एक दौर था जब अपनी चहचहाट से घरों का सन्नाटा तोड़ने वाली प्यारी सी नन्हीं गौरैया घर-आंगन में चहकते हुए सहज ही देखी जा सकती थी। उस दौर में शायद ही कोई घर-आंगन ऐसा होगा जहां गौरैया की चीं चीं-चूं चूं की मधुर आवाज न गूंजती हो। बरसात में घर के आंगन में एकत्र पानी में किलोल करता गौरैया का झुंड। रसोई की खिड़की पर लटकते हुए अंदर की तरफ झांकती गौरैया। उस दौर के ऐसे दृश्य मन को सहज ही प्रफुल्लित कर देते थे। माँ का चावल चुनना और दाना पाने की आस में उनके इर्दगिर्द मंडराती गौरैया और माँ का मंद सा मुस्कुराते हुए उसके लिए कुछ दाने आँगन में बिखेर देना…छोटे बच्चों का नन्हीं गौरैया को पकड़ने दौड़ना… तथा दीवार पर लगे आईने पर अपनी हमशक्ल देख गौरैया का चोंच मारना…तमाम ऐसे दृश्य हमारी स्मृतियों आज भी जीवित हैं।
कृषक पिता बताते थे कि कई बार तो जब वे दोपहर में खाना खाने बैठते थे तो गौरैया सामने आकर चूं चूं करके अपना हिस्सा मांगना शुरू कर देती थी और उन्हें अपनी थाली से चावल निकालकर उन्हें देना पड़ता था और वह पूरी निर्भयता से उन चावलों को चुगकर फुर्र हो जाती थी। एकाध बार तो ऐसा हुआ कि उनका खाना न निकालने पर वे फुदकते हुए थाली के पास आ गयीं और थाली से चावल चुग कर उड़ गयीं। यह वाकया बताता है कि पेड़ व पाखी के बीच रचा-बसा उस दौर का मानव जीवन कितना सहज व सरल हुआ करता था। यह घरेलू चिड़िया ज्यादातर हम मनुष्यों के आसपास ही रहना पसंद करती है। जमीन पर बिखरे अनाज के दाने, छोटे-छोटे कीड़े-मकोड़े इसके प्रिय भोजन हैं। यह घरों के रोशनदानों, बगीचों, दुछत्ती जैसी जगहों में अपने घोंसले बनाती है। पहले घरों के आंगन में, बाहर दरवाजे के पास अनाज सूखने के लिये फैलाये जाते थे, महिलायें भी आंगन में सूप से जो अनाज फटकती थीं, उससे गौरैया अपना आहार खोज कर पेट भर लेती थी। यही नहीं, पुराने समय में गांवों की महिलाएं जेठ तपती गर्मी में चिड़ियों के लिये पेड़ के नीचे हंड़िया गाड़ कर उसमें पानी भर देती थीं साथ ही डलिया में अनाज भी रख देती थीं।
लोकगीतों, लोककथाओं और आख्यानों में जिस पक्षी का वर्णन सबसे ज्यादा मिलता है वह गौरैया ही है। घाघ-भड्डरी की कहावतों में तो इसके धूल-स्नान की क्रिया को प्रकृति और मौसम से जोड़ा गया है
“कलसा पानी गरम है, चिड़िया नहावै धूर। चींटी लै अंडा चढ़ै, तौ बरसा भरपूर।”
यानि कि गौरैया जब धूल में स्नान करे तो यह मानना चाहिये कि बहुत तेज बारिश होने वाली है। कृषि विशेषज्ञों की मानें तो पर्यावरण को बेहतर बनाने में भी गौरैया बड़ा योगदान देती है। यह नन्ही सी चिड़िया फसलों को नुकसान पहुंचाने वाले कीटों को खाकर बीज बनने की प्रक्रिया को तेज करती है। एक-डेढ़ दशक पहले तक अधिकांश घरों के बच्चे गौरैयों का चहचहाना और फुदकना देखकर