मंदिर भारत की सांस्कृतिक विरासत हैं, जो न सिर्फ देश-विदेश के तीर्थ यात्रियों को आकर्षित करते हैं, बल्कि अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ बनाने में भी महत्वपूर्ण योगदान देते हैं। देशभर में 4 लाख मंदिर-मठ हैं, जिन पर 15 से अधिक राज्य सरकारों का नियंत्रण है। लेकिन दूसरे मत-मजहब-पंथ के उपासना स्थलों पर कोई नियंत्रण नहीं है। इस सेकुलर भेदभाव के विरुद्ध अब देशभर में आवाजें मुखर हो रही हैं।
तमिलनाडु में सबसे अधिक मंदिर हैं। राज्य सरकार के दिसंबर 2022 के एक आंकडेÞ के अनुसार, राज्य के 46,000 से अधिक मंदिरों पर हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती (एचआर एंड सीई) विभाग का नियंत्रण है। सरकार एक-एक कर हिंदू मंदिरों पर कब्जा कर रही है। मंदिरों की आय को गैर-हिंदुओं के लिए कल्याणकारी योजनाओं, छात्रवृत्तियों, मदरसों, हज हाउस, इफ्तार पार्टी, नेताओं के जन्मदिन आदि पर खर्च किया जाता है। मंदिर-मठों की हजारों एकड़ जमीन अवैध कब्जे में है, शेष जमीन पर सरकारी इमारतें, स्कूल-कॉलेज आदि बनाए जा रहे हैं।
मंदिर के पुजारियों (कुछ पुजारियों को छोड़कर) और सेवादारों को कुछ भी नहीं मिलता, लेकिन मंदिरों के वित्तीय प्रबंधन की निगरानी के लिए तैनात अधिकारियों को वेतन मिलता है। एक ओर द्रमुक सरकार हिंदू मंदिरों की धन-संपदा पर नजर गड़ाए हुए है, दूसरी ओर सनातन धर्म के उन्मूलन की बात भी करती है। राज्य के मुख्यमंत्री का बेटा कहता है कि सनातन धर्म को पूरी तरह खत्म कर देना चाहिए और पिता उसकी पीठ थपथपाते हैं। इसी राज्य में अयोध्या में श्रीराम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के प्रसारण पर प्रतिबंध लगाया जाता है और सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ता है।
राज्य के 252 मंदिरों में प्राण-प्रतिष्ठा समारोह के प्रसारण पर रोक के बाद राज्यपाल आर.एन. रवि ने चेन्नै के पश्चिम माम्बलम में श्री कोदंडरामस्वामी मंदिर का दौरा किया, जो एचआर एंड सीई विभाग के अंतर्गत है। इसके बाद उन्होंने कहा था, ‘‘पुजारियों और मंदिर के कर्मचारियों के चेहरों पर भय और आशंकाओं का भाव स्पष्ट झलक रहा था, देश के बाकी हिस्सों में उत्सव के माहौल के बिल्कुल विपरीत।’’
मंदिरों पर कब्जा अनुचित
सत्ता में आने के बाद द्रमुक सरकार ने मंदिरों पर कब्जे की रफ्तार बढ़ाई है। एचआर एंड सीई विभाग ने जुलाई 2020 में मद्रास उच्च न्यायालय में हलफनामा दाखिल कर कहा था कि उसके नियंत्रण में 44,121 मंदिर हैं, लेकिन इनमें 37,000 से अधिक मंदिरों से इतना भी राजस्व नहीं मिलता कि उनमें एक से अधिक पुजारियों को नियुक्त किया जा सके। यानी इन मंदिरों में जो व्यक्ति पूजा करता है, वही साफ-सफाई और मंदिर के प्रबंधन सहित सारे काम करता है। 11,999 मंदिरों की हालत तो इतनी जर्जर है कि वे एक समय की पूजा का खर्च भी नहीं उठा सकते हैं। आर्थिक रूप से सक्षम केवल 7,000 मंदिर हैं, जो अपने राजस्व स्रोतों से अपनी जरूरतों की पूर्ति कर सकते हैं। लेकिन इनमें से 1,000 मंदिरों ने ही सरप्लस राशि संबंधित मंदिर के देवता के नाम से बैंकों में जमा की है। प्रश्न है कि जब मंदिरों की स्थिति इतनी ही दयनीय है, तो राज्य सरकार एक-एक कर क्यों सारे हिंदू मंदिरों पर नियंत्रण कर रही है?
