माँ भारती के चरणों में अपनी जिंदगी की हर घड़ी, हर खुशी न्योछाबर कर हंसते-हंसते फांसी के फंदे पर लटक जाने वाले रणबांकुरों की शहीदी के कारण ही आज हम आजाद देश में साँस ले पर रहे हैं। इन रणबांकुरों द्वारा हिंदुस्तान को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने के वास्ते की गई उनकी तपस्या का ही प्रतिफल ही है कि देशवासी आज तक उन्हें और उनकी शहादत को नमन और याद करते हैं।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की क्रान्तिकारी धारा के कई प्रमुख सेनानी थे, जिन्होंने देश की आज़ादी के संघर्ष के हवन रूपी यज्ञ में अपना सर्वोच्च अर्पण कर आहुति डाली। हजारों नौजवानों ने क्रांति की राह को अपना कर अंग्रेजों की क्रूरता और अत्याचार के साथ संघर्ष किया और हँसते हँसते फांसी के फंदे को चूम कर शहीद हो गए। इन्ही क्रांतिकारी वीरों में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव की त्रिमूर्ति को एक साथ 23 मार्च 1931 को 23 वर्ष की आयु में ही फांसी पर लटका शहीद कर दिया गया था।
भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव भारत के वे सच्चे सपूत थे, जिन्होंने अपनी देशभक्ति और देशप्रेम को अपने प्राणों से भी अधिक महत्व दिया और मातृभूमि के लिए प्राण न्यौछावर कर गए। 23 मार्च यानि, देश के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों को हंसते-हंसते न्यौछावर करने वाले तीन वीर सपूतों का शहीद दिवस। यह दिवस न केवल देश के प्रति सम्मान और हिंदुस्तानी होने के गौरव का अनुभव कराता है, बल्कि वीर सपूतों के बलिदान को भीगे मन से श्रृद्धांजलि देता है। देश और दुनिया के इतिहास में वैसे तो कई महत्वपूर्ण घटनाएं 23 मार्च की तारीख पर दर्ज हैं. लेकिन भगत सिंह और उनके साथी राजगुरु और सुखदेव को फांसी दिया जाना, भारत के इतिहास में दर्ज इस दिन की सबसे बड़ी एवं महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है।
शहीद भगतसिंह का जन्म 28 सितंबर (कई स्थानों पर 27) 1907 को पंजाब के लायलपुर के बंगा गांव में (जो अभी पाकिस्तान में है) क्रांतिकारी परिवार में, शहीद सुखदेव का जन्म 15 मई, 1907 को पंजाब के लुधियाना में एक खत्री परिवार में और शहीद शिवराम हरि राजगुरु का जन्म 24 अगस्त, 1908 को पुणे जिले के खेड़ा में हुआ था। शिवाजी की छापामार शैली के प्रशंसक राजगुरु लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक के विचारों से भी प्रभावित थे। जब चौरी-चौरा के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इससे नाराज होकर भगत, चंद्रशेखर और बिस्मिल जैसे हजारों युवाओं ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियारबंद क्रांति का रुख कर लिया था।
काकोरी कांड के बाद क्रांतिकारियों को हुई फांसी से इनका गुस्सा और बढ़ गया। चंद्रशेखर आजाद की लीडरशिप में भगत और साथियों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन का गठन किया। 30 अक्टूबर 1928 को लाहौर में साइमन कमीशन के विरोध में एक जुलूस निकला, जिस पर पंजाब पुलिस के सुपरिनटैंडैंट जेम्स ए स्कॉट ने लाठीचार्ज करा दिया। इस लाठीचार्ज में लाला लाजपत राय बुरी तरह घायल हो गए और 18 दिन बाद इलाज के दौरान 17 नवंबर 1928 को उनका निधन हो गया।
भगत, सुखदेव और राजगुरु ने लालाजी की हत्या का बदला लेने की कसम खाई और जेम्स ए स्कॉट की हत्या का प्लान बनाया। ठीक एक महीने बाद 17 दिसंबर 1928 को तीनों प्लान के तहत लाहौर पुलिस हेडक्वार्टर के बाहर पहुंच गए। हालांकि स्कॉट की जगह असिस्टेंट सुपरिनटैंडैंट ऑफ पुलिस जॉन पी सांडर्स बाहर आ गया। भगत और राजगुरु को लगा कि यही स्कॉट है और उन्होंने उसे वहीं ढेर कर दिया। सांडर्स की हत्या के बाद क्रांतिकारी जिस तरह लाहौर से बाहर निकले, वह भी बेहद रोचक किस्सा है।