ऐसे खुश होते जैसे उन्हें कोई बड़ा गिफ्ट मिल गया हो, लेकिन आज न घरों में आँगन रहा और न ही गौरैयों ही चहचहाहट। आज के बच्चों की दुनिया वीडियोगेम और डोरेमोन जैसे कार्टून सीरियल में ही सिमट कर रह गयी है और अपनी मीठी आवाज से दिल को सुकून देने वाली गौरैया इंसानी बस्ती से दूर होती जा रही है। गांव-देहात में तो फिर भी गौरैया देखने को मिल जाती हैं लेकिन शहरों में इनकी संख्या तेजी से घट रही है। तेजी से बदलते परिवेश और शहरीकरण से इस प्यारे पक्षी को हमसे दूर कर दिया है। गौरैया के आंगन से दूर होने के पीछे सबसे बड़ा कारण पेड़ पौधों का कटना और हरियाली की कमी है। जलवायु परिवर्तन और गहराता प्रदूषण, कंक्रीट के जंगलों का बढ़ता फैलाव, खेतों में कीटनाशक का व्यापक प्रयोग, इंसानी जीवनशैली में बदलाव और मोबाइल फोन टावर से निकलने वाले रेडिएशन इस दूरी के प्रमुख कारण हैं। मोबाइल टॉवर से निकलने वाली इलेक्ट्रोमैग्नेटिक किरणें गौरैया की प्रजनन क्षमता पर बुरा प्रभाव डाल रही हैं।
पशु-पक्षियों का संरक्षण हम सबकी जिम्मेदारी
बताते चलें कि गौरैया संरक्षण की दिशा में पहला महत्वपूर्ण कदम वर्ष 2010 में तब उठाया गया था जब ‘‘नेचर फॉरएवर सोसायटी’’ के अध्यक्ष मोहम्मद दिलावर के विशेष प्रयासों से पहली बार 20 मार्च को ‘विश्व गौरैया दिवस’ मनाया गया था। तभी से हर वर्ष गौरैया के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने के लिए यह दिवस मनाया जाता है। पक्षी विशेषज्ञों के अनुसार विश्वभर में गौरैया की 26 प्रजातियां हैं, जिनमें से पांच भारत में देखने को मिलती हैं। वे कहते हैं कि पशु पक्षियों का संरक्षण हम सबकी जिम्मेदारी है। अपने-अपने घरों पर एक घोंसला जरूर लगाएं और अपने-अपने घरों की छतों पर चिड़ियों के लिए भोजन व पानी अवश्य रखें। साथ ही अपने बच्चों को भी इसके लिए प्रेरित करें। अपने घर के आस-पास घने छायादार पेड़ लगायें। ताकि गौरैया या अन्य पक्षी उस पर अपना घोसला बना सकें। बरामदे या किसी पेड़ पर किसी पतली छड़ी या तार से आप इसके बैठने का अड्डा भी बना सकते हैं।
गौरैया संरक्षण में जुटे हैं पक्षी प्रेमी
हर्ष की बात है कि आज देश भर में बड़ी संख्या में पक्षी प्रेमी गौरैया संरक्षण के पुनीत अभियान में जुटे हुए हैं। इनमें प्रमुख हैं वाराणसी के गोपाल कुमार। ‘वीवंडर फाउंडेशन’ के संस्थापक गोपाल कुमार के मुताबिक उनकी संस्था के पिछले छह साल के अनथक प्रयासों से गौरैया फिर से लोगों के घर-आंगन में वापस आने लगी हैं। उनकी संस्था को गौरैया संरक्षण के लिए वर्ष 2019 में राष्ट्रीय गौरव पुरस्कार से नवाजा जा चुका है। गोरखपुर के बेलघाट इलाके के रहने वाले सुजीत कुमार और उनका परिवार भी डेढ़ दशक से अधिक समय से गौरैया संरक्षण में जुटा हुआ है। उनका आवास सैकड़ों गौरैया की शरणस्थली बन चुका है। अपने अनूठे गौरैया प्रेम के कारण वे क्षेत्र में ‘स्पैरोमैन’ नाम से जाने जाते हैं। गाजीपुर के रहने वाले पर्यावरणविद कृष्णानंद राय गौरैया पर लिखी अपनी स्वरचित कविता का पाठ कर लोगों को इस विलुप्त होती पक्षी के बारे में जागरूक करने में जुटे हैं।