क्यों साल-दर-साल मंदिरों पर सरकारी कब्जे का आंकड़ा बढ़ रहा है? राज्य सरकार मंदिरों को अपने नियंत्रण से मुक्त क्यों नहीं कर रही है? हिंदू मंदिरों पर सरकारी कब्जे को सर्वोच्च न्यायालय ने कई बार अनुचित करार देते हुए स्पष्ट कहा है कि ‘मंदिरों का संचालन और व्यवस्था भक्तों का काम है, सरकार का नहीं।’
तीन वर्ष पहले जब सद्गुरु जग्गी वासुदेव ने तमिलनाडु के मंदिरों को मुक्त कराने के लिए ‘मिस्ड कॉल’ अभियान शुरू किया तो राज्य सरकार ने उन्हें खुलेआम धमकाया कि आज नहीं तो कल उन्हें अंजाम भुगतना पड़ेगा। सद्गुरु का मानना है कि यदि हमारी प्राचीन धार्मिक धरोहरों को बचाना है, तो हमें उन्हें सरकार के कब्जे से मुक्त कराना ही होगा। 2014 में सर्वोच्च न्यायालय ने चिदंबरम के नटराज मंदिर को सरकारी कब्जे से मुक्त करने का आदेश भी दिया था। इसके अतिरिक्त, पुरी के जगन्नाथ मंदिर मामले में तो मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति एस.ए. बोबडे ने तमिलनाडु का उदाहरण देते हुए तल्ख टिप्पणी की थी।
उन्होंने कहा था कि सरकारी नियंत्रण में होने के बावजूद अनमोल देव मूर्तियों की चोरी की अनेक घटनाएं होती रही हैं। यह सब भक्तों के पास मंदिरों के संचालन का अधिकार न होने के कारण है। राज्य ने उनसे यह अधिकार छीन लिया है। उसके अधिकारी वैसे ही काम करते हैं, जैसे सामान्य सरकारी विभाग। वे धार्मिक गतिविधियों और रीति-रिवाजों में भी हस्तक्षेप करते हैं। लेकिन राज्य सरकार की मोटी खाल पर कोई असर नहीं पड़ा।
कुर्नूल स्थित अहोबिल मंदिर को नियंत्रण में लेने के लिए राज्य सरकार ने वहां कार्यकारी अधिकारी नियुक्त कर दिया था। आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार के इस फैसले को संविधान के अनुच्छेद-26 (डी) का उल्लंघन करार देते हुए कहा था कि राज्य सरकार के पास अहोबिल मठ के मंदिर में कार्यकारी अधिकारी नियुक्त करने का अधिकार नहीं है। इस निर्णय के खिलाफ राज्य सरकार सर्वोच्च न्यायालय में गई। लेकिन न्यायालय ने उसकी याचिका खारिज कर दी। साथ ही, शीर्ष अदालत ने पूछा कि मंदिर को धार्मिक लोगों के लिए क्यों नहीं छोड़ा जाना चाहिए?
