भारत में सर्वाधिक महत्व जिस देव का है, वो देवाधिदेव भगवान शिव ही हैं, जो आज भी समूचे भारतवर्ष में उतने ही पूजनीय और वंदनीय हैं, जितने सदियों पहले। देशभर में जितने मंदिर या तीर्थ स्थान भगवान शिव के हैं, उतने अन्य किसी देवी-देवता के नहीं। आज भी समूचे भारतवर्ष में भगवान शिव की पूजा-उपासना व्यापक स्तर पर होती है। यही कारण है कि ‘महाशिवरात्रि’ पर्व को भारत में राष्ट्रीय पर्व का दर्जा प्राप्त है। ‘महाशिवरात्रि’ पर्व फाल्गुन मास की कृष्ण चतुर्दशी को मनाया जाता है। पंचांग के अनुसार फाल्गुन माह के कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी तिथि की शुरुआत 8 मार्च को संध्याकाल 9 बजकर 57 मिनट पर होगी, जिसका समापन 9 मार्च को शाम 6 बजकर 17 मिनट पर होगा। भगवान शिव की पूजा प्रदोष काल में की जाती है, इसलिए महाशिवरात्रि 8 मार्च को मनाई जा रही है। ज्योतिषाचार्यों के अनुसार 8 मार्च को महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव जी की पूजा का समय शाम 6 बजकर 25 मिनट से 9 बजकर 28 मिनट तक है। इसके अलावा महाशिवरात्रि के चार प्रहर मुहूर्त हैं। रात्रि प्रथम प्रहर पूजा का समय शाम 6 बजकर 25 मिनट से रात 9 बजकर 28 मिनट तक है, रात्रि द्वितीय प्रहर पूजा का समय रात 9 बजकर 28 मिनट से 9 मार्च की सुबह 12 बजकर 31 मिनट तक, रात्रि तृतीय प्रहर पूजा का समय 12 बजकर 31 मिनट से प्रातः 3 बजकर 34 मिनट तक और रात्रि चतुर्थ प्रहर पूजा का समय 9 मार्च प्रातः 03.34 से 06.37 बजे तक है जबकि व्रत पारण समय 9 मार्च की सुबह 6 बजकर 37 मिनट से दोपहर 3 बजकर 28 मिनट तक है।
महाशिवरात्रि व्रत सृष्टि के समस्त प्राणियों के लिए अत्यंत कल्याणकारी माना गया है, जो किसी भी धर्म-सम्प्रदाय का कोई भी व्यक्ति कर सकता है। कहा जाता है कि महाशिवरात्रि के दिन भगवान शिव पृथ्वी पर मौजूद सभी शिवलिंग में विराजमान होते हैं, इसलिए महाशिवरात्रि के दिन की गई शिव उपासना से कई गुना अधिक फल प्राप्त होता है।
भगवान शिव को ‘कालों का काल’ और ‘देवों का देव’ अर्थात् ‘महादेव’ कहा गया है। देव-दानव, मानव-प्रेत, भगवान शिव इन सभी के आराध्य देव रहे हैं। ‘भोले बाबा’ अपने भक्तों पर बहुत जल्दी प्रसन्न होते हैं और दूध या जल की धारा, बेलपत्र व भांग की पत्तियों की भेंट से ही अपने भक्तों पर प्रसन्न हो जाते हैं तथा उनकी मनोकामना पूर्ण करते हैं। भगवान शिव को भारत की भावनात्मक एवं राष्ट्रीय एकता तथा अखण्डता का प्रतीक माना गया है जबकि महाशिवरात्रि पर्व को राष्ट्रीय सद्भावना का जीवंत प्रतीक माना गया है। भारत में शायद ही ऐसा कोई गांव मिले, जहां भगवान शिव का कोई मंदिर अथवा शिवलिंग स्थापित न हो। यदि कहीं शिव मंदिर न भी हो तो वहां किसी वृक्ष के नीचे अथवा किसी चबूतरे पर शिवलिंग तो अवश्य स्थापित मिल जाएगा। एक होते हुए भी शिव के नटराज, पशुपति, हरिहर, त्रिमूर्ति, मृत्युंजय, अर्द्धनारीश्वर, महाकाल, भोलेनाथ, विश्वनाथ, ओंकार, शिवलिंग, बटुक, क्षेत्रपाल, शरभ इत्यादि अनेक रूप हैं।
