दूसरे के रंग से बचने के लिए इन छातों का उपयोग भी किया जाता है। इन छातों के साथ लोग फाग गाते हुए यहाँ के मंदिरों में अबीर और ग़ुलाल चढ़ाते हैं। अनुमानतः इस छाता होली में लगभग 70 हज़ार से अधिक लोग सम्मिलित होते हैं। यह परम्परा वर्षों पुरानी है।
बनगांव की घुमौर होली
मिथिला क्षेत्र में सहरसा के बनगांव की घुमौर होली ब्रज की तरह ही प्रसिद्ध है। यहां हजारों की संख्या में लोग जुटकर घुमौर होली खेलते हैं। इस दौरान एक—दूसरे के कंधे पर चढ़कर जोर आजमाइश भी करते हैं। देवी मंदिर के चारों तरफ घूम-घूम के होली खेलने की वजह से इसे घुमौर होली कहा जाता है।
मान्यता है कि इसकी परंपरा भगवान श्रीकृष्ण के काल से ही चली आ रही है। इस होली का स्वरूप 18वीं सदी में यहां के प्रसिद्ध संत लक्ष्मीनाथ गोसाईं ने तय किया था। इस होली का दृश्य अद्भुत होता है। सबसे पहले गांव के सारे लोग भगवती स्थान पर जुटते हैं। वहां से युवा दो भागों में बंट जाते हैं। वे खुले बदन गांव में घूमते हैं। होली के दिन गांव के निर्धारित स्थलों (बंगलों) पर होली खेलने के बाद जैर (रैला) की शक्ल में भगवती स्थान पहुंचते हैं। वे वहां गांव की सबसे ऊंची मानव श्रृंखला बनाते हैं। गांव के झरोखे से मां बहनें रंग उड़ेलती हैं। इस दौरान लोग संत लक्ष्मीपति रचित भजनों को गाते रहते हैं। होली खेलने और शक्ति प्रदर्शन के बाद बाबाजी कुटी में आकर होली समाप्त हो जाती है।
मगध की बुढ़वा होली
मगध की धरती पर होली के अगले दिन बुढ़वा मंगल होली मनाने का रिवाज है। उसी दिन झुमटा भी निकाला जाता है। झुमटा निकालने वाले लोग होली के गीतों को गाते हुए अपनी खुशी प्रकट करते हैं। मगध की होली में कीचड़-गोबर और मिट्टी का भी महत्व होता है। होली के दिन सुबह में लोग मिट्टी-कीचड़ आदि लगा कर होली का आरंभ करते हैं। इसके बाद दोपहर में रंग और फिर शाम में गुलाल लगाने की परंपरा है। मगध क्षेत्र के नवादा, गया, औरंगाबाद, अरवल और जहानाबाद आदि जगहों पर बुढ़वा होली मनाई जाती है। ऐसा कहा जाता है कि मगध का कोई जमींदार होली के दिन बीमार था। इसलिए लोगों ने होली नहीं मनाई। संयोगवश होली के दूसरे दिन वे स्वस्थ हो गए। प्रजा ने खुशी में जमींदार के संग बुढ़वा होली खेली। उस समय से यह परम्परा चल निकली।
भोजपुरी क्षेत्र की धुरखेल होली
भोजपुरी की प्रसिद्ध लोक गायिका मनीषा श्रीवास्तव कहती हैं कि इस क्षेत्र में होली की एक अलग मिठास है। होलिका दहन के दिन कुल देवता को बारा चढ़ाने के साथ पूजा की जाती है। इसके बाद होलिका दहन होता है। होली गीत गाने के साथ होलिका की चारों ओर परिक्रमा करते हैं। होली की सुबह गांव के लोग होलिका दहन की राख एक-दूसरे को लगाकर हवा में उड़ाते हैं। धुरखेल के साथ होली खेलने की परम्परा हैं पुरुष एक-दूसरे के घर जाकर उनके दरवाजे पर होली के गीत गाकर शुभकामना देते हैं। देवी स्थान जाकर होली गीतों को विराम देने के साथ चैती गीत गाने का आरंभ करते हैं।
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