संत रविदास जयंती : प्रभु, तुम चंदन हम पानी!

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इन्दुशेखर तत्पुरुष

रैदास की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने जो कुछ कहा, वह सदाचार और वेदशास्त्रों के अनुकूल था। सत्य, असत्य का नीर-क्षीर विवेचन करते हुए उन्होंने परमहंसों का स्थान पाया। उनके आचरण और शास्त्रों के उपदेश में किसी फांक न होना उन्हें परम पूज्य संत के स्थान पर अधिष्ठित करता है। 

जिन मध्यकालीन संतों की भक्ति के प्रभाव से बड़े-बड़े सूरमा उनके सम्मुख नतमस्तक हो गए, उनमें संत रैदास का नाम सर्वोच्च है। शील, सदाचार और भगवद्भक्ति के बल पर उन्होंने जो सात्विक शक्ति अर्जित की, वह प्रकांड पंडितों, राजा-महाराजाओं और धनपतियों को भी सुलभ नहीं हुई। इससे भी बढ़कर बात यह हुई कि इस अलौकिक प्रभाव से संपन्न होकर भी संत रैदास परमहंसों की भांति निर्विकार रहे। राग, द्वेष, अहंकार उन्हें छू तक नहीं पाए। ‘भक्तमाल’ में रैदास का चरित्र चित्रण करते हुए नाभादास कहते हैं,

‘सदाचार श्रुति सास्त्र वचन अबिरुद्ध उचार्यो।
नीर खीर बिबरन्न परम हंसनि उर धार्यो॥’

रैदास की सर्वप्रमुख विशेषता यह है कि उन्होंने जो कुछ कहा, वह सदाचार और वेदशास्त्रों के अनुकूल था। सत्य, असत्य का नीर-क्षीर विवेचन करते हुए उन्होंने परमहंसों का स्थान पाया। उनके आचरण और शास्त्रों के उपदेश में किसी फांक न होना उन्हें परम पूज्य संत के स्थान पर अधिष्ठित करता है। नाभादास आगे कहते हैं-

बरनाश्रम अभिमान तजि पद रज बंदहि जासु की।
संदेह ग्रंथि खंडन निपुन बानि बिमल रैदास की।
अर्थात् वर्णाश्रम के अभिमान को त्यागकर पंडितों ने जिनकी चरण-धूलि की वंदना की, उन रैदास जी की वाणी संदेहों की ग्रंथि का खंडन करने में अत्यंत निपुण है। रैदास की निर्मल वाणी सुनकर क्या ज्ञानी,क्या मूढ़— सभी के भ्रमों और उलझावों का उपशम हो जाता है। सर्वाधिक महत्वपूर्ण है उनकी विमल वाणी। किसी को चोट न पहुंचाने वाली अहिंसक और प्रेम से भरी नीर-क्षीर विवेकी वाणी। गीता में भगवान् कृष्ण कहते हैं-

अनुद्वेगकरं वाक्यं, सत्यं प्रियहितं च यत् , स्वाध्यायाभ्यसनं चैव, वाङ्मयं तप उच्यते॥

अर्थात् जो शब्द, सत्य, प्रिय और हितकारक होते हैं, उत्तेजना पैदा नहीं करते, उनका प्रयोग तथा नियमित स्वाध्याय और अभ्यास, यही वाणी की तपस्या है। कहने की आवश्यकता नहीं कि रैदास की वाणी इस साहित्यिक तपस्या का खरा आदर्श है। प्रभूत सम्मान प्राप्त कर लेने पर भी उनके वचन समाज में सौमनस्य और समरसता पैदा करने वाले रहे। उन्होंने समाज में निम्न कहे जाने वाले कुल में जन्म लिया, पर उन्हें रामानन्द जैसे महान् गुरु मिले। वे एक श्रमजीवी चर्मकार थे, पर आजीवन धन-संपत्ति के प्रति अनासक्त बने रहे। लोभ और लालच उनकी छाया तक को छू नहीं पाए। वे न अपमान से विचलित हुए, न सम्मान से गर्वस्फीत। निर्भीक ऐसे कि विधर्मी आतताइयों के छल-बल-लालच के आगे कभी झुके नहीं।

