सीएए यानी नागरिकता संशोधन कानून भारत में लागू हो गया है। यह कानून पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक रूप से प्रताड़ित हो रहे अल्पसंख्यक समुदायों को नागरिकता देने के विषय में है। यह कानून अस्तित्व में इसीलिए आया क्योंकि आंकड़े लगातार यह बताते रहे हैं कि कैसे पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में गैर-मुस्लिमों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार होता आ रहा है। कैसे संविधान के लागू होने के बाद से ही पाकिस्तान में गैर मुस्लिमों के साथ संस्थागत भेदभाव आरम्भ हो गया था। और ऐसा नहीं है कि पश्चिम को इस बात की भनक नहीं है।
अमेरिका द्वारा धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन वाली जो सूची हर वर्ष जारी की जाती है उसमें पाकिस्तान का नाम ऐसे देश में शामिल है जहां पर धार्मिक स्वतंत्रता नहीं है। पाकिस्तान को कंट्रीज ऑफ पर्टिकुलर कंसर्न की सूची में डाला गया है, जिसका अर्थ यह हुआ कि यहाँ पर धार्मिक स्वतंत्रता के उल्लंघन से जुड़े अत्यंत गंभीर मामले दर्ज किए गए हैं। हिन्दू अमेरिका फाउंडेशन भी समय-समय पर कई आंकड़े पाकिस्तानी हिन्दुओं की दुर्दशा पर जारी करता रहता है और सबसे बड़े सबूत वे पाकिस्तानी हिन्दू हैं, जो अपनी धार्मिक पहचान की रक्षा के लिए भारत में शरण लेने आए हैं। भारत उनका अपना ही घर है। उनके अपने घर में उन्हें शरण नहीं मिलेगी तो कहां मिलेगी? यह एक ऐसा प्रश्न है जो विदेशी मीडिया के उस वर्ग से पूछा जाना चाहिए जो सीएए के लागू होते ही इसे मुस्लिम विरोधी बताकर वही खेल खेलने का कुप्रयास कर रहा है, जो आज से कुछ वर्ष पहले खेल चुका है।
वाशिंगटन पोस्ट में शेख सालिक ने खबर का शीर्षक इस प्रकार दिया कि “India announces steps to implement a citizenship law that excludes Muslims” अर्थात भारत ने उस नागरिकता क़ानून को लागू करने का निर्णय लिया, जो मुस्लिमों को बाहर करता है। इस पूरी खबर में भारत के विरुद्ध वही विषवमन किया गया है, जो एक वर्ग लगातार करता आ रहा है। जैसे कि यह कानून मुस्लिम विरोधी है और इसे हिन्दू राष्ट्रवादी नेता नरेंद्र मोदी द्वारा चुनावों से पहले लाया गया है।
ये तो थी वाशिंगटन पोस्ट की बात! सबसे हैरान करने वाली बात तो पाकिस्तानी अखबार dawn की है। वह लिखता है कि “चुनावों से पहले भारत ने उस नागरिकता कानून को लागू किया, जिसका विरोध मुस्लिम कर रहे थे!”
इसके बाद वह अपनी रिपोर्ट में लिखता है कि भारत ने जो कानून लागू किया है, उसके विषय में मुस्लिम समूहों का कहना है कि यह कानून प्रस्तावित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर अर्थात नेशनल रजिस्टर ऑफ सिटीजन के साथ है, अत: यह 200 मिलियन मुस्लिमों के विरुद्ध भेदभाव वाला हो सकता है। फिर वह कांग्रेस के जयराम रमेश के ट्वीट का उल्लेख करते हुए लिखता है कि विपक्षी कांग्रेस ने इसे चुनावों के साथ जोड़ा है। मगर अपनी एक और खबर में dawn ने अखिलेश यादव के ट्वीट का उल्लेख किया है, जिसमें अखिलेश यादव सरकार पर निशाना साध रहे हैं।
बीबीसी ने भी अपनी खबर का शीर्षक देते हुए लिखा कि CAA: India to enforce migrant law that excludes Muslims अर्थात सीएए: भारत ऐसा प्रवासन क़ानून लागू कर रहा ई, जो मुस्लिमों को बाहर करता है
बीबीसी की इस खबर में भी विपक्षी दलों के विरोध को ही प्रमुखता से उठाया गया है। इसमें भी जयराम रमेश के एक्स पोर्टल पर किए गए पोस्ट का उल्लेख है और असदुद्दीन ओवैसी की पोस्ट का उल्लेख है। इसके साथ ही इसमें कहा है कि इस कानून में पड़ोसी म्यांमार से प्रताड़ित होकर आने वले रोहिंग्या मुस्लिमों के लिए प्रावधान नहीं है। मगर बीबीसी या ऐसे पोर्टल यह लिखना भूल जाते हैं कि मुस्लिमों के अपने 57 देश हैं, और जब धार्मिक आधार पर भेदभाव या मजहबी आधार पर एक देश की बात होती है तो क्या यह मुस्लिम मुल्कों का कर्तव्य नहीं है कि वह अपने मुस्लिम भाइयों की मदद करें? और बीबीसी जैसे पोर्टल्स को यह भी लिखना चाहिए कि आखिर मुस्लिम देश जैसे इंडोनेशिया, बांग्लादेश आदि रोहिंग्या मुस्लिमों से हाथ क्यों झाड़ रहे हैं?
