मनुष्य की आत्मा में निहित उस चैतन्य शक्ति का प्रतीक माना गया है, जो उसे अज्ञान के अंधकार से सद्ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाती है।
सनातन धर्म संस्कृति में मां सरस्वती को मनुष्य की आत्मा में निहित उस चैतन्य शक्ति का प्रतीक माना गया है, जो उसे अज्ञान के अंधकार से सद्ज्ञान के प्रकाश की ओर ले जाती है। ‘बृहदारण्यक उपनिषद्’ में वर्णित एक प्रसंग में विदेहराज जनक महान तत्वज्ञ ऋषि याज्ञवल्क्य से पूछते हैं, ‘‘हे महान ऋषि! कृपा करके मेरी इस जिज्ञासा का समाधान करिए कि जब सूर्य अस्त हो जाता है, चांदनी भी नहीं होती और आग भी बुझ जाती है तो उस समय वह कौन-सी शक्ति है, जो मनुष्य का पथ प्रशस्त करती है?’’ तब ऋषि उनसे कहते हैं, ‘‘वह दिव्य शक्ति है बुद्धि, ज्ञान और विवेक की, जो मां सरस्वती की आराधना से प्राप्त होती है। ज्ञान और विवेक की इस शक्ति के बलबूते मनुष्य हर विषम परिस्थिति में सफलता अर्जित कर सकता है।’’
ज्ञात हो कि मां आदिशक्ति का महिमागान करने वाले लोकप्रिय धर्मशास्त्र ‘श्रीमद् देवीभागवत महापुराण’ में महर्षि मार्कंडेय ‘या देवी सर्वभूतेषु बुद्धिरूपेण संस्थिता। नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥’ गाकर जिस मातृशक्ति को नमन-वंदन करते हैं, वे मूलत: मां सरस्वती ही हैं, जो अपने भक्तों की बुद्धि की जड़ता को दूर कर उन्हें अंतर्ज्ञान तथा नीर-क्षीर विवेक की जीवन दृष्टि प्रदान करती हैं। मां आदिशक्ति के नौ अवतारों में से सबसे प्रमुख अवतार मां सरस्वती का माना गया है, जिन्हें ‘दुर्गा सप्तशती’ में मां ब्रह्मचारिणी के रूप में दर्शाया गया है। इसीलिए मां सरस्वती की प्रार्थना में रचे गए बृहदारण्यकोपनिषद् के ऋषियों के ‘असतो मा सद्गमय’, ‘तमसो मा ज्योतिर्गमय’ और ‘मृत्योमार्मृतं गमय’ जैसे दैवीय सूत्रवाक्य युगों-युगों से हमें प्रेरणा देते आ रहे हैं।
‘कण्ठे विशुद्धशरणं षोड्शारं पुरोदयाम्। शाम्भवीवाह चक्राख्यं चन्द्रविन्दु विभूषितम्।।’’ – पद्मपुराण
मां सरस्वती का अवतरण
समूचे विश्व को बुद्धि और विवेक का अनुदान-वरदान देने वाली मां सरस्वती के अवतरण से जुड़ा एक अत्यंत रोचक कथानक ‘ऋग्वेद’ में वर्णित है। इसके अनुसार आदियुग में त्रिदेवों अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने सर्वसम्मति से सृष्टि की रचना का दायित्व ब्रह्मा जी को सौंपा था। ब्रह्मा जी ने सर्वप्रथम सृष्टि के पंचतत्वों यानी जल, धरती, आकाश, वायु और अग्नि को उत्पन्न किया; और फिर उनके माध्यम से धरती पर समस्त जड़-चेतन जीवधारियों यानी नदी, सागर, झरने, पेड़-पौधे, पहाड़, तरह-तरह की वृक्ष-वनस्पतियां तथा जीव-जंतुओं की रचना की और सबसे आखिर में अपनी आकृति में मनुष्य का सृजन किया। लंबे समय के अपने अथक परिश्रम से रची गई अपनी सुंदर व परिपूर्ण सृष्टि को देखकर ब्रह्मा जी अत्यंत प्रसन्न हुए; किंतु अपने द्वारा रची गई सृष्टि को मूक व निस्पंद देख उनका समूचा आनंद दो ही पल में ही उदासी में बदल गया।
तब ब्रह्मा जी को उदास और चिंतित देख भगवान विष्णु ने उनसे वाग्देवी (वाणी की देवी) का आवाहन करने को कहा। तब ब्रह्माजी ने पूर्ण श्रद्धाभाव से वाग्देवी से प्रकट होने की प्रार्थना करते हुए अपने कमंडल के जल को अपनी अंजुरी में लेकर उस जल की बूंदें अभिमंत्रित कर धरती पर छिड़क दीं। ज्यों ही वे अभिमंत्रित जलबिंदु धरती पर गिरे, उसी क्षण वहां अत्यंत मनोहारी मुखमुद्रा वाली तेजस्वी देवीशक्ति प्रकट हो उठीं। शास्त्र कहता है कि श्वेतवस्त्रधारिणी उस चतुर्भुजी स्त्रीशक्ति के एक हाथ में वीणा, दूसरा हाथ वरमुद्रा में तथा अन्य दोनों हाथों में पुस्तक एवं माला शोभायमान थी। ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर जैसे ही उन्होंने अपनी वीणा के तारों को झंकृत किया; समूची मूक सृष्टि मुखर हो उठी।
नदियों का जल कल-कल का नाद कर उठा, पक्षी चहचहाने लगे, हवा सरसराने लगी, समस्त जीव-जंतुओं के साथ मनुष्य के कंठ से स्वर फूट उठा। समूचे जीव जगत को स्वर देने के कारण वह परम तेजस्विनी स्त्रीशक्ति सभी लोकों में मां सरस्वती के नाम से विख्यात हुईं। शास्त्र कहते हैं कि जिस दिन मां सरस्वती ने प्रकट होकर सृष्टि को स्वर का वरदान दिया था; वह शुभ तिथि माघ मास (वसंत ऋतु के शुभारंभ) के शुक्ल पक्ष की पंचमी थी। कहा जाता है कि तभी से मां सरस्वती के अवतरण की यह पावन तिथि सनातनधर्मियों द्वारा वसंत पंचमी पर्व के रूप में मनाने की परंपरा शुरू हो गई।
‘‘सरस्वती साधना का यही स्वरूप वाल्मीकि के राम काव्य और व्यास जी के महाभारत सृजन की मूल प्रेरणा बना था।’
– स्वामी अवधेशानन्द
सरस्वती पूजा का आध्यात्मिक महात्म्य
हमारा जीवन सद्ज्ञान और विवेक से संयुक्त होकर शुभ भावनाओं की लय से सतत संचरित होता रहे, इन्हीं दिव्य भावों के साथ की गई मां सरस्वती की भावभरी उपासना हमारे अंतस को आध्यात्मिकता के सात्विक भावों से भर देती है। पद्मपुराण कहता है, ‘‘कण्ठे विशुद्धशरणं षोड्शारं पुरोदयाम्। शाम्भवीवाह चक्राख्यं चन्द्रविन्दु विभूषितम्।।’’ अर्थात् सरस्वती की साधना से कण्ठ से सोलह धारा वाले विशुद्ध शाम्भवी चक्र का उदय होता है जिसका ध्यान करने से वाणी सिद्ध होती है।
इसी को शिवसंहिता में देदीप्यमान स्वर्ण वर्ष कमल की सोलह पंखुड़ियों के रूप में प्रदर्शित किया गया है। इस चंद्र पर ध्यान करने से वाणी सिद्ध होती है। स्वामी अवधेशानन्द जी कहते हैं, ‘‘सरस्वती साधना का यही स्वरूप वाल्मीकि के राम काव्य और व्यास जी के महाभारत सृजन की मूल प्रेरणा बना था।’’ वे बताते हैं कि ब्रह्मवैवर्त पुराण में योगेश्वर श्रीकृष्ण को वसंत अग्रदूत कहा गया है। इस पुराण के अनुसार सर्वप्रथम श्रीकृष्ण ने वसंत पंचमी के दिन ज्ञान व कला की देवी के रूप में मां सरस्वती का पूजन-अर्चन किया था।