धार्मिक ग्रंथों में ‘शिव’ और ‘रात्रि’ का शाब्दिक अर्थ स्पष्ट करते हुए कहा गया है, ‘‘जिसमें सारा जगत शयन करता है, जो विकार रहित है, वह शिव है अथवा जो अमंगल का ह्रास करते हैं, वे ही सुखमय, मंगलमय शिव हैं। जो सारे जगत को अपने अंदर लीन कर लेते हैं, वे ही करूणासागर भगवान शिव हैं। जो भगवान नित्य, सत्य, जगत आधार, विकार रहित, साक्षीस्वरूप हैं, वे ही शिव हैं। महासमुद्र रूपी शिव ही एक अखंड परम तत्व हैं, इन्हीं की अनेक विभूतियां अनेक नामों से पूजी जाती हैं, यही सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान हैं, यही व्यक्त-अव्यक्त रूप से ‘सगुण ईश्वर’ और ‘निर्गुण ब्रह्म’ कहे जाते हैं तथा यही परमात्मा, जगत आत्मा, शम्भव, मयोभव, शंकर, मयस्कर, शिव, रूद्र आदि कई नामों से संबोधित किए जाते हैं।’’
भगवान शिव के बारे में धार्मिक ग्रंथों में यही उल्लेख मिलता है कि तीनों लोकों की अपार सौंदर्यशालिनी देवी गौरी को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों और भूत-पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका शरीर भस्म से लिपटा रहता है, गले में सर्पों का हार शोभायमान रहता है, कंठ में विष है, जटाओं में जगत तारिणी गंगा मैया हैं और माथे में प्रलयंकर ज्वाला है। नंदी को भगवान शिव का वाहन माना गया है और ऐसी मान्यता है कि स्वयं अमंगल रूप होने पर भी भगवान शिव अपने भक्तों को मंगल, श्री और सुख-समृद्धि प्रदान करते हैं। कहा जाता है कि भगवान विष्णु ने भगवान शिव की अनुकम्पा प्राप्त करने के लिए उन्हें अपनी एक आंख समर्पित कर दी थी। इस बारे में कहा गया है कि भगवान विष्णु जब शिव को प्रसन्न करने के लिए 1008 कमल के फूलों से उनका अभिषेक कर रहे थे, तब आखिर में एक कमल कम रह गया। इस पर भगवान विष्णु ने तुरंत कटार से अपनी एक आंख निकाली और कम रहे कमल के स्थान पर भगवान शिव को अर्पित कर दी। इससे शिव विष्णु पर इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने भगवान विष्णु को अपना दिव्य मंत्र प्रदान कर दिया :-
ॐ त्रयम्बकं यजामहे।
सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम।।
उर्वारूकमिव बन्धनात।
मृत्योर्मुक्षीय मामृतात।।
शिव के मस्तक पर अर्द्धचंद्र शोभायमान है। इसके संबंध में कहा जाता है कि समुद्र मंथन के समय समुद्र से विष और अमृत के कलश उत्पन्न हुए थे। इस विष का प्रभाव इतना तीव्र था कि इससे समस्त सृष्टि का विनाश हो सकता था, ऐसे में भगवान शिव ने इस विष का पान कर सृष्टि को नया जीवनदान दिया जबकि अमृत का पान चन्द्रमा ने कर लिया। विषपान करने के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया, जिससे वे ‘नीलकंठ’ के नाम से जाने गए। विष के भीषण ताप के निवारण के लिए भगवान शिव ने चन्द्रमा की एक कला को अपने मस्तक पर धारण कर लिया। यही भगवान शिव का तीसरा नेत्र है और इसी कारण भगवान शिव ‘चन्द्रशेखर’ भी कहलाए।
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