कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने विधानसभा से उस विधेयक को पारित करा लिया, जिसमें मंदिरों से ‘कर’ वसूलने का प्रावधान है। हालांकि विधान परिषद् में वह विधेयक लटक गया। यानी फिलहाल कर्नाटक सरकार मंदिरों से ‘कर’ वसूल नहीं पाएगी, लेकिन सरकार की मंशा पर तो सवाल उठता ही है। आखिर मंदिरों से ही ‘कर’ लेने की सोच कहां से और क्यों आई!
ऐसा लगता है कि कुछ लोगों ने मंदिर को दुधारू गाय मान लिया है। शायद ऐसे लोगों ने ही ‘टेंपल इकोनॉमी’ शब्द को गढ़ा है। रामलला की प्राण-प्रतिष्ठा के बाद ‘अल जजीरा’ से लेकर ‘द गार्जियन’ तक में ‘टेंपल इकोनॉमी’ को लेकर लिखा जा रहा है। दरअसल, ‘टेंपल इकोनॉमी’ हमारा चिंतन नहीं है। यह उससे कहीं गहरी बात है। मंदिर मन की शांति के लिए होते हैं, और धन की शांति (अर्थात प्रबंधन) के लिए भी। क्योंकि हमारी संस्कृति में लक्ष्मी को चंचला कहा गया है।
हमारे देश में मंदिर लक्ष्मी को विकसाने और हाशिये के वर्गों तक पोषण और पैसा-कौड़ी पहुंचाने वाली महत्वपूर्ण आर्थिक संरचना के तौर पर रहे हैं।
मिनेसोटा विश्वविद्यालय के बर्टन स्टीन ने 1960 में ‘द इकोनॉमिक फंक्शन आफ ए मेडियेवल साऊथ इंडियन टेम्पल’ नाम से शोध किया था। इसमें उन्होंने लिखा है कि तीर्थ के साथ-साथ आर्थिक संरचनाओं का विकास और बहुत से क्षेत्रों को बहुत मजबूत कर देना भी मंदिरों के चलते ही हुआ है।
निश्चित ही मंदिर हमारे लिए आस्था का केंद्र हैं और रहेंगे। मंदिरों के कारण ही लोग तीर्थ जाते हैं, भ्रमण करते हैं। मत भूलिए इससे समाज के बीच धन का सतत प्रवाह होता है। समृद्धि आती है। यह हमारे बुजुर्गों और पुरखों के अनुभवजन्य शोध से उपजा गहन विचार है। चोल राजवंश की समृद्धि का केंद्र कहां था-मंदिर!
तंजावुर में बृहदीश्वर मंदिर और गंगईकोंडा चोलपुरम मंदिर क्या थे? ये सिर्फ धार्मिक केंद्र नहीं थे, बल्कि अर्थव्यवस्था में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। ये मंदिर प्रमुख किन्तु उदार भूस्वामी के रूप में गोचर भूमि तथा औषधीय उपज के सहज प्रदाता तथा संसाधनों के सामाजिक प्रबंधक थे। इन्हें राजाओं और महानुभावों से विशाल भूमि अनुदान में प्राप्त होती थीं। इससे प्राप्त आय का उपयोग मंदिरों के रख-रखाव और विभिन्न धार्मिक तथा सामाजिक गतिविधियों में होता था, जिसमें राजा के निदेर्शों पर किसानों से अनाज खरीदे जाने का काम भी शामिल था।
जड़-चेतन दोनों में प्रवाह बनाने का काम, अर्थव्यवस्था को सुचारू बनाने का काम, यह काम भारत में आदिकाल से मंदिरों को केंद्र में रखकर ही होता रहा।
शिक्षा की बात करें तो काशी, तक्षशिला, नालंदा, विक्रमशिला, भोजशाला, ओदंतपुरी, मिथिला, प्रयाग, अयोध्या आदि जहां भी मंदिर रहे हैं, वे स्थान ज्ञान और अध्ययन का भी केंद्र रहे हैं। इसके साथ ही आप चार महावाक्य और चार मठों की स्थापना को भी देखें। जगन्नाथपुरी, बद्रिकाश्रम, श्रृंगेरी, द्वारका यह चार मठ चार दिशाओं से भारत में दार्शनिक ज्ञान के साथ भौतिक विषयों की समझ बढ़ाने वाली शृृंखला-संरचना निर्माण करते प्रतीत होते हैं।