विश्व कवि रवींद्रनाथ टैगोर का कहना है, ‘‘हमारे जीवन से असत्य व अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर हमें सही राह पर ले जाने का बीड़ा वीणावादिनी मां ने अपने कंधों पर उठा रखा है। भारत की पवित्र धरती सदियों से विद्यार्जन और विद्यादान की पुण्यभूमि रही है। इसीलिए सभी कलावंत और स्वरसाधक सदियों से अपनी कला का शुभारंभ मां वीणापाणि की आराधना से ही करते हैं। केवल हिंदू ही नहीं, अनेक मुस्लिम संगीतज्ञों ने भी सरस्वती वंदना गाकर भारत की आध्यात्मिक विरासत का गौरवगान मुक्तकंठ से किया है।’’ देश के सरस्वती शिशु मंदिरों तो आज भी प्रतिदिन प्रात:कालीन प्रार्थना के रूप में सरस्वती वंदना का गायन किया जाता है। इतिहास साक्षी है कि कालिदास, वरदराजाचार्य और बोपदेव जैसे मूढ़ बुद्धि बालक माता सरस्वती की कृपा से ही महान विद्वान बने थे।
सरस्वती के सिद्ध मंदिर
उपासना की वैश्विक व्यापकता
मत्स्य पुराण, ब्रह्मवैवर्त पुराण, स्कंदपुराण आदि धर्मग्रंथों में मां सरस्वती की शतरूपा, शारदा, वीणापाणि, वाग्देवी, भारती, वागीश्वरी तथा हंसवाहिनी आदि नामों से महिमा मिलती है। बौद्ध ग्रंथ ‘साधनमाला’ के अनुसार सरस्वती अपने भक्तों को ज्ञान और समृद्धि देती है। तिब्बती धर्म साहित्य में देवी सरस्वती का महासरस्वती, वज्र शारदा, वज्र सरस्वती और वीणा सरस्वती आदि रूपों में वर्णन किया गया है। सरस्वती की आराधना भारत के बाहर नेपाल, श्रीलंका, चीन, थाईलैंड, जापान, इंडोनेशिया, बर्मा (म्यांमार) जैसे देशों में भी विभिन्न रूपों में होती है। प्राचीन ग्रीस (यूनान) के एथेंस नगर की संरक्षक देवी ‘एथेना’ तथा जापान की लोकप्रिय देवी ‘बेंजाइतेन’ को सरस्वती का प्रतिरूप माना जाता है। जापान में देवी ‘बेंजाइतेन’ के कई मंदिर भी हैं।
‘‘हमारे जीवन से असत्य व अज्ञानरूपी अंधकार को दूर कर हमें सही राह पर ले जाने का बीड़ा वीणावादिनी मां ने अपने कंधों पर उठा रखा है। भारत की पवित्र धरती सदियों से विद्यार्जन और विद्यादान की पुण्यभूमि रही है। इसीलिए सभी कलावंत और स्वरसाधक सदियों से अपनी कला का शुभारंभ मां वीणापाणि की आराधना से ही करते हैं। केवल हिंदू ही नहीं, अनेक मुस्लिम संगीतज्ञों ने भी सरस्वती वंदना गाकर भारत की आध्यात्मिक विरासत का गौरवगान मुक्तकंठ से किया है।’’– रवींद्रनाथ टैगोर
प्रतीकों का गहन तत्वदर्शन
मां सरस्वती से जुड़े प्रतीकों में गहरे शिक्षाप्रद सूत्र समाए हुए हैं। चित्रों में मां सरस्वती को कमल पर बैठा दिखाया जाता है। जिस तरह कीचड़ में खिलने वाले कमल को कीचड़ स्पर्श नहीं कर पाती ठीक उसी तरह कमल पर विराजमान मां सरस्वती हमें यह संदेश देना चाहती हैं कि हमें चाहे कितने ही दूषित वातावरण में रहना पड़े, परंतु हमें खुद को इस तरह बनाकर रखना चाहिए कि बुराई हम पर प्रभाव न डाल सके। इसी तरह मां सरस्वती का वाहन हंस नीर-क्षीर विवेक का प्रतीक है, जो हमें जीवन में नकारात्मकता को छोड़कर सदैव सकारात्मकता को ग्रहण करने की प्रेरणा देता है। आपाधापी भरे वर्तमान समाज में मां सरस्वती के तत्वदर्शन को एक विशेष संदर्भ में देखने और समझने की आवश्यकता है। यदि हम दिशाहीनता, विषाद, अवसाद और खिन्नता से मुक्त रहना चाहते हैं तो हमें न केवल ज्ञान की सिद्धि के लिए वरन जीवन को उत्साहपूर्ण बनाए रखने के लिए भी मां सरस्वती की पूजा करनी चाहिए।
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