दक्षिणेश्वर (कोलकाता) के महानतम संत श्री श्री रामकृष्ण परमहंस देव की गणना भारतीय नवजागरण काल के उन शीर्ष पुरोधाओं में होती है जिन्होंने विदेशी दासता के अंधयुग में विलुप्त हो रही भारत की आध्यात्मिक ज्ञान परम्परा को पुन: प्रवाहमान किया था। राष्ट्रवादी चेतना के उत्थान काल का सुव्यव्यस्थित अध्ययन करने वाले इतिहासकार सुशोभन सरकार लिखते हैं, ‘नवजागरण काल’ के दौरान दक्षिणेश्वर के संत रामकृष्ण परमहंस ने अपने चुम्बकीय व्यक्तित्व के माध्यम से धर्म के मूल तत्व को अत्यन्त सहज रूप में आम जनता के समक्ष प्रस्तुत किया। इससे उस काल में ईसाई कन्वर्जन को हवा देने वाला प्रोटेस्टेंट उग्रवाद कमजोर हुआ। 1893 में शिकागो (अमेरिका) में आयोजित वर्ल्ड रिलीजस कांफ्रेंस में दिये गये अपने भाषण के माध्यम से भारत के आदर्शवादी राष्ट्रवाद का सूत्रीकरण करने वाले परमहंस के युवा शिष्य स्वामी विवेकानंद की स्पष्ट उद्घोषणा थी कि वह सिर्फ श्री रामकृष्ण परमहंस के साधारण से यंत्र मात्र हैं।
स्वामी रामकृष्ण परमहंस सिर्फ बंग देश की ही नहीं अपितु समूचे राष्ट्र या यूं कहें कि संपूर्ण विश्व की विलक्षण आध्यात्मिक विभूति माने जाते हैं। उनका समूचा जीवन अध्यात्म की विलक्षण प्रयोगशाला था। दक्षिणेश्वर के इस अनूठे संत ने भाषण और वक्तव्य दिए बिना, सभा-सम्मेलनों में शास्त्रार्थ किए बिना, केवल अपने आचरण और अपनी अनुभूतियों के बल पर यह सिद्ध कर दिखाया कि हिन्दुत्व का केवल वेद-उपनिषद् वाला रूप ही नहीं बल्कि वह रूप भी पूर्ण सत्य है, जिसका आख्यान पुराकथाओं व संतों की जीवनियों में मिलता है। उन्होंने हिन्दुत्व की रक्षा अन्य धर्मों को पछाड़कर नहीं, प्रत्युत उन्हें अपना बनाकर की। भारत की महान ऋषि परंपरा के इस अप्रतिम वाहक की स्पष्ट मान्यता थी कि आत्मा की अनुभूति सिर्फ आत्मचेतना द्वारा ही संभव है। परमहंस के द्वारा व्याख्यायित धर्म हमारे महान तत्वदर्शी ऋषियों द्वारा पोषित व पल्लवित वह सनातन धर्म था जिसका एक छोर अतीत की गहराइयों में डूबा हुआ था और दूसरा सिरा भविष्य के गहवर की ओर फैल रहा था। गौरतलब हो कि इस सनातन धर्म की मूल्य मान्यताओं की अनुभूतिजन्य पुष्टि के लिए उन्होंने इस्लाम और ईसाई धर्म का भी साधनात्मक अध्ययन किया था। इन साधनाओं के निष्कर्ष रूप में उन्होंने यह मान्यता प्रतिपादित की थी कि परम सत्य एक ही है और वह सनातन है। यदा यदा हि धर्मस्य…की तर्ज पर सारे धर्म-धर्मान्तर इसी सनातन सत्य से उद्भूत हुए हैं।
वैज्ञानिक अध्यात्म के प्रणेता युगऋषि पं. श्रीराम शर्मा आचार्य लिखते हैं कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस और आधुनिक विश्व में प्राचीन राष्ट्र के विचार को नये सिरे से परिभाषित करने वाले स्वामी विवेकानंद के बीच निश्चित रूप से एक प्रत्यक्ष संबंध था। उन्होंने ही नरेन्द्र नामक एक नौजवान को स्वामी विवेकानंद बनाकर विश्वमंच पर सनातन हिंदुत्व को प्रकाशमान किया था। रामकृष्ण प्रकृति के प्यारे पुत्र थे और प्रकृति उनके द्वारा यह सिद्ध करना चाहती थी कि