ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से लेकर छठी या सातवीं शताब्दी ईसवीं तक समय भारत में वैज्ञानिक प्रगति का स्वर्ण काल माना जाता है। वैदिक ग्रंथों के विवरण बताते हैं कि वैदिक युग में भारत का धातुकर्म, भौतिकी, रसायन-शास्त्र उच्चतम अवस्था में था। मौर्य शासनकाल में युद्ध के अनेक अस्त्र-शस्त्र व प्रक्षेपास्त्र विकसित हुए थे। भू-सर्वेक्षण प्रणाली व सिंचाई अभियांत्रिकी भी अत्यंत विकसित थी। विशालकाय प्रस्तर स्तंभों के निर्माण का वैज्ञानिक कौशल उस युग की एक अन्य विशेषता बड़ी थी। इसके बाद गुप्तकाल में भी विज्ञान की विभिन्न शाखाओं में उल्लेखनीय प्रगति हुई थी। प्राचीन भारतीय विज्ञान के इन सभी अनुसंधानों और आविष्कारों का लोहा प्राचीन युग में समूची दुनिया मानती थी।
अति उन्नत खगोल विज्ञान
खगोल विज्ञान का जन्म भारत में ही हुआ था। उपलब्ध साक्ष्यों से अब यह पुष्टि हो चुकी है कि आधुनिक युग के सुप्रसिद्ध जर्मन खगोल विज्ञानी कॉपरनिकस से लगभग एक हजार वर्ष पूर्व ही भारतीय विज्ञानी आर्यभट्ट पृथ्वी की गोल आकृति और इसके अपनी धुरी पर घूमने के सिद्धांत की पुष्टि कर चुके थे। आर्यभट्ट ने सूर्य और चंद्र ग्रहण के कारणों का भी पता लगाया। सर्वप्रथम उन्होंने ही कहा था कि चंद्रमा और पृथ्वी की परछाई पड़ने से ग्रहण लगता है। चंद्रमा में अपना प्रकाश नहीं है, वह सूर्य के प्रकाश से प्रकाशित है। इसी प्रकार आर्यभट्ट ने राहु-केतु द्वारा सूर्य और चंद्र को ग्रस लेने के सिद्धांत का खंडन किया और ग्रहण का सही वैज्ञानिक सिद्धांत प्रतिपादित किया, जिसका उल्लेख उनके आर्य सिद्धांत नामक ग्रंथ में है। वैदिककालीन खगोल विज्ञान की विस्तृत जानकारी ईसा से लगभग 100 वर्ष पूर्व रचित वेदांग ज्योतिष नामक ग्रंथ में मिलती है। वैदिक कालीन समाज में लोग यज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठान ही नहीं कृषि कर्म भी ग्रहों की स्थिति के अनुसार शुभ लग्न-नक्षत्र देख करते थे। आर्यगण सूर्य की उत्तरायण और दक्षिणायन गति से भी पूरी तरह परिचित थे। महाभारत में भी खगोल विज्ञान व चंद्रग्रहण और सूर्यग्रहण की व्यापक चर्चा है।
आर्यभट्ट के बाद छठी शताब्दी में भारत में वराहमिहिर नाम के सुप्रसिद्ध खगोल वैज्ञानिक हुए। खगोल विज्ञान के क्षेत्र में वे प्रथम व्यक्ति थे, जिन्होंने कहा कि कोई ऐसी शक्ति है जो वस्तुओं को धरातल से बांधे रखती है। आज इसी शक्ति को गुरुत्वाकर्षण के नाम से जाना जाता है। वराहमिहिर के खगोल विज्ञान के सूत्रों का विवरण उनके पंच सिद्धांतिका, सूर्यसिद्धांत, वृहत्संहिता और वृहज्जातक नाम की पुस्तकों में मिलता है।
भारतीय खगोल विज्ञान के क्षेत्र में तीसरा महत्वपूर्ण नाम है ब्रह्मगुप्त। आइजक न्यूटन से करीब हजार-बारह सौ साल पहले भारत में ब्रह्मगुप्त ने पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण के सिद्धांत की पुष्टि कर दी थी। वे का प्रयोग करने वाले भारत के सबसे पहले महान गणितज्ञ माने जाते हैं। उन्होंने ब्रह्मगुप्त सिद्धांत व खंड खाद्यक नामक ग्रंथों में विभिन्न ग्रहों की गति और स्थिति, उनके उदय और
