लोकतंत्र की चुनौती भरी राह

1947 में एक साथ लोकतंत्र की राह पर चलने का फैसला करने वाले दोनों देशों को देखने-समझने का यह उचित समय है

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हितेश शंकर

पाकिस्तान, जहां ‘कथित’ लोकतंत्र के ‘तंत्र’ को आरंभ से ही सेना ने अपने कब्जे में रखा। जहां दिखावे को चुनाव भले हों, परिणाम जारी करने का साहस समीकरण बैठाने की तिकड़मों के सामने पस्त हो जाता है।

लोकतंत्र एक यात्रा है, जिसमें गुजरते पड़ावों के साथ लोक और तंत्र, दोनों परिपक्व होते हैं। तंत्र, जैसा शब्द से ही स्पष्ट है, कई शाखाओं का एक संयोजन होता है और लोक की अपेक्षाओं, उसके अधिकारों की रक्षा, उसके बेहतर भविष्य की कल्पना का साकार होना, सब इसी पर निर्भर करता है। लेकिन उसी तंत्र का अगर उसी के अंग द्वारा अपहरण कर लिया जाए तो वे सारी आशाएं, सारी अपेक्षाएं धरी की धरी रह जाती हैं।

यही अंतर है भारत के लोकतंत्र और पाकिस्तान के ‘कथित’ लोकतंत्र में। 1947 में एक साथ लोकतंत्र की राह पर चलने का फैसला करने वाले इन दोनों देशों को देखने-समझने का यह उचित समय है।

पाकिस्तान, जहां ‘कथित’ लोकतंत्र के ‘तंत्र’ को आरंभ से ही सेना ने अपने कब्जे में रखा। जहां दिखावे को चुनाव भले हों, परिणाम जारी करने का साहस समीकरण बैठाने की तिकड़मों के सामने पस्त हो जाता है। जहां लोग रोते हैं कि काश! हमारे यहां भी भारत की तरह भरोसेमंद व्यवस्था और ‘ईवीएम’ होती। जहां लोकतंत्र निर्धन होता जाता है और राजनेताओं को जीत और तख्त की बख्शीश बांटते फौजी जनरल गड्डियां बटोरते हुए मूछों पर ताव देते हैं।

ऐतिहासिक रूप से पाकिस्तान में सेना राजनीतिक निर्णय लेने और शासन में शामिल रही है और यहां तक कि तख्तापलट कर देश पर शासन भी किया है। फौजी साये में पली-बढ़ी अराजकता का ही नतीजा है कि वहां प्रधानमंत्री कभी अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा नहीं कर पाते। आज पाकिस्तान की दुर्गति का कारण सेना ही है।

फौज पर पाकिस्तान के कुल खर्चे का लगभग 46 प्रतिशत धन लुट रहा है। यह तो है उसे मिल रहा प्रत्यक्ष अनुपातहीन फायदा। परोक्ष फायदे तो और भी चिंताजनक हैं। उदाहरण के लिए वर्दी वाले धन्ना सेठ जनरल कमर जावेद बाजवा को ही लें। छह साल के भीतर बाजवा का परिवार अरबपति बन गया। उसके पास विदेशों में भी अच्छी-खासी संपत्तियां हैं। ऐसे ही लेफ्टिनेंट जनरल असीम सलीम बाजवा के परिवार के पास भी 100 मिलियन डॉलर से ज्यादा की संपत्ति है।

पाकिस्तानी फौज के प्रभाव के बीच वहां हुआ हालिया चुनाव बहुत अहम है। अहम इसलिए कि चुनावों में हर बार की तरह फौजी देख-रेख में हुई धांधली के बाद भी जनता ने दिखाया कि लोक की सामूहिक चेतना अगर जाग जाए तो वह क्या कर सकती है। इमरान खान की पार्टी के प्रति जनता ने अपना समर्थन इस चुनाव में दिखाया।

