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देशघाती वंशवादी

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लालू यादव की अमर्यादित टिप्पणी के बाद देश की राजनीति में वंशवाद पर छिड़ी बहस खानदानी दलों को परेशान कर रही है।

by प्रशांत बाजपेई
Mar 19, 2024, 07:30 pm IST
in भारत, विश्लेषण
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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर लालू यादव की अभद्र टिप्पणी के बाद मर्यादा रेखा लांघते हुए विपक्षी उनके परिवार तक पहुंच गए। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी ने ‘सारा भारत मेरा परिवार है’, कह कर पूरी चर्चा को एक नया मोड़ दे दिया। बीते एक दशक के दौरान देश में लोकतंत्र को लेकर बहुत चर्चाएं हुई हैं। विशेष रूप से वामपंथी बुद्धिजीवी, पत्रकार व उनके साथ अदृश्य, पर मजबूत गठबंधन बनाकर चलने वाली स्वघोषित ‘सेकुलर’ राजनीति वाला खेमा देश के अंदर व बाहर यह आरोप लगाता रहा है कि भारत में लोकतंत्र समाप्त हो चुका है। वोटिंग मशीन फर्जी है, यह हैक हो रही है और मतदाताओं को वोट देने की तमीज नहीं रही।

घटनाक्रम पर नजर डालें तो ध्यान में आता है कि तथाकथित बहुसंख्यकवाद से उनका आशय अवांछित चुनाव परिणाम से है। उन्हें संवैधानिक संस्थाओं पर खतरा इसलिए दिखता है, क्योंकि अदालतों ने वर्षों से लंबित राम जन्मभूमि, कृष्ण जन्मभूमि, काशी विश्वनाथ जैसे ज्वलंत मामलों पर निर्णय दिए हैं या मुकदमे को आगे बढ़ाया है। संवैधानिक संस्थाओं पर खतरा संभवत: इसलिए भी दिखाई दे रहा है, क्योंकि चुनाव आयोग ने वोटिंग मशीन को हैक करके दिखाने की चुनौती दी, जिसे स्वीकार करने का साहस कोई भी नहीं कर सका।

चीन की गुप्तचर संस्थाओं से पैसे लेकर खास तरह के भारत विरोधी विमर्श गढ़ने, भ्रम फैलाने के प्रमाण सामने आने के बाद ऐसे मीडिया संस्थानों पर कार्रवाई हो रही है। विदेशी धन से भारत में काम करने वाले एनजीओ को जवाबदेह और पारदर्शी बनाने के लिए कदम उठाए गए हैं। माओवादी शहरी नक्सलियों पर नकेल कसी गई है। यही कथित रूप से ‘संस्थाओं, विचारकों पर हमला’ है।

आजकल कांग्रेस नेता राहुल गांधी की ‘न्याय यात्रा’ का एक वीडियो वायरल है। इसमें वह मतदाताओं को डांट रहे हैं कि ‘‘आप लोग सो रहे हो… जय श्रीराम-जय श्रीराम बोलना, ताली बजाना, फोन दिखाना, मंदिर जाना और भूखे मरना।’’ ये चर्चाएं होती हैं। सेनाध्यक्ष और उद्योगपतियों को गाली दी जाती है, पत्थरबाजों, नक्सलियों और अलगाववादियों को पुचकारा जाता है। जातिवाद को विकास के पर्याय के रूप में प्रस्तुत किया जाता है, चुनावी मुद्दा बनाया जाता है। राम मंदिर प्राण-प्रतिष्ठा समारोह को भी जाति में तोल कर भ्रम फैलाने की कोशिश की जाती है। यह सब होता है लोकतंत्र के नाम पर, लेकिन भारत के लोकतंत्र पर लगे वंशवाद के ग्रहण पर कोई चर्चा नहीं होती, क्योंकि वंशवाद की चर्चा होने पर अधिकांश राजनीतिक खेमे असहज हो जाते हैं।