अस्त, युति तथा सूर्य ग्रहण की गणना की विधियों का वर्णन किया है। उनका ग्रहों का ज्ञान प्रत्यक्ष वेध (अवलोकन) पर आधरित था। ब्रह्मगुप्त के बाद बारहवीं शताब्दी में हुए भास्कराचार्य ने खगोल विज्ञान की प्रगति में विशिष्ट योगदान दिया। उन्होंने सिद्धांत शिरोमणि और करण कौतुहल नामक ग्रंथों में अपने खगोलीय सिद्धांतों का प्रतिपादन किया है। आज भी खगोल वैज्ञानिक ग्रहों की गति का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए इन पुरातन शोधों से मदद लेते हैं।
उत्कृष्टम गणितीय पद्धति
वर्तमान के खोज और अविष्कार जिन पर आज यूरोप का वैज्ञानिक वर्ग गर्व करता है, भारत की उत्कृष्टम विकसित गणितीय पद्धति के बिना असंभव थे। भारतीय मनीषियों में ऐसी अनेक गणितीय खोजें की थीं, जिनसे पुनर्जागरण काल के बाद भी यूरोप अपरिचित था। भले ही हड़प्पाकालीन लिपि के अब तक पढ़े न जा सकने के कारण निश्चित रूप से कुछ कहा नहीं जा सकता हो, लेकिन इस बात की प्रबल संभावना से कोई भी बुद्धिजीवी इनकार नहीं कर सकता कि सिंधु सभ्यता के लोग अवश्य ही अंकों और संख्याओं से परिचित रहे होंगे। विचार कीजिए, क्या उस काल
में की जाने वाली माप-तौल और व्यापार क्या बिना अंकों और संख्याओं के संभव था! निश्चित तौर पर नहीं। इसी तरह वैदिककालीन गणतीय खोजों का तो कहना ही क्या। आधुनिक समय में देश में तेजी से लोकप्रिय हो रही वैदिक गणित इसकी महत्ता को बताने के लिए पर्याप्त है। वैदिक गणितज्ञ मेधतिथि 1012 तक की बड़ी संख्याओं से परिचित थे। वे अपनी गणनाओं में दस और इसके गुणकों का उपयोग पूरी सहजता से करते थे। बताते चलें कि यजुर्वेद संहिता के अध्याय 17 के दूसरे मंत्र में 10,00,00,00,00,000 (एक पर बारह शून्य यानी दस खरब) तक की संख्या का उल्लेख है। ईसा से 100 वर्ष पूर्व के जैन ग्रंथ अनुयोग द्वार सूत्र में असंख्य तक गणना का उल्लेख मिलता है। जबकि उस समय यूनान में सबसे बड़ी संख्या का नाम मिरियड (10,000, दस सहत्र) और रोम में सबसे बड़ी संख्या, मिल्ली (1000, एक सहत्र) थी। शून्य भारत की महानतम उपलब्धि है। इसका उपयोग सर्वप्रथम पिंगल ऋषि ने अपने छन्द सूत्र में ईसा से 200 वर्ष पूर्व किया था। ब्रह्मगुप्त (छठी शताब्दी) पहले भारतीय गणितज्ञ थे जिन्होंने शून्य को प्रयोग में लाने के नियम बनाये थे। मसलन -शून्य को किसी संख्या से घटाने या उसमें जोड़ने पर उस संख्या पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता, शून्य से किसी संख्या का गुणनफल भी शून्य होता है। अब यह निर्विवाद रूप से साबित हो चुका है कि संसार को संख्या की आधुनिक प्रणाली भारत ने ही दी है।
अतुलनीय चिकित्सा प्रणाली