मंदिरों पर सरकारी नियंत्रण के खिलाफ अभी भी सर्वोच्च न्यायालय में कई याचिकाएं विचाराधीन हैं। इनमें भाजपा के पूर्व सांसद सुब्रमण्यम स्वामी की भी एक याचिका है, जिसमें उन्होंने तमिलनाडु के 38,000 मंदिरों को सरकार के कब्जे से मुक्त कराने की मांग की है। द्रमुक सरकार द्वारा मंदिरों में नास्तिकों को पुजारी नियुक्त करने के खिलाफ उनकी एक याचिका पर सुनवाई भी हो चुकी है। राज्य मे ं8,000 से अधिक आगम मंदिर हैं, जिनके रीति-रिवाज, पूजा-पद्धति और परंपराएं अन्य मंदिरों से भिन्न हैं। इनमें परंपरा को मानने वाले को ही पुजारी नियुक्त किया जाता है। लेकिन द्रमुक सरकार बाहरी लोगों को इन मंदिरों का पुजारी नियुक्त करना चाहती है।
इसके लिए सरकार ने 2020 में तमिलनाडु हिंदू धार्मिक संस्थान कर्मचारी (सेवा की शर्तें) नियम, 2020 बनाया और इसी के तहत सरकार मंदिरों में प्रशिक्षित अर्चकों (पुजारियों) की नियुक्ति करने लगी। अखिल भारतीय आदि शैव शिवाचार्यर्गल सेवा एसोसिएशन ने उच्च न्यायालय में इसे चुनौती दी। इस पर अगस्त 2022 में न्यायालय ने साफ-साफ कहा कि आगम मंदिरों की अपनी परंपराएं हैं, इसलिए सरकार उसमें दखल न दे। न्यायालय ने उक्त नियम के भाग 7 और 9 की व्याख्या करते हुए आगम मंदिरों को छूट दी थी। लेकिन राज्य सरकार की मनमानी जारी रही तो याची ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की। इस पर सितंबर 2023 में सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के आदेश को कायम रखते हुए यथास्थिति बनाए रखने का आदेश दिया। साथ ही कहा कि सरकार किसी भी परंपरा में हस्तक्षेप का प्रयास न करे।
क्या है ताजा स्थिति?
मंदिरों की लड़ाई लड़ने वाले और टेंपल वर्शिपर्स सोसायटी के अध्यक्ष टी.आर. रमेश ने 28 फरवरी, 2024 को ‘एक्स’ पर ट्वीट कर बिंदुवार 6 जानकारियां दी हैं। उन्होंने लिखा है-
- मंदिर के धन और संपत्तियों पर ‘पंथनिरपेक्ष’ कॉलेज शुरू करने को चुनौती देने वाली उनकी याचिका मद्रास उच्च न्यायालय में अंतिम बहस के लिए आई। इससे पहले उच्च न्यायालय ने 15 नवंबर, 2021 को उनकी इस जनहित याचिका को स्वीकार करते हुए 6 कॉलेजों को शुरू करने पर रोक लगा दी थी और 4 कॉलेजों को अंतिम आदेशों के अधीन चलाने की अनुमति दी थी।
- अंतिम बहस के दौरान माननीय पीठ ने जानना चाहा कि क्या मुझे कोई आपत्ति है, यदि सरकार द्वारा सरकारी धन से मंदिरों की भूमि पर कॉलेज बनाए जाते हैं और वे ऐसी भूमि का उपयोग करने के लिए संबंधित मंदिरों को किराया भी दें?