वंशवाद को आड़ देने का पैंतरा

जब वंशवाद की बात होती है, तो वंशवादी राजनीति को आड़ देने के लिए सवाल उठाया जाता है कि वंशवाद आखिर है क्या? क्या किसी राजनीतिक के परिवार का कोई और व्यक्ति राजनीति में नहीं आ सकता? क्या किसी को इस आधार पर अपना स्वच्छ कार्य क्षेत्र चुनने से रोका जा सकता है? राजनीतिक व्यक्ति के किसी संबंधी का राजनीति में आना वंशवाद या परिवारवाद नहीं है। वास्तव में वंशवाद यह है कि किसी राजनीतिक दल को संपत्ति के रूप में अपने बेटे या बेटी को सौंप दिया जाए। पार्टी के निर्णय परिवार ले, पार्टी को परिवार चलाए और सत्ता में आने पर उसी परिवार से प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बने।

देश के सबसे ताकतवर नेहरू-गांधी परिवार पर नजर डालें। जवाहर लाल नेहरू 1947 से 1964 तक प्रधानमंत्री रहे। 1951 से 1954 तक तो वे एक साथ कांग्रेस के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री रहे। फिर 1959 में इंदिरा गांधी कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। वे 1966 से 1977 और 1980 से मृत्युपर्यंत (1984 तक) प्रधानमंत्री रहीं। इस दौरान 1978 से 83 तक कांग्रेस अध्यक्ष व प्रधानमंत्री, दोनों रहीं। उनके छोटे पुत्र संजय गांधी बिना किसी पद के पार्टी और सरकार चलाते रहे।

इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद उनके बड़े बेटे राजीव को प्रधानमंत्री बनाकर कांग्रेस की कमान सौंप दी गई। राजीव मृत्युपर्यंत कांग्रेस के अध्यक्ष रहे। उनके बाद पीवी नरसिंहराव का संक्षिप्त (5 वर्ष) काल रहा, जिसमें परदे के पीछे से सोनिया गांधी उनके लिए चुनौतियां पेश करती रहीं। मृत्यु के बाद नरसिंहराव को दिल्ली में अंतिम संस्कार भी नसीब नहीं हुआ।

1998 में कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष सीताराम केसरी को मीडिया के सामने उठाकर पार्टी कार्यालय के बाहर फेंक दिया गया और सोनिया अध्यक्ष बन गईं। वे 1998 से 2017 तक अध्यक्ष रहीं। 2017 से 2019 तक उनके पुत्र राहुल गांधी और 2019-2022 तक पुन: सोनिया अध्यक्ष रहीं। संप्रग के 10 वर्ष के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की स्थिति सर्वज्ञात है।

सब जानते हैं कि लालू यादव का विशाल कुनबा राजद का मालिक है, सपा मुलायम सिंह यादव खानदान की संपत्ति है। उद्धव ठाकरे, बादल परिवार, शेख अब्दुल्ला खानदान, मुफ्ती मुहम्मद सईद और महबूबा मुफ्ती, ये दलों के स्वामियों के नाम हैं। दक्षिण में करुणानिधि 1969 से 2018 तक द्रमुक के मालिक व सत्ताधीश बने रहे। उनके बाद अब बेटे स्टालिन की हुकूमत है। यह है वंशवाद। गांधी परिवार कांग्रेस की मजबूरी बना हुआ है, लेकिन इसके लिए कांग्रेस के उभरते नेतृत्व को दबाने, मिटाने और बाहर करने का लंबा इतिहास भी है।

डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी, मोरारजी देसाई, डॉ. भीमराव आंबेडकर जैसे दिग्गज इसके उदाहरण हैं। बाद के दौर में वीपी सिंह, चंद्रशेखर किरण रेड्डी, प्रणब मुखर्जी, ज्योतिरादित्य सिंधिया और संघर्षरत सचिन पायलट जैसे नाम हैं। मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनाए गए, क्योंकि गांंधी परिवार को प्रधानमंत्री की नहीं, एक मैनेजर की आवश्यकता थी जो राहुल गांधी के (अच्छी तरह लांच होने के बाद) उन्हें सत्ता सौंप दे। आज 84 वर्षीय खड़गे कांग्रेस अध्यक्ष हैं। सपा, राजद, नेशनल कांफ्रेंस, पीडीपी जैसे दलों में परिवार के बाहर से एक भी उभरता नेता नहीं दिखता।