भारतीय चिकित्सा पद्धति के विषय में सर्वप्रथम लिखित ज्ञान अथर्ववेद में मिलता है। अथर्ववेद में विविध रोगों के उपचारार्थ प्रयोग किये जाने संबंधी विशिष्ट सूत्र संकलित हैं। भैषज्य सूत्र के नाम से जाने, जाने वाले इन सूत्रों में विभिन्न रोगों के नाम तथा उनके निराकरण के लिए विभिन्न प्रकार की औषधियों के नाम भी दिये गये हैं। अथर्ववेद में जल चिकित्सा, सूर्य किरण चिकित्सा और मानसिक चिकित्सा के विषयों पर भी विस्तृत विवरण मिलता है। ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व चरक संहिता और सुश्रुत संहिता में शरीर चिकित्सा पर अत्यन्त सारगर्भित जानकारी मिलती हैं। आज भी इन ग्रन्थों को चिकित्सा शास्त्र के क्षेत्र में प्रामाणिक और विश्वविख्यात ग्रंथ माना जाता है। महर्षि चरक इस बात को भलीभांति जानते थे कि हृदय शरीर का मुख्य अवयव है, जिसके द्वारा शरीर में रक्त संचार की क्रिया होती है। वे यह भी जानते थे कि कुछ बीमारियां ऐसे सूक्ष्म जीवाणुओं के कारण होती हैं, जिन्हें हम सीधे आंखों से नहीं देख सकते। यही नहीं, चरक संहिता में शरीर विज्ञान, निदान शास्त्र और भ्रूण विज्ञान के विषय में गहन जानकारी के साथ उन विषयों के प्रशिक्षित चिकित्सकों और चिकित्सालयों का भी विवरण मिलता है। चरक पहले चिकित्सक थे, जिन्होंने उपापचय, पाचन और शरीर प्रतिरक्षा के बारे में बताया था। उनको आनुवांशिकी के मूल सिद्धांतों का भी ज्ञान था। इन्हीं तमाम विशेषताओं के कारण चरक संहिता का अनुवाद आज अनेक देशी-विदेशी भाषाओं में हो चुका है। इसी तरह आचार्य सुश्रुत रचित सुश्रुत संहिता आज भी भारतीय शल्य चिकित्सा पद्धति का विश्वविख्यात ग्रंथ माना जाता है। इस संहिता में सुश्रुत ने उस युग के शल्य चिकित्सकों के व्यवहारिक ज्ञान और अनुभवों को संकलित कर एक व्यवस्थित रूप दिया है। उनके अनुसार शव विच्छेदन एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है। उन्होंने शल्य चिकित्सा के लिए 101 उपकरणों की सूची भी दी है जिसमें कैंची, चिमटियां, चाकू, सुइयां, सलाइयां तथा नलिका आदि तमाम वे उपकरण हैं जिनका प्रयोग आज भी शल्य चिकित्सक करते हैं। यही नहीं, उन्होंने शल्य क्रिया से पहले उपकरणों को गर्म करके
कीटाणरोधी करने की बात भी कही है। विवरण कहते हैं, आचार्य सुश्रुत पित्त की थैली में पाये जाने वाले पत्थर निकालने, टूटी हड्डियों को जोड़ने और मोतियाबिंद की शल्य चिकित्सा में दक्ष थे। यही नहीं, उन्होंने अपनी संहिता में नाक, कान और ओंठ की प्लास्टिक सर्जरी का भी पूरा विवरण दिया है। इसी कारण आचार्य सुश्रुत को प्लास्टिक सर्जरी का जनक कहा जाता है। आचार्य चरक और सुश्रुत के बाद भी अनेक वैदिक ऋषियों ने चिकित्सा विज्ञान को समृद्ध किया। जहां महर्षि अजेय ने नाड़ी और श्वास की गति पर प्रकाश डाला वहीं महर्षि पतंजलि ने योग से शरीर को निरोग रखने के लिए विभिन्न योग व आसन विकसित किये। भगवान बुद्ध के चिकित्सक आचार्य जीवक ने भी अनेक असाध्य रोगों की कई मनोचिकित्सा की विधियां बतायी हैं।
