एक विधान सबका मान

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पाञ्चजन्य ब्यूरो

स्वतंत्रता के बाद संविधान निर्माताओं ने देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान संहिता की परिकल्पना की थी। इसके लिए उन्होंने अनुच्छेद-44 में एक निदेशक सिद्धांत की भी व्यवस्था की। लेकिन पुरखों का सपना सरकारों की वोटबैंक और तुष्टीकरण की राजनीति की भेंट चढ़ता रहा। यहां तक कि सर्वोच्च न्यायालय द्वारा बार-बार समान संहिता बनाने की अपील भी अनसुनी की गई। अब इस दिशा में उत्तराखंड सरकार का कदम उनके सपने को साकार करने जैसा है

‘‘हमारा मानना ​​है कि 5 या 10 साल की अवधि के भीतर भारतीय लोगों को एक समान नागरिक संहिता की गारंटी दी जानी चाहिए, उसी तरह जैसे 10 साल के भीतर खंड 23 द्वारा मुफ्त और अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा के अधिकार की गारंटी दी गई है।’’-मीनू.आर. मसानी, हंसा मेहता और राजकुमारी अमृत कौर (सदस्य, संविधान सभा में मौलिक अधिकारों की उप-समिति)

पचहत्तर वर्ष बाद उत्तराखंड विधानसभा द्वारा 6 फरवरी, 2024 को पारित समान नागरिक संहिता विधेयक इस दिशा में पहला कदम है। अब इसे राज्यपाल और फिर राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए भेजा जाएगा। अगले माह तक इसका गजट नोटिफिकेशन जारी किए जाने की संभावना है। इसके बाद उत्तराखंड देश का पहला राज्य होगा, जिसकी सामाजिक व्यवस्था एक समान कानून के आधार पर चलेगी। भाजपा ने पिछले विधानसभा चुनाव के दौरान उत्तराखंड में समान नागरिक संहिता लागू करने का संकल्प लिया था। मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी ने दोबारा सत्ता में आने के बाद अपने पहले निर्णय में इस कानून को लागू करने की घोषणा की थी। इसके बाद सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति रंजना प्रकाश देसाई की अध्यक्षता में विशेषज्ञ समिति का गठन किया गया। समिति से ड्राफ्ट रिपोर्ट मिलने के बाद इसका विधिक परीक्षण कराया गया। इसके बाद मुख्यमंत्री धामी ने इसे विधानसभा में प्रस्तुत किया, जिस पर चर्चा के बाद विधेयक को मंजूरी मिल गई।

पुरखों का सपना

देहरादून के एक कार्यक्रम में डॉ. राजेन्द्र प्रसाद और जवाहर लाल नेहरू

…. सभी के लिए विवाह और विरासत के समान नियम बनें। ऐसे नियम जनता की राय को ध्यान में रखकर ही बनाए जाने चाहिए। परंपराएं कई रूपों में प्रचलित हैं, इसलिए कोड बिल को सफल बनाने के लिए लोगों को इसका अनुमोदन करना होगा। मेरी भावना इस बात पर मजबूत है कि हम अपने अधिकांश लोगों की पोषित भावनाओं के साथ खिलवाड़ करेंगे और वह भी बिना किसी वारंट या मंजूरी के, सिर्फ इसलिए कि हम कुछ चीजों को सही मानते हैं।
– डॉ. राजेंद्र प्रसाद द्वारा 1951 में जवाहरलाल नेहरू को लिखे पत्र का अंश

मैं व्यक्तिगत रूप से समझ नहीं पा रहा हूं कि किसी मजहब को यह विशाल, व्यापक क्षेत्राधिकार क्यों दिया जाना चाहिए? ऐसे में तो मजहब जीवन के प्रत्येक पक्ष में हस्तक्षेप करेगा और विधायिका को उस क्षेत्र पर अपना प्रभाव दिखाने से रोकेगा। यह स्वतंत्रता हमें क्या करने के लिए मिली है? हमारी सामाजिक व्यवस्था असमानता, भेदभाव और अन्य चीजों से भरी है। यह स्वतंत्रता हमें इसलिए मिली है कि हम इस सामाजिक व्यवस्था में, जहां हमारे मौलिक अधिकारों के साथ विरोध है, वहां-वहां सुधार कर सकें।

