चार वर्ष की लंबी जद्दोजहद के बाद अंतत: नागरिकता (संशोधन) अधिनियम-2019 को भारत के राजपत्र (गजट) में अधिसूचित कर दिया गया। 11 मार्च, 2024 को जारी गजट में नागरिकता की अर्हता और प्रक्रिया संबंधी 39 पृष्ठ की विस्तृत नियमावली है। इससे इस अधिनियम के क्रियान्वयन का मार्ग प्रशस्त होगा। यह संविधान निर्माताओं का वादा पूरा करने की दिशा में एक निर्णायक पहल है। दिसंबर 2019 को संसद के दोनों सदनों में यह अधिनियम पारित हुआ था। सीएए लागू होने के बाद शरणार्थियों में उत्साह का माहौल है। देश के विभिन्न हिस्सों में शरणार्थी के तौर पर रह रहे लोग ‘भारत माता की जय’ और ‘नरेंद्र मोदी जिंदाबाद’ के नारे लगाते हुए दिखे।
भारतीय संविधान में अनुच्छेद 5 से 11 तक नागरिकता के नियम निर्धारित किए गए हैं। 26 जनवरी, 1950 को भारत का संविधान लागू होते ही ब्रिटिश भारत में जन्मे लोगों को उसी दिन से भारत की नागरिकता मिल गई थी। लेकिन जो लोग पूर्व-रियासतों के निवासी थे, उनमें से बहुत-से लोगों ने भारत की नागरिकता नहीं ली थी। इसलिए 1955 में नागरिकता कानून बनाकर उन सबको भारत की नागरिकता दी गई। हालांकि इस कानून में समय-समय पर कई संशोधन किए गए। इसमें 1986, 1992, 2003 और 2005 में गोवा, दमन-दीव और दादरा एवं नगर हवेली, पुदुचेरी, कराईकल, माहे, यानम के अलावा बांग्लादेश और पाकिस्तान से भूमि विवादों को सुलझाकर भारत में मिलाए गए क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को नागरिकता देने संबंधी संशोधन शामिल हैं। इसी क्रम में मुस्लिम बहुल पड़ोसी देशों-पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में पांथिक आधार पर प्रताड़ित अल्पसंख्यकों (हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी समुदाय) को नागरिकता देने के लिए नागरिकता संशोधन अधिनियम-2019 पारित हुआ था।
आवेदन प्रक्रिया सरल
गजट में अधिसूचित नियमावली सरल, सुगम और संवेदनशील है। नए कानून में नागरिकता की प्रक्रिया को आसान बनाया गया है। इसमें आवेदक को अपना या अपने पिता, पितामह, प्रपितामह को पाकिस्तान, बांग्लादेश, अफगानिस्तान सरकार द्वारा जारी वैध या समाप्त हो चुके पासपोर्ट या वहां की नागरिकता संबंधी कोई भी दस्तावेज, भारत सरकार द्वारा जारी आवासीय परमिट या जन्म या विवाह प्रमाण-पत्र, आधार कार्ड, पैन कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड, बैंक पासबुक, डाकघर खाता, जीवन बीमा पॉलिसी आदि 20 दस्तवेजों में से किसी एक के साथ आवेदन करना होगा। यदि उसके पास इनमें से कोई भी प्रमाण-पत्र नहीं है तो शपथपत्र देकर अपनी अर्हता संबंधी घोषणा करनी होगी। साथ ही, ग्राम पंचायत, नगर पालिका या नगर निगम आदि स्थानीय शासी निकायों द्वारा जारी प्रमाण-पत्र को भी मान्यता दी गई है, जिससे पता चले कि उसने किस तिथि को भारत में शरण ली। अब आवेदन जिलाधिकारी कार्यालय के बजाए केंद्रीकृत आनलाइन पोर्टल पर किया जा सकेगा।
पहले मान्य दस्तावेजों की सूची बहुत सीमित थी। साथ ही, 8वीं अनुसूची में दर्ज 22 भाषाओं में से किसी एक का ज्ञान और इस संबंध में किसी शिक्षण संस्थान द्वारा जारी प्रमाण-पत्र के अलावा अपने साथ दो भारतीय नागरिकों से अर्हता संबंधी शपथपत्र देना अनिवार्य था। लेकिन अब न केवल दस्तावेजों की सूची को व्यापक बनाया गया है, बल्कि तमाम सख्त नियमों और जटिल प्रक्रियाओं को आसान बनाया गया है, ताकि लक्षित समुदाय को इस अधिनियम का अपेक्षित और त्वरित लाभ मिल सके।
