आज हमारा भारत सम्पन्न परंपराओं और सांस्कृतिक जीवन मूल्यों से समृद्ध तेजी से विकसित होने वाला दुनिया का एक शक्तिशाली राष्ट्र है और इस सशक्त भारत की सर्वतोमुखी प्रगति की दिशा में शक्ति, ऊर्जा व दूरदर्शिता से ओतप्रोत देश की मातृशक्ति सदा से प्रत्येक क्षेत्र में अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराती रही हैं। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई और दक्षिण की वीरांगना रानी चेन्नमा से लेकर भारत की पहली महिला शिक्षिका सावित्रीबाई फुले और पहली महिला चिकित्सक आनंदीबाई जोशी तथा स्वतंत्र भारत की पहली महिला राज्यपाल सरोजनी नायडू से लेकर सर्वोच्च न्यायालय की महिला न्यायाधीश लीला सेठ से लेकर महिला अंतरिक्ष वैज्ञानिक कल्पना चावला; विभिन्न क्षेत्रों में भारतीय महिलाओं की विशाल उपलब्धियों की सुदीर्घ श्रृंखला ने देशवासियों को सदा ही गौरवान्वित किया है। स्वामी विवेकानन्द का यह कथन कि भारत की नारीशक्ति और कुछ नहीं बल्कि देवी मां का अवतार है… शक्ति की देवी है। हम उस परंपरा का हिस्सा हैं, जहां पुरुषों की पहचान नारियों से होती थी। यदि हम पर उसकी कृपादृष्टि हो जाए तो हमारी शक्तियों में अनेक गुणा बढ़ोतरी हो जाएगी; भारत की मातृशक्ति की गौरव गरिमा को स्थापित करता है।
वनवासी समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली महिला द्रौपदी मुर्मू जी का भारत का राष्ट्रपति बनना हो, श्रीमती आनंदीबेन का देश के सबसे बड़े सूबे उत्तर प्रदेश का और सुश्री अनुसुइया उइके का छत्तीसगढ़ का राज्यपाल बनना हो, सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश के पद को सुशोभित करने वाली न्यायमूर्ति हिमा कोहली, बी.वी. नागरत्ना, बी.एम. त्रिवेदी और इंदिरा बनर्जी हों, केंद्र सरकार में देश का वित्त मंत्रालय संभाल रही निर्मला सीतारमण हों, शिक्षा क्षेत्र में भारत की टॉप यूनिवर्सिटीज में शुमार जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जे.एन.यू) की वर्तमान कुलपति प्रोफेसर शांतिश्री धुलिपुड़ी पंडित समेत देश के आधा दर्जन विश्वविद्यालयों की महिला कुलपति हों, सैन्य क्षेत्र में देश की जांबाज फाइटर पायलेट अवनि चतुर्वेदी हों या फिर हाल ही में दुनिया के सबसे ऊंचे युद्धक्षेत्र सियाचिन पर तैनात महिला सैन्य अधिकारी कैप्टन शिवा चौहान हों; भारत की मातृशक्ति की ये शीर्षस्थ उपलब्धियां हर सच्चे राष्ट्रवासी को गौरवान्वित करने वाली हैं। आज से कुछ दशक पूर्व तक क्या कोई ऐसा सोच सकता था कि एक महिला पूरा देश चला सकती है? हवाई जहाज उड़ा सकती है? मुक्केबाजी, कुश्ती व क्रिकेट व हॉकी जैसे पुरुष प्रधान खेलों में भारतीय महिलाओं की वैश्विक स्तर पर धमक की कल्पना भी क्या किसी को थी ? पर आज भारत की नारीशक्ति राजनीति, प्रशासन, न्याय, कानून, खेलकूद, समाजसेवा, शिक्षा, कला, विज्ञान व सेना आदि सभी क्षेत्रों में अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन पूर्ण कुशलता से कर रही है। राजपथ पर गणतंत्र दिवस परेड का नेतृत्व हो या सबसे आधुनिक लड़ाकू विमान राफेल उड़ाना या मोर्चे पर दुश्मनों से मुकाबला करना या खेल जगत के क्षेत्र में देश का नाम रोशन करना या फिर स्वरोजगार के अवसरों का लाभ उठाकर बराबरी के साथ देश की आर्थिक तरक्की को संबल देना, महिला शक्ति पुरुषों के साथ सिर्फ कंधे से कंधा मिलाकर नहीं बल्कि उनसे कहीं आगे निकल राष्ट्र का अभिमान बन रही है। यही नहीं, कोविड-19 महामारी के दौरान कोरोना योद्धा के रूप में जिस तरह बड़ी संख्या में महिला डाक्टरों, नर्सो, आशा वर्करों, आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं व समाजिक कार्यकर्ताओं ने अपनी जान की प्रवाह न करते हुए मरीजों को सेवाएं दी थीं, वह वाकई बेमिसाल है। ज्ञात हो कि भारत बायोटेक की संयुक्त एमडी सुचित्रा एला स्वदेशी कोविड-19 वैक्सीन ‘कोवैक्सिन’ को विकसित करने में शानदार भूमिका के लिए पद्म भूषण से सम्मानित हो चुकी हैं।
महिला उत्थान की बहुआयामी योजनाओं के चलते आज देश में न केवल देश की आधी आबादी का जीवन स्तर ऊँचा उठा है अपितु विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं ने अपनी एक अलग पहचान भी बनायी है। जहाँ एक ओर तीन तलाक के खिलाफ कठोर कानून से मुस्लिम बहनों को अमानवीय अत्याचार से मुक्ति मिली है और आजादी के 70 वर्षों बाद प्रधानमंत्री की पहल पर अकेले हज यात्रा पर जाने का हक मिला है। वहीं दूसरी ओर ‘बेटी बचाओ-बेटी पढ़ाओ’ और ‘सुकन्या समृद्धि योजना’ से समाज में महिलाओं की स्थिति में क्रांतिकारी बदलाव आया है। हर्ष का विषय है कि आज हमारा भारत महिला विकास से आगे महिला नीत विकास की ओर तेजी से बढ़ रहा है। प्रधानमंत्री मातृ वंदन योजना एक करोड़ से अधिक लाभार्थियों तक पहुंच गयी है। आज देश भर में 70 लाख स्वयं सहायता समूह हैं। इन स्वयं सहायता समूहों (एसएचजी) के माध्यम से लाखों महिलाएं न केवल खुद सशक्त बन रही हैं बल्कि देश की अर्थव्यवस्था को भी मजबूत बना रही हैं। महिला स्टार्ट-अप की बदौलत आज देश में लाखों महिलाएं पूरी ऊर्जा के साथ उद्यमिता के क्षेत्र में पांव जमाए हुए हैं। मुद्रा योजना की लगभग 70 प्रतिशत लाभार्थी महिलाएं हैं। इसी तरह, महिलाओं में स्वयं सहायता समूहों के जरिए उद्यमिता को बढ़ाने के लिए दीनदयाल अंत्योदय योजना चलायी जा रही है। आज महिला सशक्तीकरण का चेहरा वो नौ करोड़ गरीब महिलाएं भी हैं जिन्हें रसोई गैस कनेक्शन से धुएं वाली रसोई से आजादी मिली है। महिला सशक्तीकरण का चेहरा वो करोड़ों माताएं-बहनें भी हैं जिन्हें स्वच्छ भारत मिशन के तहत उनके घर में शौचालय तथा प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत पक्के मकान ही नहीं बल्कि उनका मालिकाना हक भी मिला है। करोड़ों महिलाओं को अपना जनधन बैंक खाता मिला है। देश की मातृशक्ति की इस ऊँची उड़ान को देखते हुए यह कहना जरा भी बेमानी प्रतीत नहीं होता कि अखिल विश्व गायत्री परिवार के संस्थापक और गायत्री महाविद्या के सिद्ध साधक पंडित श्रीराम शर्मा आचार्य ने अब से 50 साल पहले ‘इक्कीसवीं सदी-नारी सदी’ की जो भविष्यवाणी की थी; वह आज सशक्त रूप में आकर लेती स्पष्ट दिख रही है।