भगत सिंह एक सरकारी अधिकारी की तरह ट्रेन के फर्स्ट क्लास डिब्बे में श्रीमती दुर्गा देवी बोहरा (क्रांतिकारी शहीद भगवतीचरण बोहरा की पत्नी) और उनके 3 साल के बेटे के साथ बैठ गए। वहीं राजगुरु उनके अर्दली बनकर गए। ये लोग ट्रेन से कलकत्ता गए जबकि आजाद साधू का भेष बना कर मथुरा चले गए। 8 अप्रैल 1929 को भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ब्रिटिश सरकार को चेताने के लिए सेंट्रल असेंबली में सभागार के बीच में जहां कोई नहीं था धुएं वाला बम फेंके। यहाँ इस बात का विशेष ध्यान रखा गया की किसी का कोई नुक्सान ना हों। बम फेंकने के बाद भागने की जगह वो वहीं खड़े होकर इंकलाब जिंदाबाद के जयकारे लगाते हुए पर्चे उछाले जिन पर लिखा था- ‘बहरों को सुनाने के लिए जोरदार धमाके की जरूरत होती है।’ इसके बाद अपनी गिरफ्तारी दी।
पूछताछ करने के लिए दोनों को दिल्ली के अलग-अलग पुलिस थानों में रख गया। 12 जून 1929 को ही भगत को असेंबली ब्लास्ट के लिए आजीवन कारावास की सजा सुना दी गई थी। सांडर्स की हत्या केस के लिए भगत को लाहौर की मियांवाली जेल में शिफ्ट किया गया। लाहौर जेल पहुंचते ही भगत ने खुद को राजनीतिक बंदियों की तरह मानने का और अखबार-किताबें देने की मांग शुरू कर दी। मांग ठुकरा दिए जाने के बाद भगत और उनके साथियों ने जेल में लंबी भूख हड़ताल की जिसमे इनके साथी जतिन दास शहीद भी हो गए थे। 10 जुलाई को सांडर्स हत्या केस की सुनवाई शुरू हुई जिसमे भगत, राजगुरु और सुखदेव समेत 14 लोगों को मुख्य अभियुक्त बनाया गया। 26 अगस्त, 1930 को अदालत ने भगत सिंह को भारतीय दंड संहिता की धारा 129, 302 तथा विस्फोटक पदार्थ अधिनियम की धारा 4 और 6एफ तथा आईपीसी की धारा 120 के अंतर्गत अपराधी सिद्ध किया। 7 अक्तूबर, 1930 को अदालत के द्वारा 68 पृष्ठों का निर्णय दिया, जिसमें भगत सिंह, सुखदेव तथा राजगुरु को फाँसी की सजा सुनाई गई जबकि बकुटेश्वर दत्त को आजीवन कारावास की सजा मिली।
देश के शेरों को 24 मार्च को फांसी होनी थी लेकिन करुर अंग्रेजों ने डर कर नियमों को दरकिनार कर तय वक्त से लगभग 12 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 को, शाम 7 बजकर 33 मिनट पर भगत, राजगुरु और सुखदेव को लाहौर की जेल में फांसी दे कर शहीद कर दिया। जैसे ही तीनों फांसी के तख्ते पर पहुंचे तो जेल “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…, ‘इंक़लाब जिंदाबाद’ और ‘हिंदुस्तान आजाद हो’ के नारों से गूंजने लगा और अन्य कैदी भी जोर-जोर से नारे लगाने लगे। सुखदेव ने सबसे पहले फांसी पर लटकने के लिए आगे हुए। सभी का शरीर पूरे एक घंटे तक फांसी के फंदे से लटकता रहा और तब तक नहीं उतारा गया जब तक वहां मौजूद डॉक्टरों लेफ्टिनेंट कर्नल जेजे नेल्सन और लेफ्टिनेंट कर्नल एनएस सोधी ने तीनों के मृत होने की पुष्टि की।
इनकी फांसी के खबर सुनकर जेल के बाहर भीड़ इकठ्ठा हो रही थी। इससे अंग्रेज डर गए और जेल की पिछली दीवार तोड़ी गई। उसी रास्ते से एक ट्रक जेल के अंदर लाया गया और उस पर बहुत अपमानजनक तरीके से उन शवों को एक सामान की तरह डाल दिया गया। अंतिम संस्कार रावी के तट पर किया जाना था, लेकिन रावी में पानी बहुत ही कम था, इसलिए सतलज के किनारे शवों को जलाने का फैसला लिया गया। हालांकि लोगों को भनक लग गई और वे वहां भी पहुंच गए। ये देखकर अंग्रेज अधजली लाशें छोड़कर भाग गए। भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव भारत के वे सच्चे सपूत थे, जिन्होंने अपनी देशभक्ति और देशप्रेम को अपने प्राणों से भी अधिक महत्व दिया और मातृभूमि के लिए प्राण न्यौछावर कर गए। देश के लिए लड़ते हुए अपने प्राणों को हंसते-हंसते न्यौछावर करने वाले वीर सपूतों का शहीद दिवस (23 मार्च) न केवल देश के प्रति सम्मान और हिंदुस्तानी होने वा गौरव का अनुभव कराता है, बल्कि वीर सपूतों के बलिदान को भीगे मन से श्रृद्धांजलि भी देता है।
क्रांतिकारी भारत को अंग्रेजों की बेड़ियों से आजाद देखना चाहते थे लेकिन उन्होंने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि जिस देश के लिए वो अपनी कुर्बानी दे रहे हैं, एक दिन उसे उसी देश को धर्म के आधार पर बांट दिया जाएगा। भारत सरकार ने इनके सम्मान में डाक टिकट जारी किये और पंजाब के फिरोजपुर में सतलज के किनारे इनका शहीदी स्मारक बनाया हैं जहाँ प्रतिदिन हजारों देशवासी इन्हें श्रदासुमन अर्पित करते हैं।
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