मगर ऐसी कोई भी बात कोई भी पश्चिमी पोर्टल नहीं लिखता है। इसके बाद यदि और पोर्टल्स देखें तो पाएंगे कि भारत के भारतीय अर्थात हिन्दू अस्तित्व के विरुद्ध घृणा कूट-कूट कर भरी हुई है। अल ज़जीरा ने सीएए पर कई खबरें लिखी हैं। जिसमें उसने यह “समझाने” का हर संभव प्रयास किया है कि आखिर भारत का यह नागरिकता संशोधन अधिनियम इतना विवादास्पद क्यों है? एक खबर उसने लिखी कि भारत ने अपना मुस्लिम विरोधी नागरिकता क़ानून लागू किया
फिर दूसरी खबर में वह लिखता है कि आखिर भारत का नागरिकता संशोधन कानून इतना विवादास्पद क्यों है? इसमें भी वह वही बात करता है कि इस कानून में पाकिस्तान, अफगानिस्तान एवं म्यांमार जैसे देशों से प्रताड़ित होकर आ रहे मुस्लिम समुदाय जैसे अहमदिया, हजारा और रोहिंग्या आदि के लिए कोई प्रावधान नहीं है और इन समुदायों को पहले की तरह ही भारतीय नागरिकता हासिल करने के लिए 11 वर्षों की प्रतीक्षा करनी पड़ेगी और हिन्दुओं, पारसियों, सिखों, बौद्ध, जैनों और ईसाइयों के विपरीत इन्हें अपने वैध दस्तावेजों से यह प्रमाणित करना पड़ेगा कि आखिर वे भारत में क्यों बने रहना चाहते हैं? अल जजीरा जैसे पोर्टल्स पाकिस्तान या अफगानिस्तान की इस्लामी सरकारों पर यह दबाव क्यों नहीं डालते हैं कि वह अपने ही मुस्लिम समुदाय के भाइयों के साथ प्रताड़ना का गंदा खेल बंद करें?
कोई भी ऐसा पोर्टल जो भारत पर यह प्रश्न उठा रहा है कि वह पाकिस्तान, अफगानिस्तान से धार्मिक आधार पर प्रताड़ित गैर-मुस्लिमों के लिए नागरिकता आसान क्यों बना रहा है, कभी भी पाकिस्तान या अफगानिस्तान या किसी भी अन्य इस्लामी मुल्कों से यह प्रश्न नहीं करता कि जब इस्लाम की मजहबी पहचान के साथ आपका मुल्क बना है तो आप अपने ही मजहबी भाइयों के साथ भेदभाव या कत्लेआम क्यों करते हैं? क्यों उनके इबादत खानों को गिराते हैं? आश्चर्य की बात यही है कि लगभग सभी पोर्टल्स ने कांग्रेस के नेता जयराम रमेश के उस पोस्ट को अपनी अपनी ख़बरों को वर्णित किया है। सीएनएन ने भी अपनी खबर में लिखा है कि भारत ऐसे विवादास्पद नागरिकता कानून को लागू करने जा रहा है, जो मुस्लिमों को बाहर करता है।
इस खबर में सीएनएन ने हल्द्वानी की घटना को मनमर्जी से बताते हुए लिखा है कि नागरिकता कानून दिल्ली और उत्तराखंड में दो मस्जिदों के ढहाए जाने के एक महीने बाद लागू हुआ है। और जनवरी में मोदी ने एक ऐसे स्थान पर भव्य मन्दिर में प्राण प्रतिष्ठा की थी, जिसे हिन्दू कट्टरपंथियों ने तीस वर्ष पहले तोड़ दिया था।
दरअसल जितने भी कथित पश्चिमी पोर्टल्स हैं, वह भारत की भारतीय पहचान के प्रति एक घृणित औपनिवेशिक मानसिकता से भरे हुए हैं, जिनकी दृष्टि में भारत का इतिहास मात्र मुगलों के आगमन के बाद आरम्भ होता है। उनके लिए भारत की भारतीय पहचान कुछ है ही नहीं। हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख, पारसी आदि समुदाय उनके लिए मायने नहीं रखते हैं। क्योंकि वह उनकी धार्मिक पहचान के प्रति कुंठा से भरे हैं अत: न ही उनके साथ हो रहे धार्मिक अत्याचार का मामला मीडिया के इस वर्ग के लिए मायने रखता है और न ही धार्मिक आधार पर हो रही हत्याएं उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर पाती हैं।
यही कारण है कि जब भारत ने अपनी भारतीय पहचान वाले समुदायों के धार्मिक अस्तित्व की रक्षा के लिए नागरिकता संशोधन का कदम उठाया है वह मीडिया के इस वर्ग को पसंद नहीं आ रहा है। जबकि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि धार्मिक स्तर पर प्रताड़ित होने वाले ईसाइयों के लिए भी इस कानून के अंतर्गत नागरिकता का प्रावधान है, तो क्या यह माना जाए कि पश्चिमी मीडिया का एक बड़ा वर्ग जो इस कानून को मुस्लिमों के प्रति भेदभाव वाला बता रहा है उसे भारतीय मूल के ईसाइयों से कुछ लेना देना नहीं है क्योंकि वह इस विषय में तो बोल ही नहीं रहा कि इसमें ईसाई समुदाय भी सम्मिलित है?
द गार्जियन (The Guardian) ने लिखा कि…
तमाम पोर्टल्स उसी झूठ को लगातार फैला रहे हैं, जो झूठ फैलाकर वह भारत में अस्थिरता पैदा करने का प्रयास पहले कर चुके हैं और भारत के मुस्लिमों को भड़का चुके हैं, जबकि इस कानून का कोई भी प्रावधान भारतीय मुस्लिमों के खिलाफ नहीं है।
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