- पीठ ने कहा कि जहां सरकार शिक्षा के उद्देश्य को पूरा करेगी, वहीं मंदिर की भूमि को अतिक्रमण से बचाया जाएगा और मंदिरों को किराये से अच्छी आय होगी। भूमि सुरक्षित भी रहेगी।
- माननीय पीठ के समक्ष मैंने कहा कि यदि ऐसा है (यदि सरकार मंदिर की भूमि के पट्टे और उचित किराया निर्धारण से संबंधित एचआर एंड सीई अधिनियम के प्रावधानों का पालन करेगी) तो मुझे सरकार द्वारा मंदिर की भूमि पर कॉलेज शुरू करने पर कोई आपत्ति नहीं होगी।
- माननीय खंडपीठ ने सरकार को इस पर अपना पक्ष रखने के लिए दो सप्ताह का समय दिया है।
- मुझे भरोसा और आशा है कि तमिलनाडु के माननीय मुख्यमंत्री एमके स्टालिन उचित निर्णय लेंगे, जो सरकार और मंदिरों, दोनों के लिए फायदेमंद होगा।
टी.आर. रमेश ने एक और याचिका का उल्लेख किया है, जिसमें उन्होंने सरकारी आदेश संख्या 138 को चुनौती दी है। यह याचिका भी विशेष पीठ के समक्ष आई। इसमें उन्होंने मंदिर की भूमि पर कानून के तहत उचित प्रक्रिया का पालन और मंदिरों के लिए किराया तय किए बिना सरकार द्वारा विभाग के लिए 100 कार्यालयों का निर्माण कराने को चुनौती दी है। न्यायालय ने सरकार को 2 सप्ताह के भीतर जवाब दाखिल करने के लिए कहा है। साथ ही, सरकार को इस उद्देश्य के लिए किसी भी मंदिर की भूमि का उपयोग आगे नहीं बढ़ाने के लिए कहा है।
बिना कारण मंदिरों पर कब्जा
एचआर एंड सीई विभाग अपने अधीन मंदिरों के प्रबंधन से लेकर पुजारियों, सेवादारों और न्यासियों की नियुक्ति तक में हस्तक्षेप करता है। लगभग 75 वर्ष में ऐसा एक भी उदाहरण नहीं मिलता, जिससे पता चले कि मंदिरों का प्रबंधन विभाग के पास गया और उसने एक मंदिर का भी वित्तीय कुप्रबंधन दुरुस्त कर उसे वापस न्यासियों को सौंप दिया। इंडिक कलेक्टिव ट्रस्ट नामक एक एनजीओ ने सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की है। इसमें कहा गया है कि राज्य के अधीन 36,627 मंदिर हैं, जिनमें 17 जैन संप्रदाय और 57 मठों से संबंधित हैं। इनकी वार्षिक आय 10,000 रुपये से भी कम है। फिर भी इन मंदिरों पर नियंत्रण राज्य सरकार के पूर्वाग्रह को दर्शाता है।
सुब्रमण्यम स्वामी बनाम तमिलनाडु सरकार एवं अन्य मुकदमे का हवाला देते हुए याचिका कहा गया है कि मंदिरों का वित्तीय कुप्रबंधन दूर करने के बाद विभाग को मंदिर का प्रबंधन संबंधित व्यक्ति को सौंप देना चाहिए। ऐसा नहीं करना संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। याचिका में सरकार द्वारा मंदिर में न्यासियों की नियुक्ति पर रोक लगाने सहित और भी गंभीर आरोप लगाते हुए कहा गया है कि अधिकारियों को नियुक्त कर बिना कारण सरकार मंदिरों का प्रबंधन अपने नियंत्रण में ले रही है। यह भी कहा गया है कि
- नियुक्ति नियमावली-2015 के अनुसार, राज्य सरकार अधिकतम 5 वर्ष के लिए मंदिरों में कार्यकारी अधिकारियों की नियुक्ति करेगी, लेकिन उनकी नियुक्ति बिना शर्त अनिश्चित काल के लिए की जाती है।