जो मानव-शरीर भोगों का साधन बन जाता है, वही चाहे तो त्याग का भी पावन यंत्र बन सकता है। हृदय के अत्यंत निर्मल रहने के कारण वे पुण्य की ओर संकल्प-मात्र से बढ़ते चले गये। काम का त्याग भी उन्हें सहज ही प्राप्त हो गया। इस दिशा में संयमशील साधिका उनकी धर्मपत्नी माता शारदा देवी का योगदान इतिहास में सदा अमर रहेगा। गुरु भी उन्हें घर बैठे मिले। अद्वैत व वेदांत की दीक्षा उन्होंने महात्मा तोतापुरी से ली और तंत्र-साधना उन्होंने एक भैरवी से सीखी। इसी प्रकार इस्लामी साधना गोविन्द राय ने सिखायी जो हिन्दू से मुसलमान हो गये थे और ईसाइयत की साधना उन्होंने ईसाई धर्म के ग्रंथों के अच्छे जानकार शंभुचरण मल्लिक से सीखी। मगर इन सभी साधनाओं में रमने के उपरांत धर्म के गूढ़ रहस्यों को हृदयंगम कर मां काली के चरणों में उनका विश्वास अचल हो गया। जैसे बालक प्रत्येक वस्तु की याचना अपनी मां से करता है, वैसे ही रामकृष्ण भी हर चीज काली से मांगते थे और हर काम उनकी आज्ञा से करते थे। रामकृष्ण जी का कहना था कि वे नहीं वरन मां काली सदैव उनकी उंगली पकड़े रहती हैं। सार रूप में कह सकते हैं कि रामकृष्ण के रूप में भारत की सनातन परंपरा ही देह धरकर खड़ी हो गयी थी। फलस्वरूप रोम्यां रोला जैसे सुप्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान ने परमहंस जी की जीवनी लिखकर स्वयं को धन्य किया था। स्वामी निर्वेदानंद लिखते हैं, ‘रामकृष्ण परमहंस’ समाधि के कमंडल में बंद हिन्दू धर्म की ऐसी गंगा थे जिन्हें उनके शिष्य स्वामी विवेकानंद ने कमंडल से निकालकर सारे विश्व में फैला दिया था। वस्तुतः हिन्दू धर्म में जो गहराई और माधुर्य है, रामकृष्ण परमहंस उसकी प्रतिमा थे। उनकी इन्द्रियां पूर्ण रूप से उनके वश में थीं।
हुगली जिले में कामारपुकुर नामक गांव में फाल्गुन मास के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि (18 फरवरी 1836 ई.) को एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में जन्मे रामकृष्ण के बचपन का नाम गदाधर था। इनके जन्म पर प्रसिद्ध ज्योतिषियों ने बालक के महान धर्मज्ञानी होने भविष्यवाणी की थी, जिसे से सुन पिता खुदीराम चट्टोपाध्याय तथा माता चन्द्रा देवी अत्यन्त प्रसन्न हुए। पांच वर्ष की उम्र में ही ये अद्भुत प्रतिभा और स्मरणशक्ति का परिचय देने लगे। अपने पूर्वजों के नाम व देवी-देवताओं की स्तुति, रामायण, महाभारत की कथायें इन्हें कंठस्थ थीं। बचपन से ही वे धार्मिक चिंतन में मग्न रहते थे मगर औपचारिक स्कूली शिक्षा के प्रति इनकी जरा भी रुचि नहीं थी। दक्षिणेश्वर काली मंदिर में पुजारी बन अपनी निश्चल भक्ति से मां काली का वरद पुत्र बनने वाले अध्यात्म विद्या के इस महासाधक के अतुलनीय जीवन चरित्र से हमें ईश्वर को प्रत्यक्ष अनुभव करने का आदर्श प्राप्त होता है और यह निश्चय होता है कि एकमात्र ईश्वर ही सत्य है एवं उसके अतिरिक्त सब मिथ्या। पत्रों से झलकती श्रद्धा अमरीका पहुंचने के बाद 29 जनवरी, 1894 को शिकागो से एक पूर्व दीवान श्री हरिदास बिहारीदास