वंशवाद की चौतरफा मार

यह संयोग नहीं है कि सभी वंशवादी राजनीतिक दल जातिवाद और तुष्टीकरण की राजनीति को अपनी आक्सीजन बनाए हुए हैं। जाति का जोड़-तोड़ उनका मुख्य आधार है। जातिवाद की मानसिकता परिवारवाद की मानसिकता के साथ सहज तालमेल बना लेती है और तुष्टीकरण वंशवाद को बचाए रखने का हथियार बन जाता है। परिवार की सत्ता पर पकड़ बनाए रखने के लिए इतिहास को तोड़ा-मरोड़ा जाता है। आज अकल्पनीय लगता है, लेकिन नेहरू और इंदिरा को प्रधानमंत्री रहते ही ‘भारत रत्न’ से नवाजा गया था।

खानदान की सियासी पकड़ को देश के जनमानस में गहरा करने के लिए ही हजारों स्वाधीनता सेनानियों, वीरों, सामाजिक-आध्यात्मिक महापुरुषों के नाम छिपाए गए, पीछे धकेले गए। बिहार में 1994 में सरकारी पाठ्यक्रम में लालू यादव की जीवनी जोड़ी गई। 1996 में चारा घोटाले का आरोप लगने के बाद भी इसे नहीं हटाया गया। द्रमुक नेता करुणानिधि पर भ्रष्टाचार के अनेक मामले बने। भ्रष्टाचार की व्यापकता को देखकर जांच आयोग भी सदमे में आ गया। तिरुवल्लुवर, राजराजेश्वर चोल, श्रीनिवास रामानुजम और सुब्रमण्यम भारती की जन्मभूमि तमिलनाडु में आज करुणानिधि की जीवनी बच्चों को पढ़ाई जा रही है।

स्वाधीनता के बाद की कांग्रेस का इतिहास प्रमाण है कि वंशवाद के कारण राजनीतिक दलों के अंदर जो घुटन पैदा होती है, उससे योग्यता जाती है और नेतृत्व सत्ता-संगठन की ताकत को अपने परिवार का वर्चस्व स्थापित करने के लिए खर्च करता है। तब राजनीति एक पारिवारिक व्यापार में बदल जाती है।

राजनीतिक वंशवाद ने भारत में निरंकुश सत्ता को जन्म दिया है। आपातकाल के दौर में संजय गांधी के कारनामे, सपा-राजद के दौर में उत्तर प्रदेश और बिहार के किस्से आज यूट्यूब पर मौजूद हैं।

वंशवाद संगठन के विचार को मार देता है, इसका उदाहरण है 1976 में संविधान में जोड़े गए दो शब्द ‘पंथनिरपेक्षता और समाजवाद’। आखिर क्या वजह थी कि संविधान निर्माताओं ने इन शब्दों को संविधान में स्थान नहीं दिया था? क्या कारण था कि आपातकाल की छाया में इंदिरा गांधी ने इन्हें संविधान में जोड़ा, सिवाय इसके कि परिवार की सत्ता को बचाए रखने के लिए नए बहानों की जरूरत पड़ गई थी? क्या यह सच नहीं है कि महात्मा गांधी, जिनके नाम पर नेहरू-गांधी परिवार ने अबाध सत्ता सुख भोगा, समाजवाद के खिलाफ थे और इसे एक बाहरी व अनावश्यक विचार मानते थे?

2014 भारत के खानदानी दलों के लिए अप्रत्याशित साल था। भाजपा अपने दम सत्ता का जादुई आंकड़ा लांघ जाएगी, ऐसा उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा था। अगले पांच वर्ष में प्रधानमंत्री मोदी ने विचार, राष्ट्रीयता और लाभार्थी वर्ग के रूप में भाजपा का मजबूत त्रिस्तरीय चुनावी आधार निर्मित कर लिया। फिर विधानसभा चुनावों और 2019 के आम चुनावों ने देश के बदलते मानस को रेखांकित किया है। अब 2024 का आम चुनाव सामने है। उत्तर से दक्षिण तक खानदानों को चुनौती मिल रही है। ऐसे में परिवारवाद पर शुरू बहस इन दलों को परेशान कर रही है।

Topics: पाञ्चजन्य विशेषनेहरू और इंदिरावंशवाद की राजनीतिराजनीति में वंशवादप्रधानमंत्री नरेंद्र मोदीभारत रत्नन्याय यात्रा
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