- बड़े पैमाने पर मंदिरों के पैसों का दुरुपयोग किया जा रहा है।
- बहुत कम आय वाले मंदिर, जहां वित्तीय कुप्रबंधन की संभावना बहुत कम है, वहां भी कार्यकारी अधिकारियों की नियुक्ति की गई है।
- कार्यकारी अधिकारी पूर्वाग्रह से ग्रस्त हैं और मंदिरों का पैसा दूसरे कामों में इस्तेमाल कर रहे हैं।
इस याचिका पर दिसंबर 2022 में सर्वोच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को नोटिस जारी किया था। इसी तरह, 2 जून, 2023 को उच्च न्यायालय ने मंदिरों के संरक्षण, रखरखाव, उनकी अचल संपत्तियों व जमीनों के संरक्षण पर कहा था कि मंदिर सांस्कृतिक और ऐतिहासिक धरोहर हैं। उन्हें संविधान के अनुच्छेद-25 और 26 के अंतर्गत संरक्षण प्राप्त है। सरकार की खुशी के लिए मंदिर के हितों की अनदेखी नहीं की जा सकती। साथ ही, अदालत ने मंदिर के कर्मचारियों के लिए न्यूनतम वेतन अधिनियम लागू करने का आदेश देते हुए अपने पूर्व के निर्णय को कायम रखा। 7 जून, 2021 में मंदिरों की देखरेख, मरम्मत और संरक्षण के लिए अदालत ने 17 सदस्यीय हैरिटेज आयोग गठित करने, मंदिरों की संपत्ति का स्वतंत्र आडिट कराने सहित 75 निर्देश दिए थे।
आस्था से खिलवाड़ की इजाजत नहीं
मंदिर हमेशा से नास्तिकों, वामपंथियों व कथित बुद्धिजीवियों के निशाने पर रहे हैं। मंदिरों पवित्रता और सदियों पुरानी परंपरा को भी खंडित करने के प्रयास किए गए। ऐसे ही एक मामले की सुनवाई करते हुए मद्रास उच्च न्यायालय ने 30 जनवरी, 2024 को अपने निर्णय में कहा, ‘‘मंदिरो में गैर-हिंदुओं के प्रवेश को रोकना गलत नहीं कहा जा सकता है। मंििदर कोई पिकनिक स्पॉट नहीं है कि कोई भी घूमने चला आए। अपने धर्म को मानना और उसका पालन करना हिंदुओं का मौलिक अधिकार है।’’ साथ ही, तमिलनाडु सरकार को मंदिरों में जगह-जगह बोर्ड लगाने को कहा, जिस पर लिखा हो कि ‘ध्वज-स्तंभ से आगे गैर-हिंदुओं को प्रवेश की अनुमति नहीं है।’ अदालत ने मंदिर अधिकारियों को भी नियमों का सख्ती से पालन करने का आदेश दिया है। अदालत ने यह निर्णय पलानी हिल टेंपल डिवोटीज आर्गनाइजेशन के संयोजक डी. सेंथिल कुमार की याचिका पर दिया है। याचिका में अरुलमिगु पलानी धनदायुथापानी स्वामी मंदिर सहित अन्य मंदिरों में गैर-हिंदुओं के प्रवेश पर रोक लगाने की मांग की थी। अदालत ने कहा कि ‘‘मंदिरों में प्रवेश करने वाले गैर-हिंदुओं से लिखित में लिया जाए कि भगवान में उनकी आस्था है। वे हिंदू धर्म के रीति-रिवाजों, प्रथाओं के साथ मंदिर के रीति-रिवाजों का भी पालन करेंगे।’’ हाल ही में एक गैर-हिंदू समूह ने तंजावुर के अरुलमिघु बृहदीश्वर मंदिर परिसर को पिकनिक स्थल मानते हुए वहां मांसाहारी भोजन किया था। मदुरै के मीनाक्षी सुंदरेश्वर मंदिर के गर्भ गृह में कुछ मुसलमान कुरान ले गए और वहां नमाज पढ़ने का प्रयास किया। जनवरी 2019 में दो महिलाओं ने केरल के सबरीमला मंदिर की सदियों से चली आ रही परंपरा को तोड़ कर वहां पूजा की थी।
यह कैसा प्रबंधन?