आज अपने स्वार्थ अथवा द्रोहवृत्ति के कारण जरा-जरा सी बात पर सामाजिक वैमनस्य की आग उगलने वाले जातिवादी नेताओं को यह समझ लेना चाहिए कि यह देश रैदास जैसे समाज में अमृत घोलने वाले संतों की चरण पादुकाओं को अपने सिर पर गर्व के साथ धारण कर लेता है। उनकी चरण-धूलि अपने माथे पर लगा लेता है, किंतु समरसता की जड़ों में जहर उडेÞलने वाले विखंडनकारियों को कभी घास नहीं डालता। उनकी जड़ों को उखाड़ देता है। वे चाहे कितने ही उच्च कुल, उच्च प्रतिभा और उच्च वैभव से स्वामी क्यों न हों।

भारत पर इस्लामी आक्रमण की आंधी में देश की सामाजिक संरचना में भी अनेक परिवर्तन हुए। समाज में पहले से विद्यमान छुआछूत अब और विकृत रूप में उभर कर हिंदुओं की एकता और पारस्परिक सौहार्द को तेजी से नष्ट करने लगी थी। इस सामाजिक अधोपतन को रोकने में भारतीय राज्यशक्ति जब असमर्थ हो गई तो धर्मशक्ति ने अपना उत्तरदायित्व निभाया। सनातन धर्म की यह विशेषता रही है कि वह अनैतिक, अमानवीय रूढ़ियों के विरुद्ध अपनी राह आप निकालकर जीवन-मूल्यों की रक्षा करता रहा है। मध्यकाल में यह राह निकली भक्ति के माध्यम से, जिसके प्रवर्तक बने रामानुज, रामानंद आदि आचार्यगण। रामानंद ने अस्पृश्य कहे जाने वाले लोगों को अपना शिष्य बनाकर सामाजिक समरसता की जोत प्रज्ज्वलित की। उन्हें राम नाम की दीक्षा देकर हिंदू समाज में व्याप्त भेदभावों के उन्मूलन का शंखनाद किया। वे, ‘जाति पांति पूछे नहिं कोई, हरि को भजे सो हरि को होई’ के सच्चे मंत्रद्रष्टा थे।

इन्हीं रामानन्द के शिष्य थे रैदास, जिन्होंने रामानंद के सिद्धांत को मूर्त रूप प्रदान किया। उच्चारण भेद से यही कहीं रविदास, कहीं रैदास, कहीं रहूदास और कहीं रयिदास कहे जाते हैं। रैदास के जन्मवर्ष और जन्मस्थान को लेकर यद्यपि मतभिन्नता है, किंतु उनका जन्मदिन माघ पूर्णिमा को ही निर्विवाद माना जाता है। प्रचलित मत के अनुसार उनका जन्म सन् 1376 में काशी के निकटवर्ती गांव गोबर्धनपुर में कर्मा देवी (कलसा) तथा संतोख दास (रग्घु) के पुत्र के रूप में हुआ था। मरे हुए पशुओं की चमड़ी उतारने का काम करने के कारण उन्हें तत्कालीन समाज में अस्पृश्य माना जाता था। किंतु यह भी उतना ही प्रामाणिक तथ्य है कि भक्ति के प्रताप से उसी वंचित वर्ग के प्रतिनिधि के चरणों में समाज में उच्चतम कहे जाने वाले वर्ग के प्रतिनिधि अपना माथा टेकते थे। रैदास का एक पद इस महत्वपूर्ण सत्य का उद्घाटन करता है:

जाके कुटुंब सब ढोर ढोवंत,फिरहिं अजहूं बनारसी आसपासा।
आचार सहित बिप्र करहिं डंडउति,तिन तनै रविदास दासनुदासा।

यह रैदास की महत्ता को तो उजागर करता ही है, हिंदू समाज के उस यथार्थ को भी समझने की दृष्टि देता है, जिसे औपनिवेशिक मानसिकता के बंधक इतिहासकारों ने दबाकर रखा, जबकि रैदास स्वयं इस सत्य को पूरी विनम्रता के साथ स्वीकारते हैं। मध्यकाल के जाति-पांति में जकड़े घोर रूढ़िवादी समाज में यह असाधारण बात थी कि एक चर्मकार के कुल में जन्मे हुए व्यक्ति के चरणों में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जैसे उच्च वर्ण के माने-जाने वाले लोग दंडवत प्रणाम करें। यह तथ्य भारतीय हिंदू परंपरा के उस सत्य की ओर संकेत करता है, जो सनातन धर्म को सर्व समावेशी और सर्वस्पर्शी बनाता है।