अर्थ (वित्त) की बात के साथ संसाधनों के उदार बंटवारे के लिए ‘मैं’ और ‘तू’ का भेद मिटाती यह पहल मठ-मंदिरों के प्रांगणों में ही पल्लवित हुई।
चार महावाक्यों में अहं ब्रह्मास्मि अर्थात् ‘मैं ब्रह्म हूं’, यह यजुर्वेद का वाक्य है। तत्त्वमसि अर्थात् ‘वह ब्रह्म तू है’ सामवेद का वाक्य है। अयं आत्मा ब्रह्म अर्थात् ‘यह आत्मा ब्रह्म है’ अथर्ववेद, प्रज्ञानं ब्रह्म अर्थात् ‘वह प्रज्ञान ही ब्रह्म है’ ऋग्वेद के महावाक्य हैं। हर पदार्थ से जुड़ाव, जड़-चेतन सबकी चिंता, केवल अपना परिवार और गांठ का पैसा नहीं बल्कि सबमें ब्रह्म देखना मंंदिरों की छाया में पली परंपरा है। पुराने समय में दर्शानिक विषयों के साथ भौतिक विषयों में कैसे उन्नति की जाए और एक विषय के साथ दूसरे विषय में कैसे पारंगत हुआ जाए, यह काम भी मंदिरों की छत्रछाया में ही होता रहा है। गुरुकुल-छात्रावास और ज्ञान की अलग-अलग परंपराएं यहां पोषित हुई हैं।
आपदा या संकट के समय मंदिर की शरण में जाने के अनेक उदाहरण हैं। जरासंध से युद्ध के समय भगवान श्रीकृष्ण जब रणभूमि छोड़कर चले गए तो उन्हें रणछोड़ नाम मिला। वे गए कहां थे! वे गए थे गयाजी, जहां जरासंध की गुफाएं हैं। यानी वे तीर्थ की शरण में ही थे। चोल वंश के राजा राजेंद्र चोल जब युद्ध में हार गए तो तमिलनाडु में स्थित भगवान नटराज के चिदंबरम मंदिर की शरण में पहुंचे। अलाउद्दीन खिलजी, मलिक कफूर ने जब दक्कन पर आक्रमण किया तो वहां के राजा पंढरपुर विठोबा की शरण में गए। शिवाजी महाराज जब प्रार्थना करते हैं कि दोबारा समाज को खड़ा करना है तो वे तुलजा भवानी मंदिर जाते हैं।
ऐसे ही जब भी देश में अकाल, बाढ़ या अन्य कोई प्राकृतिक आपदा आई, तब मंदिरों ने लोगों को संभाला। उनके लिए अपने भंडार के द्वार खोल दिए। जगन्नाथपुरी के बारे में ऐसे कई ऐतिहासिक साक्ष्य हैं। ऐसा इसलिए भी क्योंकि मंदिरों के पास अक्षय खाद्यान्न और धन के विशाल भंडार होते थे, जो आवश्यकता के समय लोगों की मदद के लिए प्रयोग किए जाते थे।
हाल के वर्षों में सबसे बड़ी आपदा कोरोना के रूप में आई। इस दौरान दिल्ली के झंडेवाला देवी मंदिर ने लम्बे समय तक असंख्य लोगों को भोजन भेजा। ऐसे ही देश के अन्य बहुत सारे मंदिरों ने अनथक अकथनीय परोपकार के कार्य किए।
डॉ. राममनोहर लोहिया प्रख्यात समाजवादी चिंतक थे। उनका एक निबंध है- ‘राम, कृष्ण और शिव।’ इसके माध्यम से वे राष्ट्रीय एकत्व की बात करते हैं। तमिलनाडु में अपर्णा या कहिए मां गौरा का एक मंदिर है। अपर्णा गौरा जी का ही एक नाम है। जब शिव को वर रूप में कामना करते हुए ‘पर्ण’ यानी पत्ते खाना भी जब छोड़ दिया तब नाम पड़ा- अपर्णा। अपर्णा वहां शिव की अराधना कर रही हैं। दक्षिण में खड़े होकर सूदूर उत्तर में स्थित कैलाशपति की अराधना कर रही हैं।
यानी शिव उत्तर और दक्षिण को जोड़ रहे हैं। मथुरा कहां और बेट द्वारका कहां। इसके बावजूद इन दो दिशाओं के भी पार-सुदूर इम्फाल तक कृष्ण और उनके मंदिर भारत को जोड़ रहे हैं। इम्फाल में मैतैई समुदाय कृष्ण को ही तो पूज रहा है!