– डॉ. भीमराव आंबेडकर

लोकतांत्रिक मूल्यों की होगी रक्षा

भारत अनेक मत-पंथों, संस्कृतियों और परंपराओं वाला एक विविधतापूर्ण देश है। प्रत्येक मत-पंथ के अपने व्यक्तिगत कानून हैं, जो तलाक, भरण-पोषण, विरासत और गोद लेने जैसे मामलों को नियंत्रित करते हैं। ये व्यक्तिगत कानून अक्सर प्राचीन पांथिक किताबों और रीति-रिवाजों पर आधारित होते हैं, जो लोगों की वर्तमान जरूरतों और आकांक्षाओं को प्रतिबिंबित नहीं कर सकते। इसके अलावा, ये व्यक्तिगत कानून भेदभाव और अन्याय पैदा कर सकते हैं, खासकर महिलाओं और बच्चों के लिए, जिन्हें अक्सर उनके अधिकारों और सम्मान से वंचित किया जाता है। इसी के समाधान के लिए लंबे समय से समान नागरिक संहिता की मांग की जा रही है, जो भारत के सभी नागरिकों पर समान रूप से लागू हो। चाहे वह किसी भी मजहब, मत, पंथ, संप्रदाय या जाति के क्यों न हों। यह संहिता लोगों के बीच समानता, न्याय और सद्भाव सुनिश्चित करेगी, संविधान के पंथनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करेगी। विधिक प्रणाली को सरल बनाने के साथ-साथ मुकदमेबाजी और भ्रम को भी कम करेगी।

तब सरदार वल्लभभाई पटेल की अध्यक्षता वाली मौलिक अधिकारों पर उप-समिति के अधिकांश सदस्यों ने समान नागरिक संहिता को शीघ्र लागू करने का प्रस्ताव रखा था। राजकुमारी अमृत कौर ने तो संविधान सभा की सलाहकार समिति को पत्र भी लिखा था, जिसमें यह प्रस्ताव रखा था कि समान नागरिक संहिता को मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए। इसके बाद भी समय-समय पर इसकी मांग उठती रही। शाहबानो सहित कई मुकदमों में सर्वोच्च न्यायालय भी बार-बार समान नागरिक संहिता बनाने की बात कह चुका है। शाहबानो प्रकरण में सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय को पलटने के लिए तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार ने संसद में एक विधेयक पेश किया, तो कम्युनिस्ट पार्टियों ने उसका विरोध किया था। केंद्रीय कानून मंत्री ए.के. सेन द्वारा फरवरी 1986 में पेश विधेयक पर सदन में जो चर्चा हुई, वह महत्वपूर्ण है। विधेयक का विरोध करते हुए 12 बार सांसद रहे भाकपा के इंद्रजीत गुप्ता ने कहा था, ‘‘हम हमेशा तुरंत एक समान नागरिक संहिता लाने में सक्षम नहीं हो सकते हैं। मैं समझता हूं कि कठिनाइयां हैं। लेकिन संविधान कहता है कि राज्य को इसी दिशा में आगे बढ़ना चाहिए, विपरीत दिशा में नहीं। कॉमन सिविल कोड तक पहुंचने में काफी समय लग सकता है। कई कठिनाइयां और बाधाएं आ सकती हैं। लेकिन …..।’’

10 मई, 1995 को सरला मुद्गल बनाम भारत संघ मामले में भी सर्वोच्च न्यायालय ने पी.वी. नरसिंह राव सरकार से अनुच्छेद-44 पर पुनर्विचार करने को कहा था। साथ ही, केंद्र सरकार से अगस्त 1996 तक एक हलफनामा मांगा था, जिसमें यह बताने को कहा था कि समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए क्या कदम उठाए हैं। ऐसा नहीं है कि सभी दलों और वर्गों ने इस विचार का समर्थन ही किया है। इसे विभिन्न वर्गों के विरोध का भी सामना करना पड़ा है। उनका तर्क है कि समान नागरिक संहिता लोगों की पांथिक स्वतंत्रता, पहचान ही नहीं, देश की विविधता और बहुलवाद की भी उपेक्षा करेगी। उन्हें यह डर भी है कि यह बहुसंख्यक समुदाय से प्रभावित होगी और ‘अल्पसंख्यकों’ के अधिकारों को कमजोर कर देगी।

कॉमन सिविल कोड क्या है?