वस्तुत: हिंदू समाज में जातिगत भेदभाव होने के बावजूद एक ऐसी धर्म व्यवस्था कायम रही है जो भक्ति, सदाचार, सत्यनिष्ठा और शील जैसे गुणों के आधार पर व्यक्ति को समाज में सर्वपूज्य बनाती है। चाहे वह किसी भी जाति, वर्ण, समुदाय, पंथ का क्यों न हो। एक ओर राणा सांगा की पत्नी झाली रानी द्वारा रैदास को अपना गुरु बनाने का उल्लेख मिलता है, तो दूसरी ओर उनकी पुत्रवधू मीरा बाई के भी गुरु होने का साक्ष्य मिलता है। मीरा अपने पदों में रैदास का गुरु रूप में स्मरण करती हैं-

गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुरसे कलम भिड़ी।
सत गुरु सैन दई जब आके जोत रली।

चित्तौड़ दुर्ग में रैदास के पगल्यों की पूजा होती है। यह रैदास की व्यापक लोकमान्यता का ही प्रमाण है कि उनके इकतालीस पद गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित हैं।
भारत में ऐसा कोई कालखंड नहीं रहा जब समाज में घोर रूढ़िवादियों और शुद्धतावादियों के होते हुए भी ऐसे सर्वस्पर्शी और समावेशी दृष्टि वाले ऋषि, चिंतक न रहे हों। वाल्मीकि रामायण, महाभारत एवं अनेक प्राचीन ग्रंथों में इसके हजारों प्रमाण मिलते हैं। भारतीय मनीषा संहिताओं, शास्त्रों को भी युगानुरूप परिमार्जित करती रही है। यह शोधन-संस्करण, प्रतिसंस्कार कहलाता है। नवीन पुराणों, स्मृतियों की रचना होती रही है।

‘भविष्य पुराण’ जो कि अठारहवीं शताब्दी के अंत तक प्रतिसंस्कारित होता रहा, रैदास, कबीर, पीपा, नानक, तुलसीदास, मीरा आदि संतों-भक्तों का उल्लेख बड़े सम्मान के साथ करता है। भविष्य पुराण की इस कथा के अनुसार विवस्वान् और बड़वा (संज्ञा) के पुत्र इडापति और पिंगलापति ही कलियुग में क्रमश: सधन और रैदास के रूप में जन्मे। संत रैदास ने कबीर से शास्त्रार्थ कर उन्हें पराजित किया तथा रामानुज के शिष्य हो गए। इस विवरण के अंत में पुराणकर्ता कहते हैं, ‘जिन मार्गदर्शक देवांशों की लीला कलिकाल को शुद्ध करती है उनकी उत्पत्ति मैंने सुना दी।’ यहां सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि सनातन धर्म के अधिष्ठाता आचार्यगण चर्मकार रैदास और सदना कसाई को कलियुग के पाप-ताप-कलंक को शुद्ध करने वाले मार्गदर्शक के रूप में प्रस्तुत करते हैं। भक्त रैदास की साधना को ‘कलि शुद्धिकरी’ कहना अतिशयोक्ति नहीं है।

संत शिरोमणि रैदास की निष्कलुष भक्ति, चारित्रिक दृढ़ता और स्वधर्म के प्रति अपराजेय आस्था ने ही उस भीषण आक्रामक काल में लाखों अनुयायियों को बांधे रखा था। उन्हें इस्लामी कन्वर्जन की बाढ़ में बह जाने से रोक लिया। 600 वर्ष पूर्व भारतीय जन जीवन में गंगाजली, कंठी और चंदन को जितना प्रतिष्ठित रैदास ने किया उतना शायद ही किसी ने किया होगा। ‘प्रभु जी तुम चंदन हम पानी’ पढ़कर भला कौन भारतीय होगा जिसका हृदय-जल प्रभु के चंदन से सुगंधित न हो।

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