हालांकि 2019 से लेकर आज तक पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु, दिल्ली और पंजाब की सरकारें इसका विरोध कर रही हैं। इन राज्यों के सत्तारूढ़ दलों का विरोध उनकी मुस्लिम तुष्टीकरण की परंपरा के कारण हैं। विपक्षी दलों के विरोध और चुनिंदा राज्य सरकारों के विरोध के कारण ही नागरिकता के आवेदन प्रक्रिया को केंद्रीकृत किया गया है। साथ ही, नागरिकता प्रदान करने के लिए अब ‘केंद्रीय सक्षम समिति’ का भी गठन किया जाएगा। इसमें संबंधित राज्य सरकारों को भी प्रतिनिधित्व मिलेगा। जिला स्तर पर भी समितियां गठित की जाएंगी, जो प्रारंभिक कार्यवाही शुरू करेंगी और केंद्रीय सक्षम समिति का सहयोग करेंगी। इस व्यवस्था से राज्य सरकारों के अनावश्यक विरोध और हस्तक्षेप को नियंत्रित किया जा सकेगा। उल्लेखनीय है कि संविधान में नागरिकता केंद्रवर्ती सूची का विषय है।
विभाजन की त्रासदी
1192 में मोहम्मद गोरी के आक्रमण से लेकर अंग्रेजों और बाद में मुस्लिम लीग व कांग्रेस नेताओं ने भारतभूमि और भारतवासियों को बांटा। स्वतंत्रता के बाद जब महजब के आधार पर विभाजन हुआ और पाकिस्तान और बांग्लादेश देश बना। इस बंटवारे में लाखों लोगों की जान गई। मजहब के नाम पर अलग देश की मांग मनवाने के लिए मोहम्मद अली जिन्ना ने 16 अगस्त, 1946 को ‘डायरेक्ट एक्शन डे’ की घोषणा की। इसके बाद कलकत्ता में भीषण दंगे हुए, जिसमें 72 घंटे के अंदर 20,000 से अधिक हिंदू मारे गए और लाखों हिंदू बेघर हो गए। मासूम बच्चियों और महिलाओं का उनके परिजनों के सामने ही सामूहिक बलात्कार किया गया।
इसके बाद जब भारत विभाजन हुआ, तब बड़े पैमाने पर कत्लेआम हुआ। पाकिस्तान में हिंदुओं और सिखों के साथ वही सब हुआ, जो कलकत्ता में हुआ था। लेकिन यह दंगा उससे अधिक व्यापक था, जिसे याद कर आज भी सिहरन होती है। लेकिन इतना सब कुछ होने के बाद भी गांधीजी ने कांग्रेस पर दबाव डाला और सुनिश्चित किया कि मुसलमान अगर चाहें तो भारत में रह सकते हैं। उन्हें सुरक्षित वातावरण तो दिया ही, एक पंथनिरपेक्ष देश होते हुए भी उन्हें पर्सनल लॉ तक की सुविधा प्रदान की। दूसरी तरफ, भारत में 1948 से प्रताड़ना के कारण लगातार विस्थापित लोगों की संख्या बढ़ रही है।
1971 का नरसंहार तो इतना भयावह था कि उस समय बांग्लादेश से शरणार्थियों की मानो बाढ़-सी आ गई थी। सीनेटर कैनेडी के अनुसार 1971 में बांग्लादेश से एक करोड़ शरणार्थी भारत आए, जिनमें 80 प्रतिशत हिंदू थे। गृह मंत्रालय की 1988-89 की रिपोर्ट के अनुसार, 1947 से 1971 तक 60,86,995 शरणार्थी भारत आए।
नेहरू का आश्वासन
स्वतंत्रता के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने हिंदुओं को आश्वस्त करते हुए कहा था, ‘‘राजनीतिक सीमाओं के कारण हमसे दूर हो चुके अपने भाइयों-बहनों की भी चिंता है। चाहे कुछ भी हो जाए, वे हमारे हैं और हमारे ही रहेंगे। उनके सुख-दुख में हम समान रूप से सहभागी होंगे और वे जब यहां आना चाहेंगे, हम उनका स्वीकार करेंगे।’’ हालांकि, बाद के वर्षों में समय-समय पर सभी नेताओं ने यह माना कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में अल्पसंख्यकों पर अत्याचार हो रहे हैं और वे भारत में उनका पुनर्वास कराने को तत्पर हैं।