इसी तरह उत्तराखंड के जीआईसी द्वारीपैनो (देहरादून) में गणित के अध्यापक के रूप में कार्यरत शिक्षक दिनेश चंद्र कुकरेती गत 26 वर्षों से सेव नेस्ट, सेव बर्ड्स मुहिम चलाकर गौरैया संरक्षण में जुटे हैं। उन्होंने तो अपने आवास ही को ‘गौरैया संरक्षण केंद्र’ में तब्दील कर दिया है। गौरैया के घोसले बनाने के लिए स्वयं के पैसे से प्लाई, कील और तार खरीदकर उसे तैयार करना और फिर लोगों को निशुल्क बांटने से उन्हें गजब का संतोष मिलता है। लोहरियासाल तल्ला (हल्द्वानी) के राज्यपाल पुरस्कार प्राप्त शिक्षक भूपेंद्र चौधरी भी पिछले 10 वर्षों से गौरैया के संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं। उन्होंने अपने घर में कई प्रकार के दर्जनों घोंसले बनाकर लगाये हैं। वे स्कूली बच्चों को भी गौरैया संरक्षण के लिए प्रेरित करते हैं। इसी तरह हल्द्वानी के गुलाब सिंह नेगी के घर में भी गौरैया का संसार बसता है। वे कई तरह के घोंसले, कटोरे में पक्षियों के लिए दाना, पानी रखे रहते हैं। घायल पक्षियों को रखने के लिए बगीचे में बाड़ा भी तैयार किया है।
एनवायरमेंट क्लब, मेरठ के अध्यक्ष सावन कनौजिया बताते हैं कि क्लब के पदाधिकारी बीते पांच साल से घर-घर जाकर लोगों को मिट्टी के बर्तन वितरित कर गौरैया संरक्षण की अपील कर रहे हैं ताकि सभी लोग अपने घर-आंगन में गौरैया सहित अन्य पक्षियों के लिए पानी की व्यवस्था कर सकें। गाजियाबाद के प्रताप विहार स्थित जी. ब्लॉक में रहने वाले निर्मल कुमार शर्मा भी कई वर्षों से गौरैया संरक्षण के कार्य में जुटे हैं। उन्होंने घर, बालकॉनी, सीढ़ी और छत पर गौरैया को आश्रय देने के लिए छत पर आर्टिफिशियल पेड़, पौधे, गमले, पानी, दाने और खिचड़ी आदि का इंतजाम किया हुआ है। इसी तरह राजस्थान के पाली जिले के जोयला गांव निवासी ओमप्रकाश कुमावत गौरैया के संरक्षण के लिए कई सालों से अभियान छेड़े हुए हैं। पटना (बिहार) के कंकड़बाग के रहने वाले पीआईबी के उपनिदेशक संजय कुमार लम्बे समय से गौरैया संरक्षण के लिए काम कर रहे हैं। वे सोशल मीडिया के माध्यम से भी गौरैया संरक्षण के लिए अभियान चलाते हैं। गौरैया को बचाने के लिए हिसार (हरियाणा) के पर्यावरण व पक्षी प्रेमी पूर्व पार्षद कर्मवीर ढिल्लो ने भी अभियान चलाया हुआ है जिसके तहत करीब पांच हजार घौंसले तैयार कर निशुल्क लोगों में वितरित कर चुके हैं।
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