दिलचस्प तथ्य है कि प्राचीन भारत में पशु चिकित्सा विज्ञान भी काफी विकसित था। घोड़ों, हाथियों, गाय-बैलों की चिकित्सा से संबंधित अनेक जानकारियां हय आयुर्वेद अश्व लक्षण शास्त्र व अश्व प्रशंसा नामक ग्रंथों उपलब्ध हैं। इनमें रोगों प्रकार और उनके उपचार के लिए औषधियों का विवरण दिया गया है। इन ग्रंथों के भी अनुवाद अनेक विदेशी भाषाओं में हुए हैं।
परमाणुओं की संरचना पर व्यापक शोध
प्राचीन भारत की भौतिकी व रसायन विज्ञान की उपलब्धियां भी कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। इस बारे में प्राचीन तथा मध्य काल में संस्कृत भाषा में लिखे 44 ग्रंथ उपलब्ध हैं। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में ही कणाद ऋषि ने इस बात को सिद्ध कर दिया था कि विश्व का हर पदार्थ परमाणुओं से मिलकर बना है। उन्होंने परमाणुओं की संरचना, प्रवृत्ति तथा प्रकारों पर भी व्यापक शोध की थी। इसी तरह दसवीं
शताब्दी में नागार्जुन ने रसायन विज्ञान पर लिखे ग्रंथ रस रत्नाकर में पारे के यौगिक बनाने के अनेक सूत्र दिये हैं। साथ ही भूगर्भ से चांदी, सोना, टिन और तांबे के अयस्क निकालने और उन्हें शुद्ध करने की विधियों का विवरण भी दिया गया है। ऋषि नागार्जुन ने वनस्पति निर्मित तेजाबों में हीरे, धातु और मोती गलाने की विधि खोजी थी। उन्होंने रसायन विज्ञान में काम आने वाले उपकरणों व उनकी प्रयोग का विवरण भी दिया है। नागार्जुन के साथ रसायन शास्त्री वृंद का नाम भी उल्लेखनीय है। इन्होंने औषधि रसायन पर सिद्ध योग नामक ग्रंथ की रचना की थी। ज्ञात हो कि आदि भारत में रसायन शास्त्रियों ने पहली और दूसरी शताब्दी में ही कई रासायनिक फॉर्मूले खोज लिए थे, वे लोग पारद (पारा) के यौगिक, अकार्बनिक लवण तथा मिश्र धातुओं का प्रयोग और मसालों से कई प्रकार के इत्र बनाये जाते थे। विशेषज्ञों को अयस्कों से धातु निकालने तथा उनसे मिश्रित धातु बनाने की विधि ज्ञात थी। धातु विज्ञान में भारत की दक्षता उच्च कोटि की मानी जाती थी। उस काल में भारतीय इस्पात बहुत उच्चकोटि का होता था, इस कारण विशेष प्रकार के औजार और अस्त्र-शस्त्र बनाने के लिए सुदूर देशों तक उसकी बहुत मांग थी।
दिल्ली के महरौली इलाके में कुतुबमीनार के निकट खड़ा लौह स्तंभ (चौथी शताब्दी) 1700 वर्षों की सर्दी गर्मी और बरसात सहकर भी आज भी जंग विहीन बना हुआ है। इसे प्राचीन भारत के लौह कर्म का उत्कृष्ट नमूना माना जाता है। महरौली के लौह स्तंभ की तरह ही लगभग 7.5 मीटर ऊंचा एक अन्य प्राचीन लौह स्तंभ कर्नाटक पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य खड़ा है, इस पर भी सदियों बाद भी जंग का कोई प्रभाव नहीं हुआ है। यही नहीं तेरहवीं शताब्दी के उड़ीसा के कोणार्क मंदिर का 10.5 मीटर लंबा तथा 90 टन भार वाला लोहे का स्तंभ भी अभी भी जंगविहीन है।
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