देसाई को स्वामी विवेकानंद लिखते हैं, यदि मैं संसार त्याग न करता तो जिस महान आदर्श का मेरे गुरुदेव श्री रामकृष्ण परमहंस उपदेश करने आये थे, उसका प्रकाश न होता…उन्होंने भारत का बहुत कल्याण किया है, विशेषत: बंगाल का। दर्शन, विज्ञान या अन्य किसी भी विधा की थोड़ी भी सहायता न लेकर इस महापुरुष ने विश्व इतिहास में पहली बार इस सत्य की घोषणा की कि सभी धर्म मार्ग सत्य हैं। अंग्रेजी शिक्षा के अभिमान में डूबे लोगों को फटकारते हुए स्वामी जी ने कहा, ऐ पढ़े लिखे मूर्खों! अपनी बुद्धि पर व्यर्थ गर्व न करो। कभी मैं भी करता था किन्तु विधाता ने मुझे ऐसे महान व्यक्ति के चरणों में अपना जीवन मंत्र पाने को बाध्य किया जो निरक्षर, घोर मूर्तिपूजक और दीखने में पागल जैसा था। वहीं 3 मार्च 1894 को वाराणसी के एक बड़े विद्वान श्री प्रमदा दास मित्र को उन्होंने लिखा था, मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि रामकृष्ण के बराबर दूसरा कोई नहीं है। वैसी अपूर्व सिद्धि, वैसी अपूर्व अकारण दया, जन्म-मरण से जकड़े हुए जीव के लिए वैसी प्रगाढ़ सहानुभूति इस संसार में और कहां?…इस अद्भुत महापुरुष, अवतार या जो कुछ भी समझिये, ने अपने अन्तर्यामित्व गुण से मेरी सारी वेदनाओं को जानकर स्वयं आग्रहपूर्वक बुलाकर उन सबका निराकरण किया। इसी तरह मां भारती को विदेशी चंगुल व सामाजिक कुरीतियों के बंधन से मुक्त कराने के लिए अपने महान गुरु के अप्रतिम योगदान के प्रति श्रद्धा निवेदित करते हुए 1895 में अमरीका से अपने गुरुभाई स्वामी रामकृष्णानंद को पत्र में स्वामी विवेकानंद ने लिखते हैं, वेद- वेदांत तथा अन्य अवतारों ने जो कार्य भूतकाल में किया, श्री रामकृष्ण ने उसकी साधना एक ही जीवन में कर डाली। उनके जन्म की तिथि से सत्य युग आरंभ हुआ है। वे सही मायने में शांति के दूत थे। कभी-कभी उनकी भविष्य दृष्टि चमत्कारिक लगती है।
श्री परमहंस व गुरु गोलवलकर
श्री रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के गुरु गोलवलकर के मध्य एक अनूठा, अलौकिक व आध्यात्मिक संबंध था। स्वामी विवेकानंद के राष्ट्र निर्माण के अभियान को संघ के माध्यम से जमीनी स्तर पर साकार करने वाले गुरु गोलवलकर संघ में आने से पूर्व स्वामी रामकृष्ण के शिष्य स्वामी अखंडानंद की प्रेरणा से रामकृष्ण मिशन की आध्यात्मिक धारा से जुड़े थे। गुरु गोलवलर ने संघ के माध्यम से व्यक्ति निर्माण और राष्ट्र निर्माण के स्वामी विवेकानंद के अभियान के सबसे श्रमसाध्य पहलू को पूरा करने के लिए आध्यात्मिक साधना को छोड़ समाज सुधारक की भूमिका अपना ली। आध्यात्मिक और राष्ट्रवादी दृष्टि रखने वाले गुरु जी सही मायने में मां भारती के अनन्य सेवक थे। श्री रामकृष्ण के राष्ट्रवादी विचारों को अपने जीवन में अमली जामा पहनाने वाले गुरु जी स्वयं के लिए मोक्ष का मार्ग खोजने वाले नहीं, अपितु एक ऐसे संत थे जिन्होंने सनातन धर्म की पुर्नस्थापना हेतु अपना समूचा जीवन समर्पित कर दिया था।
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