चुनाव से बाहर करने के बाद इमरान की पार्टी के लोग निर्दलीय के नाते लड़े। चुनाव में सबसे बड़ा समूह निर्दलियों का रहा। यह सही है कि सत्ता के खेल में फौज ने एक बार फिर जोड़तोड़ करके सरकार बनाने का रास्ता निकाल लिया, लेकिन जनता ने कदमताल करते हुए फौज को साफ संकेत दिया है कि अब उसकी नहीं चलने वाली। निश्चित तौर पर यह चुनाव लोकतंत्र की मशाल को जलाए रखने की जनता की प्रतिबद्धता का उदाहरण है। बेशक, उसे लोकतंत्र के रास्ते में अभी लंबा रास्ता तय करना है, लेकिन उसने पहला कदम उठा लिया है।

अब, बात भारत की। विशेषकर उन लोगों की, जो भारत के लोक और तंत्र को आपस में उलझाकर अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। किंतु मत भूलिए, भारत, पाकिस्तान नहीं है। दरअसल, लोकतंत्र विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, और ‘खबरपालिका’ के बारीक संतुलन पर निर्भर करता है और इसके मूल में होता है अधिसंख्य लोगों के हित में फैसले लेना, उसे निष्ठा से व्यवहार में उतारना, कहीं कोई कमी रह गई तो सुधार करना।

इस पूरी व्यवस्था में दबाव समूहों की अपनी भूमिका होती है जो सुनिश्चित करते हैं कि विचलन न आए, लेकिन बहुत बार ऐसे समूहों को संचालित करने वाली डोर उन हाथों में होती है, जिनकी मंशा स्वार्थ साधने की होती है। ऐसे तत्वों का पूरा खेल ‘धारणा’ बनाने पर टिका होता है, क्योंकि आधुनिक विश्व में सीमाओं पर होने वाली लड़ाई से कहीं बड़ी लड़ाई देशों की सीमाओं के भीतर ही लड़ी जा रही है। किंतु क्या एक छोटे से समूह को यह अधिकार है कि वह कोई ‘खास’ फैसला लेने के लिए दबाव बनाए और इसके लिए अराजक भी हो जाए? क्या अभिव्यक्ति की आड़ में निरंकुश आक्रोश को बढ़ावा देना या प्रदर्शन की ढाल तानकर अराजकता के हरावल दस्तों का दुस्साहसिक हल्लाबोल लोकतंत्र के नाम पर सहन किया जा सकता है?

भारत समेत दुनियाभर के लोकतंत्रों पर यह बात लागू होती है। सबसे घातक औजार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है आधा बताना-आधा छिपाना और विभाजनकारी ‘नैरेटिव’ फैलाना। यह रणनीति लोकतंत्र के सभी प्रमुख स्तंभों पर लागू होती है।

  • अगर सरकार तीन तलाक हटा दे तो इसे मुसलमानों के खिलाफ बताना और यह सवाल करना कि हिंदू महिलाओं के साथ भी तो अत्याचार होते हैं?
  • वर्षों गुजरात दंगों की बात करना, लेकिन हर बार गोधरा का जिक्र जान-बूझकर छोड़ देना। ‘खबरपालिका’ के जरिए साधारण अपराध को हिंदू-मुसलमान, ऊंच-नीच, दलित-जनजाति के चश्मे से देखना-दिखाना और रंग-बिरंगे धागों से बनी सामाजिक संरचना को बदरंग करने का ‘नैरेटिव’ फैलाना।बहरहाल, लोकतंत्र के रास्ते पर इतना लंबा रास्ता तय करने वाले देश की चुनौतियां बड़ी हैं। पाकिस्तान की जनता भारत की प्रगति को देखकर आहें भर रही है और भारत में कुछ लोग हिंसक, असहिष्णु, अराजक टोलियों के साथ लोकतंत्र के नाम पर इस लोकतंत्र से ही लोहा लेने के सपने देख रहे हैं।
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