सुसंस्कारों के बीजारोपण से ही रुकेंगे यौन अपराध
एक ओर जहां आज हमारे देश की स्त्री सशक्तिकरण की विभिन्न योजनाओं के बलबूते महिलाएं जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में कंधे से कंधा मिलकर विकास की नयी नयी इबारत लिख रही हैं; मगर इस सुखद तस्वीर का दूसरा स्याह पहलू यह है कि अपराधी व कुंठित मानसिकता लोग आज भी नारी को भोग की वस्तु समझते हैं क्यूंकि इंटरनेट पर दिखायी जाने बहुसंख्य वेबसीरीज में अश्लीलता व नग्नता खुलेआम परोसी जा रही है। शायद ही कोई दिन जाता हो, जब महिलाओं के साथ होने वाले यौन अपराध समाचार की सुर्खियों न बनते हों। फैशन, पैसा और शोहरत के नाम देह प्रदर्शन से लेकर फूहड़ वेश विन्यास से लेकर स्वकेंद्रित युवाओं में लिव-इन (सहजीवन) की आत्मघाती अंधी सुरंग के प्रति गहराता आकर्षण परिवारों में संस्कारों के अभाव का ही कुफल है। ऐसे अपराधों पर अंकुश लगाने के लिए स्त्री की गरिमा को कलंकित करने वाले विज्ञापनों, टीवी सीरियलों व फिल्मों पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाने के साथ भावी पीढ़ी में बालपन से ही सुसंस्कारों का बीजारोपण बेहद जरूरी है। साथ ही यह भी समझना होगा कि दहेज व तलाक जैसी परम्पराएं नारी सम्मान पर बदनुमा कलंक हैं। भारत को आज सर्वाधिक आवश्कता इसी सांस्कृतिक क्रांति की है। आज समय की मांग है कि भारत की मातृशक्ति अपनी गौरव गरिमा को गहराई से समझे और भारतीय इतिहास के महान नारी पात्रों के चरित्र व आचरण से प्रेरणा लेकर समाज में मृतप्राय हो चुके सुसंस्कारों को पुनर्जीवित करने का संकल्प ले।
मातृशक्ति की गौरव गरिमा का स्वर्णयुग
नारी सशक्तिकरण की बात आते ही आमतौर पर लोगों को यह लगता है कि विगत कुछ वर्षों में ही देश में स्त्रियों के हक में आवाजें उठनी शुरू हुईं हैं; परन्तु यह मान्यता पूरी तौर पर निराधार है। वैदिककाल प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता का वह कालखंड है जो सभ्यता, समृद्धि, ज्ञान-विज्ञान और उत्कृष्ट संस्कृति के परिपेक्ष्य में ही नहीं, वरन नारी की सामाजिक स्थिति, भूमिका और अधिकार की दृष्टि से भी भारत का ही नहीं; सम्पूर्ण विश्व का स्वर्णिम युग कहा जा सकता है। मनुस्मृति (३/५६) का सुप्रसिद्ध सूक्त ‘’यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता’’ इस बात का प्रमाण है कि पुरातन भारत में महिलाओं की स्थिति कितनी सम्मानजनक व गौरवपूर्ण थी। हिन्दू जीवन पद्धति की इस आदर्श आचार संहिता में स्पष्ट लिखा है कि जिस परिवार में स्त्रियां अपने पति व परिजनों के अत्याचार से पीड़ित रहती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट हो जाता है (मनुस्मृति ३/५७)। ‘मनुस्मृति’ में भारतीय संस्कृति में स्त्री की उच्च स्थिति के सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं। प्रायः