यह कानूनों का एक समूह है, जो भारत के सभी नागरिकों के नागरिक मामलों को नियंत्रित करेगा, चाहे उनका मत-पंथ कुछ भी हो। नागरिक मामलों में विवाह, तलाक, भरण-पोषण, विरासत और गोद लेने जैसे व्यक्तिगत मुद्दे शामिल हैं। यह मौजूदा व्यक्तिगत कानूनों की जगह लेगा, जो विभिन्न पांथिक सिद्धांतों और प्रथाओं पर आधारित हैं। इसकी परिकल्पना संविधान निर्माताओं द्वारा की गई है, जिसे उन्होंने संविधान के अनुच्छेद-44 में राज्य के एक नीति निदेशक सिद्धांत के रूप में शामिल किया है। यह एक दिशा-निर्देश है, जिसका पालन राज्य को लोगों के कल्याण के लिए कानून और नीतियां बनाते समय करना चाहिए। अनुच्छेद-44 में कहा गया है कि ‘‘राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।’’ हालांकि, निदेशक सिद्धांत कानूनी रूप से बाध्यकारी या अदालतों द्वारा लागू करने योग्य नहीं है। इसे राज्य के विवेक पर छोड़ा गया है कि वह मौजूदा परिस्थितियों और सार्वजनिक हित के अनुसार इसे लागू करे। इसलिए संवैधानिक आकांक्षा होने के बावजूद भारत में अब तक समान नागरिक संहिता को अधिनियमित या कार्यान्वित नहीं किया गया है।

क्यों पड़ी आवश्यकता?

समान नागरिक संहिता के पक्ष में कई तर्क हैं। इनमें प्रमुख हैं-

  • यह सभी नागरिकों, विशेषकर महिलाओं-बच्चों के लिए समानता और न्याय सुनिश्चित करेगी, जिन्हें अक्सर विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों के तहत भेदभाव और उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है। उदाहरण के लिए, कुछ व्यक्तिगत कानून बहुविवाह, एकतरफा तलाक, असमान विरासत और बाल विवाह की अनुमति देते हैं, जो महिलाओं-बच्चों के मानवाधिकारों और गरिमा का उल्लंघन है। समान नागरिक संहिता उन्हें नागरिक मामलों में समान अधिकार और उपचार प्रदान कर उनकी रक्षा करेगी तथा उन्हें सशक्त बनाएगी।
  • यह विभिन्न पांथिक और संस्कृतियों के लोगों के बीच राष्ट्रीय एकता, सद्भाव, समान नागरिकता और पहचान की भावना को बढ़ावा देगी तथा सांप्रदायिक संघर्ष व हिंसा को कम करेगी। साथ ही, देश के पंथनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूत करेगी और राजनीतिक व व्यक्तिगत लाभ के लिए पांथिक दुरुपयोग को भी रोकेगी।
  • यह कानूनी प्रणाली को सरल, तर्कसंगत तथा इसे लोगों के लिए अधिक सुलभ और कुशल बनाएगी। यह व्यक्तिगत कानूनों की बहुलता, विभिन्न अदालतों और प्राधिकारियों द्वारा उनकी व्याख्याओं के कारण होने वाली जटिलता और भ्रम को कम करेगी। इससे नागरिक मामलों में अनावश्यक मुकदमेबाजी और विवादों से बचकर लोगों और राज्य के समय, धन और संसाधनों की भी बचत होगी।

सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणियां

  • समान नागरिक संहिता के मुद्दे पर देश में दशकों से बहस और चर्चा होती रही है। विधि आयोग, राष्ट्रीय महिला आयोग, सच्चर समिति और रंगनाथ मिश्र आयोग जैसे विभिन्न आयोगों, समितियों और रिपोर्टों में भी इस मुद्दे को उठाया और संबोधित किया गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी राज्य से अपने संवैधानिक दायित्व और कर्तव्य को पूरा करने के लिए बार-बार समान कानून बनाने का आग्रह किया है। कुछ ऐतिहासिक मामलों में तो सर्वोच्च न्यायालय ने इस पर अपनी राय और विचार भी व्यक्त किए हैं।
  • केशवानंद भारती प्रकरण (1973) : सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था, ‘‘अनुच्छेद-44 में कहा गया है कि राज्य पूरे भारत में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा। वांछनीय यह है कि सरकार इस लक्ष्य की प्राप्ति की दिशा में कोई प्रभावी कदम नहीं उठा पाई है। जाहिर है, कोई भी अदालत सरकार को समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए मजबूर नहीं कर सकती, भले ही यह देश की अखंडता और एकता के हित में अनिवार्य रूप से वांछनीय हो।’’
  • शाहबानो प्रकरण (1985): सर्वोच्च न्यायालय ने एक तलाकशुदा मुस्लिम महिला द्वारा पति से हर महीने गुजारा भत्ता मांगने के अधिकार को पंथनिरपेक्ष कानून के तहत बरकरार रखा, न कि पर्सनल लॉ के तहत। शीर्ष अदालत ने यह भी देखा कि ‘‘एक समान नागरिक संहिता उन कानूनों के प्रति असमान निष्ठाओं को हटाकर राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य में मदद करेगी, जिनमें परस्पर विरोधी विचारधाराएं हैं।’’
  • जॉर्डन डिएंगदेह बनाम एस.एस. चोपड़ा प्रकरण (1985) : इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय दिया, ‘‘अब समय आ गया है कि विधायिका के हस्तक्षेप से अनुच्छेद-44 के अनुसार विवाह और तलाक के लिए एक समान नागरिक संहिता प्रदान की जाए और उन दुखी स्थितियों से बाहर निकलने के लिए कानून का प्रावधान किया जाए, जिनमें युगल खुद को पाते हैं। सभी मामलों में तलाक के आधार के रूप में विवाह के अपूरणीय विच्छेद और आपसी सहमति को शामिल करना आवश्यक है।’’
  • सरला मुद्गल प्रकरण (1995): शीर्ष अदालत ने माना कि एक हिंदू पुरुष हिंदू कानून के तहत अपनी पहली शादी को खत्म किए बिना न इस्लाम में कन्वर्ट हो सकता है और न किसी अन्य महिला से शादी कर सकता है। यह भी कहा है कि ‘‘हम संविधान के अनुच्छेद-44 में निहित निर्देशों को लागू करने में मौजूदा सरकार की कठिनाइयों को समझते हैं। लेकिन कानून किसी भी व्यक्तिगत नागरिक की तुलना में सरकार के लिए कम बाध्यकारी नहीं है। यदि संविधान का कोई अर्थ रखना है तो एक शुरुआत करनी होगी।’’
  • जॉन वल्लामट्टम प्रकरण (2003): शीर्ष अदालत ने भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम के उस प्रावधान को रद्द कर दिया, जो वसीयतनामा स्वभाव के मामलों में ईसाई समुदाय के खिलाफ भेदभाव करता था। यह टिप्पणी भी की कि ‘‘यह अफसोस की बात है कि संविधान के अनुच्छेद-44 को प्रभावी नहीं बनाया गया है। संसद को अभी भी देश में एक समान नागरिक संहिता तैयार करने के लिए कदम उठाना है।’’
  • शायरा बानो प्रकरण (2017): सर्वोच्च न्यायालय ने मुसलमानों में प्रचलित तीन तलाक की प्रथा को असंवैधानिक और अमान्य घोषित कर दिया। उसने अपने निर्णय में यह भी कहा कि ‘‘समान नागरिक संहिता का निर्णय एक ऐसा निर्णय है, जिसे संसद द्वारा लिया जाना है और हमें उम्मीद है कि इस संबंध में संसद निर्णय लेते समय राष्ट्र के सर्वोत्तम हित और नागरिकों के अधिकारों को ध्यान में रखेगी।’’
  • 1973 में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश न्यायमूर्ति एम.एच. बेग ने बहुविवाह प्रथा पर प्रतिबंध लगाने और तलाक के मामलों में न्यायिक हस्तक्षेप की सिफारिश की थी। मार्च 1973 में केरल उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति वी.के. खालिद ने भी मुसलमानों से महिलाओं के अधिकारों की दिशा में सुधारों पर ध्यान देने का अनुरोध किया था।