सरकार मंदिरों का कैसा प्रबंधन कर रही है, इसका अनुमान इसी बात से लग जाता है कि 1992 से 2017 के बीच मंदिरों से 1,200 प्राचीन मूर्तियां चोरी हो गईं। महत्वपूर्ण बात यह है कि मंदिरों से मूर्तियों, गहनों की चोरी की 41 केस डायरियां भी ‘रहस्यमय’ ढंग से गायब हो गईं। यह मामला सर्वोच्च न्यायालय तक भी पहुंचा। इसी तरह, ‘नवीनीकरण’ और अतिक्रमण हटाने के बहाने कई प्राचीन मंदिरों को ध्वस्त कर दिया गया। 2016 में तंजावुर में 1000 वर्ष पुराने मंदिर को तोड़ दिया गया। कुछ माह बाद तंजावुर में ही अतिक्रमण हटाने के नाम पर 70 घरों के साथ एक मंदिर को भी ध्वस्त कर दिया गया। कुंभकोणम के पास मनामबाड़ी गांव में नागनाथस्वामी मंदिर था, जो लुप्त हो चुका है। पत्थर से निर्मित यह मंदिर लगभग 1016 ई. में बनाया गया था।
यह राज्य पुरातत्व विभाग के नियंत्रण वाले संरक्षित स्मारकों में से एक था। राज्य में ‘नवीनीकरण और पुनर्निर्माण’ के नाम पर बड़े पैमाने पर प्राचीन मंदिरों में बिना विशेषज्ञों की मौजूदगी के तोड़फोड़ के खिलाफ उच्च न्यायालय में याचिकाएं दाखिल की गईं और न्यायालय ने प्राचीन मंदिरों के ‘नवीकरण और पुनर्निर्माण’ पर प्रतिबंध लगा दिया। यही नहीं, अगस्त 2017 में यूनेस्को ने तमिलनाडु सरकार को रिपोर्ट दी थी, जिसमें कहा गया था कि राज्य में कम से कम 36,000 मंदिर हैं, जिनकी तत्काल पुरातात्विक-विशेषज्ञों और कुशल इंजीनियरों के नेतृत्व में देखरेख करने की जरूरत है। इन दुर्लभ मंदिरों, इनकी कलाकारी एवं वास्तु डिजाइन की उपेक्षा प्राचीन मंदिरों की ‘सामूहिक हत्या’ करने जैसा है, पर सरकार ने रिपोर्ट की अनदेखी की।
टेंपल वर्शिपर्स सोसायटी के अध्यक्ष टी. आर. रमेश के अनुसार, राज्य में 1,000 वर्ष पुराने 400 मंदिर समुचित रखरखाव व संरक्षण के अभाव में नष्ट हो रहे हैं। सरकारी कार्यकारी अधिकारी राज्य के लगभग 400 मंदिरों का संचालन करते हैं। दिलचस्प बात यह है कि ऐसा करने के लिए उन्हें किसी सक्षम अधिकारी से कानूनी रूप से वैध आदेश नहीं दिया गया है, जिससे पता चले कि उनकी नियुक्ति तमिलनाडु एचआर एंड सीई के किसी भी प्रावधान के तहत की गई है। श्री रामनाथस्वामी मंदिर (रामेश्वरम), श्री कपालीश्वर मंदिर (मायलापुर, चेन्नै) या श्री थायुमानस्वामी मंदिर (तिरुचिरापल्ली) के लिए कोई आदेश उपलब्ध नहीं है। ये चंद उदाहरण हैं राज्य सरकार द्वारा 70 वर्ष से अधिक समय से जारी बड़े पैमाने पर धोखाधड़ी के। यह संविधान के अनुच्छेद 31-ए(1)(बी) के प्रावधानों की भी अवहेलना है, जो कहता है कि सिर्फ संपत्ति के प्रबंधन के अधिग्रहण की सीमित अवधि प्रदान करने वाले कानून ही मान्य होंगे।
मंदिर की जमीन पर वक्फ का दावा