यही नहीं, पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए 8 अप्रैल, 1950 दोनों देशों के बीच ‘नेहरू-लियाकत’ समझौता भी हुआ। लेकिन हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध और पारसी समुदाय के लोगों का उत्पीड़न जारी रहा। पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान में गैर-मुस्लिमों पर अत्याचार से खीझ कर पाकिस्तान के पहले कानून मंत्री जोगेंद्रनाथ मंडल त्यागपत्र देकर पश्चिम बंगाल लौट आए थे। उन्हें यह भ्रम था कि पाकिस्तान में हिंदुओं के साथ अन्याय नहीं होगा। लेकिन जब जोगेंद्रनाथ ने उनकी दुर्दशा और उन पर होने वाले अत्याचार को देखा, तो उन्हें अहसास हुआ कि जिस पाकिस्तान को उन्होंने अपना घर समझा था, वह तो रहने लायक ही नहीं है। हिंदू-मुस्लिम एकता का उनका भ्रम मात्र दो वर्ष में ही टूट गया था। वह पाकिस्तान से एक शरणार्थी के तौर पर वापस पश्चिम बंगाल आए थे और शरणार्थी के रूप में ही उनकी मृत्यु हुई।
दरअसल, पाकिस्तान में ‘नेहरू-लियाकत’ समझौता कभी लागू ही नहीं हुआ। अल्पसंख्यकों पर हमले होते रहे। वर्षों तक प्रताड़ना झेलने के बाद सब कुछ छोड़ कर जब वे हमसे आश्रय मांग रहे हैं, तो उन्हें स्वीकार करना हमारा कर्तव्य है। क्या उन्हें सामान्य जीवन जीने के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाए? एक ऐसे देश को क्या उनकी उपेक्षा करनी चाहिए, जिसके वे अंग थे और जिन्हें आश्वस्त भी किया गया था? जिस आस्था, संस्कृति और जीवन मूल्यों को अपना कर वे पले-बढ़े, जो उनके लिए जीवन से अधिक कीमती है, उसकी जन्म स्थली भारत में ही क्या उन्हें जलील होना पड़ेगा? 80 वर्ष पहले जिस भारतभूमि में उनकी जड़ें थीं, तो यह स्वाभाविक है कि वे अपनी उसी मातृभूमि में ही बसेंगे।
18 दिसंबर, 2003 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने भी कहा था, ‘‘अल्पसंख्यकों को बांग्लादेश जैसे देशों में उत्पीड़न का सामना करना पड़ रहा है और अगर हालात इन लोगों को मजबूर करते हैं, तो इन अभागे लोगों को नागरिकता प्रदान करना हमारा नैतिक दायित्व है। सरकार को इस विषय में सोचना चाहिए।’’ यही नहीं, राजस्थान में कांग्रेस के मुख्यमंत्री रहे अशोक गहलोत ने भी 2009 में तत्कालीन गृह मंत्री पी. चिदंबरम को पत्र लिख कर पड़ोसी मुस्लिम देशों में अल्पसंख्यकों की बदतर स्थिति से अवगत कराते हुए सरकार से उन्हें नागरिकता देने का अनुरोध किया था। आज वही कांग्रेस नागरिकता संशोधन कानून का विरोध कर रही है।
जरूरी था कानून
अपने ही देश में दशकों से शरणार्थी के रूप में रहना हिंदुओं के लिए तिल-तिल कर मरने जैसा था। इसलिए एक सार्वभौम राष्ट्र के लिए इस समस्या का समाधान और अपने पूर्व के आश्वासन को पूरा करना जरूरी था। भारत की नागरिकता मिलने के बाद वे न केवल बिना रोक-टोक के अपने धर्म का पालन कर सकेंगे, बल्कि शांतिपूर्ण जीवन भी जी सकेंगे। नागरिकता अधिनियम 1955 की धारा 5 के तहत वे नागरिकता के लिए आवेदन तो करते थे, लेकिन यह प्रमाण देने में असमर्थ थे कि उनका संबंध भारत से रहा है। हालांकि इस कानून की धारा 6 के तहत वह नागरिकता के लिए आवेदन तो करते थे, लेकिन यह उन्हें बहुत से अवसरों एवं लाभों से वंचित करता था। अब ऐसा नहीं है। पहले अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पाकिस्तान के हिंदुओं, सिखों, बौद्धों, जैनियों, पारसियों और ईसाइयों के लिए भारत में कम से कम 11 वर्ष रहना अनिवार्य था, लेकिन नए कानून में इसे घटाकर 5 वर्ष कर दिया गया है। यह समय अवधि 31 दिसंबर, 2014 से पहले पूरी होनी चाहिए।
नागरिकता पाने की प्रक्रिया
सीएए को लेकर तरह-तरह के भ्रम फैलाए जा रहे हैं। इसलिए यह जानना जरूरी है कि सीएए के तहत किन लोगों को नागरिकता दी जाएगी? इसके लिए उन्हें किन प्रक्रियाओं का पालन करना होगा?
