14 फरवरी, 2024 को कानपुर के बेहमई में हुए सामूहिक हत्याकांड का 43 साल बाद फैसला आया था। इस मामले में मुख्य अभियुक्त रहीं फूलन देवी समेत 36 लोग आरोपी थे। इनमें से एक को न्यायालय ने उम्रकैद की सजा सुनाई है, जबकि दूसरे को संदेह का लाभ देते हुए बरी कर दिया। इस मामले में कई आरोपियों और गवाहों की पहले ही मृत्यु हो चुकी है। तीन आरोपी फरार हैं, जिनकी आज तक गिरफ्तारी ही नहीं हो पाई है। बेहमई के इस चर्चित हत्याकांड ने देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी सुर्खियां बंटोरी थीं। फूलन देवी ने अपने गिरोह के साथ मिलकर 20 लोगों की हत्या कर दी थी। यह सिर्फ एक उदाहरण है। देश में बड़ी संख्या में ऐसे मामले मिल जाएंगे, जिनमें बरसों से लोग न्याय की बाट जोह रहे हैं।
- हाल ही में भारत के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ ने देश के न्यायालयों में लंबित मामलों को लेकर चिंता व्यक्त की थी और कहा था कि यदि व्यक्ति न्याय की प्रतीक्षा में मर जाता है, तो यह उचित नहीं है। लंबित मामले न्याय के कुशल प्रशासन के लिए ‘एक गंभीर चुनौती’ पेश करते हैं।न्याय का सिद्धांत कहता है कि न्यायाधीश को राग, द्वेष और दुर्भावना से परे होकर न्याय करना चाहिए।
भारत में न्यायिक व्यवस्था का अपना अलग महत्व है। पिछले साल जुलाई में एक प्रश्न के जवाब में राज्यसभा में कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने बताया था कि देश में 5.02 करोड़ से अधिक मामले अलग-अलग न्यायालयों में लंबित हैं। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा इंटीग्रेटेड केस मैनेजमेंट से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, 1 जुलाई, 2023 तक सर्वोच्च न्यायालय में 69,766 मामले लंबित थे। राष्ट्रीय न्यायिक डेटा ग्रिड (एनजेडीजी) की बात करें, तो 14 जुलाई, 2023 तक देश के विभिन्न उच्च न्यायालयों में 60 लाख 62 हजार 953 मामले लंबित थे। इसके अलावा, जिला और अधीनस्थ अदालतों में लंबित मामलों की कुल संख्या 4 करोड़ 41 लाख 35 हजार 357 है।
न्याय में विलंब के पीछे बहुत से कारण हैं, जिनका समाधान किया जाना बेहद आवश्यक है। - पहला, न्यायाधीशों की कमी है। भारत में प्रति 10 लाख की जनसंख्या पर केवल 20 न्यायाधीश हैं। यह वैश्विक औसत से काफी कम है। वहीं, चीन में 10 लाख की जनसंख्या पर 300 न्यायाधीश हैं, जबकि अमेरिका में यह संख्या प्रति 10 लाख की जनसंख्या पर 150 है। भारत दुनिया में सबसे बड़ी जनसंख्या वाला देश है। ऐसे में प्रति 10 लाख की जनसंख्या पर 20 न्यायाधीश बहुत
कम हैं। - दूसरा, सबसे बड़ा कारण देश में बढ़ते मामलों की संख्या है। जैसे-जैसे देश की जनसंख्या बढ़ी, औद्योगीकरण और शहरीकरण के चलते विवादों और मुकदमों की संख्या में भी बढ़ोतरी हुई। लंबी न्यायिक प्रक्रिया, कानूनी जटिलताओं और अन्य विभिन्न कारणों के चलते न्यायिक प्रक्रिया देश में बेहद धीमी है।
- तीसरा सबसे बड़ा कारण न्यायालयों के पास संसाधनों की कमी है। सर्वोच्च न्यायालय के योजना एवं शोध विभाग द्वारा तैयार की गई रिपोर्ट के अनुसार, केवल न्यायधीशों की नहीं, बल्कि देश में पर्याप्त न्यायालयों, सहायक कर्मचारियों और अन्य बुनियादी सुविधाओं की भी बेहद कमी है। इस रिपोर्ट के अनुसार, जिला अदालतों में 5 हजार से अधिक न्यायाधीश, 75 हजार से अधिक सहायक कर्मियों के पद खाली पड़े हैं। यह भी एक बड़ा कारण है, जो न्यायिक प्रक्रिया को धीमा करता है। इसके अतिरिक्त, वकीलों और अन्य कानूनी पेशेवरों की कमी भी एक चुनौती है।न्याय में होने वाली देरी और लंबित मामलों से निपटने के उपाय किए जाने बेहद आवश्यक हैं। सबसे पहले, न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया को तेज करना, रिक्तियों को समय पर भरना तो महत्वपूर्ण है ही, साथ ही न्यायिक बजट को बढ़ाकर अदालतों में बुनियादी ढांचे और तकनीक में भी निवेश किए जाने की जरूरत है। दूसरे, कानूनी शिक्षा और प्रशिक्षण पर ध्यान देना आवश्यक है, ताकि योग्य और कुशल अधिवक्ता और न्यायिक अधिकारियों की आपूर्ति सुनिश्चित की जा सके।तीसरा, मध्यस्थता और सुलह जैसे वैकल्पिक विवाद समाधान तंत्रों को भी बढ़ावा देना चाहिए। ऐसा होने से न्यायिक प्रणाली पर बोझ कम होगा और लोगों को लंबे समय तक न्यायालय के फैसले को लेकर इंतजार नहीं करना पड़ेगा।
- चौथा, न्यायालयों में डिजिटलीकरण और प्रौद्योगिकी का उपयोग करना चाहिए। ई-कोर्ट और ई-फाइलिंग जैसी पहल न्यायिक प्रक्रिया को तेज करने में मदद करेंगी। सर्वोच्च न्यायालय कई बार इस संबंध में टिप्पणी कर चुका है।न्यायिक सुधार सतत चलने वाली एक प्रक्रिया है। इसमें सभी हितधारकों -न्यायपालिका, कानूनी व्यवसाय, सरकार और नागरिक समाज-की भागीदारी भी आवश्यक है। सकारात्मक प्रयासों से न्याय प्रक्रिया में सुधार किया जा सकता है तथा न्याय प्रक्रिया और अधिक कुशल व जवाबदेह बनाया जा सकता है।
@hiteshshankar
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