तमिलनाडुकी स्थिति यह है कि तिरुचिरापल्ली के हिंदू बहुल गांव तिरुचेंदुरई में स्थित 1500 वर्ष पुराने श्रीचंद्रशेखर स्वामी मंदिर की 369 एकड़ जमीन पर वक्फ बोर्ड अपना दावा कर रहा है। यह मामला तब सामने आया, जब 2022 में गांव का एक किसान राजगोपाल ने अपनी 1.2 एकड़ कृषि भूमि बेचने का प्रयास किया। लेकिन वक्फ बोर्ड ने पूरे गांव पर अपना दावा ठोकते हुए इसमें अड़ंगा लगा दिया। जब किसान अपनी जमीन के बारे में पता लगाने के लिए रजिस्ट्रार कार्यालय गया तो वहां भी यही बताया गया कि जमीन वक्फ बोर्ड की है। जमीन बेचने के लिए उसे चेन्नै में वक्फ बोर्ड कार्यालय से अनापत्ति प्रमाण-पत्र लेना होगा।
राजगोपाल ने रजिस्ट्रार से पूछा कि यह जमीन उसने 1992 में खरीदी थी तो वह वक्फ बोर्ड से अनापत्ति प्रमाण पत्र क्यों ले? लेकिन रजिस्ट्रार ने कहा कि तमिलनाडु वक्फ बोर्ड ने डीड्स विभाग को 250 पन्नों का एक पत्र भेजा है। इसमें उसने कहा है कि तिरुचेंदुरई गांव में अनापत्ति प्रमाण-पत्र मिलने के बाद ही किसी भी जमीन का लेन-देन किया जाए। गांव के लोगों का कहना है कि जमीनें उनके नाम से हैं। प्रश्न यह है कि जब समूचा गांव हिंदू बहुल है, तो वक्फ बोर्ड मालिक कैसे हो सकता है? क्या यह राज्य सरकार या हिंदू धार्मिक और धर्मार्थ बंदोबस्ती विभाग की नाकामी नहीं है?
यह स्थिति तब है, जब इस घटना के कुछ माह पहले ही श्रीरामनादेश्वर मंदिर के एक भक्त की याचिका पर सुनवाई के दौरान उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को फटकार लगाते हुए कहा था कि अधिकारी मंदिर की जमीन की रक्षा करने के लिए बाध्य हैं। कब्जा करने वालों को बेदखल किया जाए। याचिकाकर्ता ने एचआर एंड सीई विभाग के आयुक्त से मंदिर की साढ़े तीन एकड़ जमीन से अवैध कब्जा हटाने के लिए गुहार लगाई थी। लेकिन इसे अनसुना कर दिया गया। तब याची ने उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल की थी।
कहां गई 2 लाख एकड़ जमीन?
1985 में एचआर एंड सीई विभाग ने कहा था कि मंदिरों-मठों के पास कुल 5.25 लाख एकड़ जमीन है। लेकिन 2023 में द्रमुक के सत्ता में आने के बाद विभाग ने कहा कि मंदिरों के पास 3.25 लाख एकड़ जमीन है। इस वर्ष फरवरी में विभाग ने कहा कि मंदिरों की कुल 4.78 लाख एकड़ जमीन में से 1.67 लाख एकड़ जमीन सरकार के कब्जे में है। यदि 2023 वाले आंकड़े को सही मानें तो प्रश्न उठता है कि 38 वर्ष में मंदिरों की 2 लाख एकड़ जमीन कहां गई? यदि बाद वाले आंकड़े को सही मानें तो यह 4.78 लाख एकड़ कैसे हो गया? एक और प्रश्न, यदि सरकार के कब्जे में मंदिरों की 1.67 लाख एकड़ जमीन ही है, तो 3.11 लाख एकड़ जमीन कहां गई? पहले दो लाख एकड़ का अंतर और अब 47,000 एकड़ का अंतर! सरकार के आंकड़े विरोधाभासी हैं। जून 2021 में उच्च न्यायालय भी रिकॉर्ड से ‘गायब’ मंदिर की 47,000 एकड़ भूमि के बारे में पूछ चुका है।