किसे दी जाएगी नागरिकता?: पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान से आने वाले अल्पसंख्यकों, ऐसे शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जाएगी, जो 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत आए हैं। उन्हें यात्रा दस्तावेज के बिना भारत में प्रवेश की तिथि, वीजा या आव्रजन मुहर सहित जरूरी दस्तावेज भी देना होगा।
क्या करना होगा?: आनलाइन आवेदन करना होगा। आवेदन पहले जिला कमेटी के पास जाएगा, जिसे वह अधिकार प्राप्त कमेटी को भेजेगी, जिसमें एक निदेशक तथा 7 सदस्य होंगे। इनमें आईबी, विदेश, रीजनल रजिस्ट्रेशन आॅफिस, पोस्ट आॅफिस और राज्य सूचना अधिकारी शामिल होंगे।
क्या-क्या जानकारी देनी होगी?: आवेदन के समय अपने माता-पिता या पति का नाम, भारत में कब से और कहां रह रहे हैं, किस देश से आए हैं, वहां कहां रहते थे, भारत में आने के बाद क्या काम कर रहे हैं और धर्म क्या है। ये जानकारियां देनी होंगी।
कौन-कौन से दस्तावेज देने होंगे?: आनलाइन फॉर्म में शेड्यूल- 1अ के तहत 9 व शेड्यूल-1इ के तहत 20 तरह के दस्तावेज तथा शेड्यूल- 1उ के तहत शपथ-पत्र देना होगा। जिस देश से आए, वहां का पासपोर्ट, जन्म प्रमाण-पत्र, शैक्षणिक प्रमाण-पत्र, ड्राइविंग लाइसेंस, जमीन से जुड़े दस्तावेज देना होगा। भारत सरकार द्वारा जारी आधार कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, राशन कार्ड, जन्म प्रमाण-पत्र, पैन कार्ड, जमीनी दस्तावेज, बिजली और पानी का बिल, विवाह प्रमाण-पत्र आदि चाहिए।
दस्तावेज नहीं है तो क्या करें?: यदि किसी के पास कोई दस्तावेज नहीं है, तो वह उसका कारण बता सकता है। वे जिस राज्य में रह रहे हैं, वहां की नागरिकता के लिए आवेदन कर सकते हैं।
किसी ने भारत में विवाह कर लिया तो? : नागरिकता के लिए वेब पोर्टल पर विवाहित और अविवाहित के लिए अलग-अलग फॉर्म हैं। यदि भारत आने के बाद किसी भारतीय से शादी की है, तो उसके बारे में भी बताना होगा। बच्चों के लिए अलग फॉर्म है।
क्या किसी की नागरिकता छिनेगी?: बिल्कुल नहीं। सीएए में किसी किसी की नागरिकता छीनने का प्रावधान नहीं है। गृहमंत्री अमित शाह इस बारे में स्पष्ट कर चुके हैं।
नागरिकता संशोधन कानून किसी भी भारतीय, खासकर मुसलमानों की नागकिता को किसी भी प्रकार से प्रभावित नहीं करेगा। कानून में संशोधन केवल वंचितों को अधिकार देने के लिए किया गया है। शर्त यह है कि नागरिकता पाने वाला व्यक्ति 31 दिसंबर, 2014 से पहले भारत में आया हो। यहां तक कि पड़ोसी मुस्लिम देशों के मुसलमान भी भारत की नागरिकता पाने के लिए आवेदन कर सकते हैं। जैसे- पाकिस्तानी गायक अदनान सामी को 1 जनवरी, 2016 को भारत की नागरिकता दी गई।
बहरहाल, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने विपक्ष की बेबुनियाद आशंकाओं और भ्रम को लगातार दूर करने की कोशिश की है और नागरिकता संशोधन कानून से जुड़े हर बिंदु को स्पष्ट किया है। सच तो यह है कि जो सो रहा है, उसे तो जगाया जा सकता है, लेकिन जो सोने का ढोंग कर रहा हो, उसे कैसे जगाया जाए? विपक्षी दलों की स्थिति कुछ ऐसी ही है।
दरअसल, विपक्ष का विरोध चुनावी असफलता से उपजी हताशा है। उनका यह विरोध अपनी खोई हुई जमीन को पाने की छटपटाहट है, क्योंकि सीएए न तो मुस्लिम विरोधी है और न ही इसका राष्ट्रीय नागरिकता पंजी से इसका कोई संबंध है। यह संविधान की मूल भावना और पंथनिरपेक्षता के सिद्धांत के खिलाफ भी नहीं है। इसलिए विपक्षी दलों को देश का माहौल बिगाड़ने का प्रयास करने की बजाए अपने को बचाने पर ध्यान देना चाहिए, नहीं तो वे देश की राजनीति से ही अप्रासंगिक हो जाएंगे।
(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के किरोड़ीमल कॉलेज में प्रोफेसर हैं)
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