लोग समझते हैं कि पुत्र व पुत्री की समानता इस अत्याधुनिक इक्कीसवीं सदी का नारा है, परन्तु सच यह है कि मनु महराज ने ‘‘पुत्रेण दुहिता समा’’ (मनुस्मृति ९/१३०) कहकर पुत्र-पुत्री की समानता वैदिक काल में ही घोषित कर दी थी। उन्होंने पिता व पति दोनों के कुलों का हित करने वाली कन्या को ‘दुहिता’ (दू+हिता) का संबोधन देकर सदियों पूर्व स्त्री शक्ति का जो गौरवगान किया था; खेद का विषय है कि हिन्दू द्वेषी वामपंथी विचारकों ने उस ‘दुहिता’ शब्द का अर्थ दोहन से जोड़ दिया। वाकई तरस आता है इनकी इस क्षुद्र बुद्धि पर। वैदिक साहित्य के विविध उद्धरण इस बात को प्रमाणित करते हैं कि प्राचीन भारत की महान नारियों ने अपनी दूरदर्शी बुद्धिमत्ता, अदभुत साहस, मानवीय संवेदना तथा दया, करुणा व वात्सल्य जैसे के गुणों के आधार पर अनेक कीर्तिमान स्थापित किये थे। मनुस्मृति (८/३२३, ९/२३२, ८/३४२) में नारियों के प्रति किये जाने वाले हत्या, अपहरण, बलात्कार आदि अपराधों के लिए मृत्युदंड एवं देश निकाला जैसी कठोर सजाओं का प्रावधान मिलता है। किन्तु मनु महराज नारी की असुरक्षित व अमर्यादित स्वतन्त्रता के पक्षधर नहीं थे; इसीलिए उन्होंने स्त्रियों को पिता, पति, पुत्र व भाई आदि की सुरक्षा में रहने को कहा था (मनुस्मृति ५/१४९, ९/५-६)। इसके पीछे उनका मूल मकसद नारी की सामाजिक सुरक्षा सुनिश्चित करना था न कि उनके स्वतंत्रता के अधिकारों का हनन। इसी तरह यदि तदयुगीन समाज में महिलाओं के पारिवारिक व सामाजिक अधिकारों की बात करें तो उस युग में स्त्री की सत्ता इतनी ऊँची थी कि संतानें अपनी माँ के नाम से जानी जाती थीं; जैसे कौशल्यानंदन, सुमित्रानंदन, देवकीनंदन, गांधारीनंदन, कौन्तेय व गंगापुत्र आदि। इसी तरह पत्नी का नाम पति से पहले रखा जाता था- लक्ष्मीनारायण, गौरीशंकर, सीताराम इत्यादि। क्या किसी अन्य धर्म संस्कृति नारी को मान देने के ऐसे उदाहरण मिलते हैं? वस्तुतः समूचा वैदिक साहित्य स्त्री शक्ति के महिमागान से भरा पड़ा है। वैदिक ऋषि कहते हैं कि कन्याएं ब्रह्मचर्य के पालन से पूर्ण विदुषी होकर ही विवाह करें (अथर्ववेद ११।५।१८।।)। हारीत संहिता कहती है कि वैदिककाल में स्त्री शिक्षा के दो रूप थे –१. सद्योवधू ( विवाह होने से पूर्व ज्ञान प्राप्त करने वाली) तथा २. ब्रह्मवादिनी (जीवनपर्यंत ब्रह्मचर्य का पालन कर ज्ञानार्जन करने वाली)। सद्योवधू वर्ग की कन्याएं उन समग्र विद्याओं का शिक्षण प्राप्त करती थीं जो उन्हें सद्गृहिणी बनाने में सहायक होती थीं। उन्हें गीत-संगीत, नृत्य, चित्रकला, शिल्प व शस्त्रविद्या आदि कुल चौसठ कलाओं की शिक्षा दी जाती थी। जबकि ऋग्वेद में उल्लखित गार्गी, मैत्रेयी, घोषा, गोधा, विश्ववारा, अपाला, अदिति, इन्द्राणी, लोपामुद्रा, सार्पराज्ञी, वाक्, श्रद्धा, मेधा, सूर्या व सावित्री जैसी उपनिषदकालीन ब्रह्मवादिनी ऋषिकाओं के प्रखर ब्रह्मज्ञान से वैदिक युग का समूचा ऋषि समाज गौरवान्वित था।
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