ये हमारी गौरवशाली परंपराएं हैं। यह ऊंचाई, यह उन्नति, यह ज्ञान क्या मंदिरों के बिना संभव था?
समाज का संरक्षण और पोषण
राजस्थान में गोगावीर का मेला लगता है। जिस समय मेला लगता है, उस समय वहां के घरों में कोई दूध को जमाता नहीं है, क्योंकि वह गोगा जी का प्रसाद होता है। उस समय टनों दूध मन्दिर जाता है और सभी में बांटा जाता है। वहां दूर-दूर से लोग आते हैं। उस क्षेत्र में पहले पोषण की कोई और व्यवस्था नहीं थी, तो गोगावीर के मंदिर के माध्यम से लोगों के लिए पोषण की व्यवस्था हुई।
लालबाग के राजा के मोदक की बात हम सुनते हैं। वहां टनों पौष्टिक मेवा, मोदक चढ़ते हैं और लोगों में बांटे जाते हैं।
हमने शंकराचार्य और मंडन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ की बातें सुनी हैं। यह बौद्धिक व्यायाम है, लेकिन हमारे देश में मंदिरों से बहुत सारी व्यामशालाएं भी जुड़ी हुई हैं। इनमें लोग व्यायाम करते हैं, मल्लयुद्ध करते हैं। हमारे यहां कहा भी गया है कि स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। ये जो परंपराएं हैं, वे मंदिरों के आंगन से ही निकली हैं। बारीकी से देखेंगे तो पाएंगे कि मंदिर हर तरह से संरक्षण करते हैं। समाज ने इसके तरीके अलग-अलग निकाले हैं। उदाहरण के तौर पर जल्लीकट्टू में सांड दौड़ते हैं, उनमें जो जीतता है, उसे प्रजनन करवाने के लिए रखा जाता है। अच्छी नस्ल का गोधन हमको मिल सके इसलिए इस तरह की प्रतिस्पर्धा बनाई गई। यह परंपरा वहां मंदिरों से ही निकली है।
भारतीय समाज के निर्माण में मंदिरों की भूमिका प्राण की तरह है। मंदिरों में ही भारतीय संगीतकला, नृत्यकला, आयुर्वेद, युद्धकला, वास्तु, शिल्प व मूर्तिकला पोषित हुई है। भगवान शिव के नटराज स्वरूप को नृत्य एवं मां सरस्वती को विद्या व संगीत की प्रेरणा माना गया है। धन्वंतरि और चरक जैसे आयुवेर्दाचार्यों की परंपरा से निकली चिकित्सा विद्या का प्रसार हम आज भी मंदिरों से जुड़े चिकित्सालयों में देख सकते हैं। यह प्रक्रिया पुरातन काल से चलती आ रही है।
बहुत सारी बातों के बाद फिर बात विशुद्ध पैसे की। ‘नेशनल सैंपल सर्वे’ का एक आकलन है कि भारतीय अर्थव्यवस्था में 3.02 लाख करोड़ का यानी 40 अरब डॉलर का मंदिरों की अर्थव्यवस्था का आकार है। सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के हिसाब से देखेंगे तो यह करीब-करीब ढाई प्रतिशत बैठता है। यह तो छोटा सा आकलन भर है, मंदिर आज भी ऐसा कर रहे हैं। राम मंदिर का ही उदाहरण ले सकते हैं। अयोध्या की जनसंख्या 70 से 80 हजार है। छोटा-सा नगर है। इस छोटी सी नगरी ने 22 जनवरी को 25 लाख लोगों को संभाला था। बहुत सारे भंडारे चल रहे थे। देशभर से लोग वहां आ रहे थे, लेकिन भूखा कोई नहीं रहा।
मंदिर की छाया भूख और संताप हटाती है और जीवन में संयम भी लाती है। ऐसे मंदिरों से ‘कर’ वसलूने की बात भी भला कोई कैसे सोच सकता है। हिंदू विरोध और वोट बटोरने के पैंतरे एक ओर रख मंदिरों की बारीक सामाजिक-आर्थिक संरचना और इसके योगदान को समझने की आवश्यकता है।
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