यह संहिता मुसलमानों के मजहबी मामलों में हस्तक्षेप और इस्लाम के विरुद्ध है। इसके लिए ये लोग तर्क-कुतर्क भी कर रहे हैं। मुख्य कुतर्क यह दिया जाता है कि शरीयत (शरिया लॉ) में सुधार की गुंजाइश ही नहीं है। इसका पालन अनिवार्य है और मुसलमानों के लिए उनका पर्सनल लॉ शरिया लॉ पर आधारित होना चाहिए।
समान नागरिक संहिता का अर्थ है भारत में रहने वाले प्रत्येक नागरिक के लिए एक समान कानून, चाहे वह किसी भी मजहब या पंथ से हो। इसमें शादी, तलाक और जमीन-जायदाद के बंटवारे में सभी मत-पंथ के लोगों के लिए एक ही कानून होगा। इसके बावजूद कुछ मुस्लिम संगठन समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहे हैं। इन संगठनों का कहना है कि यह संहिता मुसलमानों के मजहबी मामलों में हस्तक्षेप और इस्लाम के विरुद्ध है। इसके लिए ये लोग तर्क-कुतर्क भी कर रहे हैं। मुख्य कुतर्क यह दिया जाता है कि शरीयत (शरिया लॉ) में सुधार की गुंजाइश ही नहीं है। इसका पालन अनिवार्य है और मुसलमानों के लिए उनका पर्सनल लॉ शरिया लॉ पर आधारित होना चाहिए।
कुछ लोग ‘सेकुलरवाद’ की दुहाई देकर समान नागरिकता संहिता का विरोध कर रहे हैं। ऐसे में प्रश्न उठता है कि समान नागरिक संहिता लागू करना सेकुलर उसूलों के खिलाफ है या न लागू करना खिलाफ है? क्या यह संवैधानिक मूल्यों की बुनियाद को सशक्त नहीं करता? यदि आपराधिक कानून में समानता है और यह सभी पर लागू होता है तो फिर पर्सनल लॉ में ही मजहब का आधार क्यों है? क्या मजहब की आड़ में अमानवीय और अतार्किक कृत्य नहीं होते? क्या अलग-अलग कानून होना कानून के समक्ष समानता का खुला उल्लंघन नहीं है? स्वतंत्रता, समानता और न्याय जैसे संवैधानिक मूल्यों के आधार पर समान नागरिक संहिता लागू होती है, तो कैसा भय, कैसी चिंता और संशय क्यों?
वर्तमान में हिंदू समाज में लड़की की शादी की उम्र 18 वर्ष है और लड़के की 21 वर्ष है। मुसलमानों में लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र सीमा 9 वर्ष है। इस प्रकार का तर्कहीन अंतर क्यों? समान नागरिक संहिता लागू होने पर ऐसा नहीं होगा और सबकी शादी की उम्र एक समान होगी।
जो लोग समान नागरिक संहिता का विरोध कर रहे हैं, उन्हें पता होना चाहिए कि गोवा में पहले से ही समान नागरिक संहिता लागू है।
दुनिया के 125 देशों में लड़की और लड़के की शादी की उम्र समान है अर्थात् सभी के लिए समान नियम हैं। कुछ देशों में यह 20 या 21 वर्ष है। हमारे यहां पंथनिरपेक्षता पश्चिम की तरह राज्य और मजहब के टकराव एवं तटस्थता पर आधारित नहीं है, बल्कि यह विविधता भरे समाज में सभी मत-पंथों के सहअस्तित्व और बंधुत्व पर आधारित है।
नागरिक संहिता के बारे में संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है, ‘‘राज्य भारत के राज्यक्षेत्र के अंतर्गत निवास करने वाले सभी नागरिकों को सुरक्षित करने के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा।’’ इसलिए समान कानून न बनाना एक प्रकार से संविधान के नियम की भी अवहेलना है। सही मायने में सच्ची पंथनिरपेक्षता तभी अस्तित्व में आएगा जब समान नागरिक संहिता को लागू किया जाएगा।
हमारी पंथनिरपेक्षता इस बात से बंधी है कि राज्य का कोई मजहब नहीं होगा और राज्य सभी मत-पंथ से समानता का व्यवहार करेगा। परंतु जरूरत पड़ने पर राज्य उस अवस्था में हस्तक्षेप कर सकता है जब किसी मजहब की परंपरा या अमानवीय प्रथा से अधिकारों और स्वतंत्रता का उल्लंघन होता है। और यह राज्य की ही जिम्मेदारी है कि बदलते समय के साथ समाज में परिवर्तन करे। ठीक इसी आधार पर मुस्लिम समाज में व्याप्त तीन तलाक प्रथा को असंवैधानिक घोषित कर दिया गया था।
मुसलमान आम तौर पर समान नागरिक संहिता को अपने मजहबी मामलों में हस्तक्षेप के रूप में देखते हैं, पर यह सत्य तब होता जब यह किसी मजहब विशेष के लिए होता या सिर्फ मुसलमानों पर ही लागू होता। संविधान के अनुसार सभी को अपने पंथ का पालन करने का अधिकार तो है परंतु इसके नाम पर अंधविश्वास और आमानवीय प्रथाओं को मानने का अधिकार किसी को नहीं है।
जिन मूल्यों के आधार पर संविधान को स्वीकार किया जाता है, उन्हीं मूल्यों के आधार पर समान नागरिक संहिता को क्यों नहीं स्वीकार किया जा सकता? सर्वधर्म समभाव की अवधारणा के तहत राज्य सभी मत-पंथों के साथ समानता का व्यवहार करते हुए समान नागरिक संहिता को लागू करता है और यह किसी भी मजहब विशेष के खिलाफ नहीं है तो फिर इसे किसी मजहब विशेष में हस्तक्षेप कैसे कहा जा सकता है? राज्य अपने हित के लिए समान नागरिक संहिता को लागू नहीं करेगा, बल्कि वह संवैधानिक कर्तव्य को पूरा करते हुए इसको लागू करेगा। नागरिक संहिता के बारे में संविधान के अनुच्छेद 44 में कहा गया है, ‘‘राज्य भारत के राज्यक्षेत्र के अंतर्गत निवास करने वाले सभी नागरिकों को सुरक्षित करने के लिए एक समान नागरिक संहिता लागू करने का प्रयास करेगा।’’ इसलिए समान कानून न बनाना एक प्रकार से संविधान के नियम की भी अवहेलना है। सही मायने में सच्ची पंथनिरपेक्षता तभी अस्तित्व में आएगा जब समान नागरिक संहिता को लागू किया जाएगा।
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