दूसरी बात, जिस राज्य में सरकारी जमीन पर सरकार की नाक के नीचे राजधानी में ही अवैध कब्जा कर उस पर ‘जबरदस्ती’ मस्जिद और मदरसे बना दिए जाते हैं, वहां मंदिरों की जमीन की रखवाली कैसे होगी? उच्च न्यायालय ने 2022 में पालननकुप्पम स्थित श्रीरामनादेश्वर मंदिर की जमीन पर अतिक्रमण को लेकर एचआर एंड सीई विभाग को कड़ी फटकार लगाते हुए मंदिर की साढ़े तीन एकड़ जमीन से हटाने का आदेश दिया था।
साथ ही, कहा था कि विभाग मंदिर की संपत्तियों और उसके सामान की रक्षा करने के लिए बाध्य है। इससे एक वर्ष पहले उच्च न्यायालय ने मंदिर की संपत्तियों के दुरुपयोग को लेकर अदालत में बढ़ती शिकायतों पर विभाग को फटकार लगाते हुए कहा था कि यदि उसने कार्रवाई नहीं की तो अदालत को जमीन पर उतरना पड़ेगा। उच्च न्यायालय ने यह टिप्पणी नुंगमबक्कम में अगथेश्वर मंदिर की जमीन से विभाग द्वारा अवैध कब्जा नहीं हटाने पर दाखिल अवमानना याचिका पर सुनवाई के दौरान की थी। 2021 में भी अदालत ने राज्य सरकार से एक सार्वजनिक अधिसूचना जारी कर मंदिर की जमीन पर अवैध कब्जा करने वालों को तय समय के भीतर स्वेच्छा से जमीन छोड़ने की मांग करने को कहा था।
तमिलनाडु की एक धार्मिक व सामाजिक संस्था हिंदू मुन्नानी, जिसकी स्थापना 1980 में हिंदू धर्म और इससे संबंधित स्मारकों की रक्षा के उद्देश्य से की गई थी, के राज्य महासचिव मुरुगानंदम ने फरवरी 2023 में प्रेस विज्ञप्ति जारी कर एचआर एंड सीई विभाग पर कई आरोप लगाए थे। उन्होंने कहा था, ‘‘एचआर एंड सीई का लक्ष्य मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं से जितना हो सके, उतना पैसा इकट्ठा करना है। विभाग ने मंदिर को व्यवसाय के स्थान में बदल दिया है। हिंदू धर्म की मान्यता यह है कि ईश्वर के समक्ष सभी समान हैं। लेकिन बिचौलियों के माध्यम से विशेष दर्शन, शीघ्र दर्शन और वीआईपी दर्शन जैसी विभिन्न श्रेणियों के तहत शुल्क लिए जाते हैं। हिंदुओं को भगवान की पूजा करने के लिए पैसा खर्च करने को मजबूर किया जाता है।’’
कुंभकोणम के पास उप्पिलियप्पन कोविल, पलानी मंदिर सहित राज्य के कई विख्यात मंदिरों के बारे में यही सच है। इस राजस्व और हुंडी संग्रह का उपयोग गैर-धार्मिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। क्षतिग्रस्त हिंदू मंदिरों के जीर्णोद्धार पर कोई राशि खर्च नहीं की जाती है। मंदिरों से एचआर और सीई को भारी कमाई होती है। लेकिन कोई नहीं जानता कि यह पैसा कहां जाता है और इसे कैसे खर्च किया जा रहा है। उन्होंने यह आरोप भी लगाया था कि एचआर और सीई पार्वतीपुरम, वडालोर में स्थित 70 एकड़ से अधिक जमीन हड़पने के प्रयास में है। यह जमीन महान हिंदू संत रामलिंग स्वामीगल को दान में मिली थी।
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