मुद्दे का राजनीतिकरण

विभिन्न राजनीतिक दलों और समूहों ने समान नागरिक संहिता मुद्दे का राजनीतिकरण व ध्रुवीकरण किया है। इन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों से वोट और समर्थन हासिल करने या खोने के लिए एक उपकरण के तौर पर इसका इस्तेमाल किया है। वहीं, कुछ राजनीतिक दल समान नागरिक संहिता की वकालत और समर्थन करते हैं। बदलते सामाजिक-आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्यों तथा लोगों, विशेषकर महिलाओं व युवाओं की बढ़ती आकांक्षाओं एवं जागरुकता से भी यह मुद्दा प्रभावित हुआ है। इस लिहाज से यह मुद्दा जटिल और विवादास्पद है, जिसके लिए संतुलित और व्यावहारिक दृष्टिकोण की आवश्यकता है। यह केवल एक समान कानून लागू करने का नहीं, बल्कि एक समान न्याय सुनिश्ति करने का मामला है। यह विविधता को मिटाने का नहीं, बल्कि समानता को अपनाने का मामला है। यह भावनाओं को ठेस पहुंचाने का नहीं, बल्कि अधिकारों के सम्मान का मामला है। यह देश को बांटने का नहीं, बल्कि लोगों को जोड़ने का मामला है।

यह संहिता भारत के लिए एक संभावना और आवश्यकता है, तो एक चुनौती और जिम्मेदारी भी है। संभावना इसलिए कि यह एक संवैधानिक आदेश और न्यायिक निर्देश है। यह आवश्यकता है, क्योंकि यह एक सामाजिक मांग और मानवाधिकार है। चुनौती इसलिए है कि यह राजनीतिक मुद्दा और पांथिक चिंता का विषय है। यह एक जिम्मेदारी है, क्योंकि यह एक राष्ट्रीय कर्तव्य और नैतिक दायित्व है।
भारत में समान संहिता को हासिल और कार्यान्वित करने के लिए पंथनिरपेक्ष व लोकतांत्रिक भारत के दृष्टिकोण की आवश्यकता है, जहां लोग कानून के शासन द्वारा शासित हों, न कि पांथिक कानून द्वारा। इसके लिए एक प्रगतिशील और समावेशी भारत के मिशन की आवश्यकता है, जहां लोग नागरिकता के अधिकारों से सशक्त हों, न कि पांथिक संस्कारों से। यह सामाजिक न्याय के साथ राष्ट्रीय एकता की दिशा में भी एक कदम है। ऐसा कदम, जो भारत को अधिक एकजुट और सामंजस्यपूर्ण देश बना सकता है, जहां लोग सम्मान के साथ रहते हैं, अपनी विविधता को सिर-माथे रखते हैं और अपनी समानता को संजोते हैं।

संसद में कब-कब उठी मांग

  • 11 मई, 1962 को कांग्रेस की राज्यसभा सांसद सीता परमानंद ने ‘देश के लिए समान नागरिक संहिता’ शीर्षक से निजी विधेयक पेश किया।
  • 29 जुलाई, 1986 को केंद्रीय कानून मंत्री एच.आर. भारद्वाज ने कहा था कि सरकार समान नागरिक संहिता के प्रस्ताव को आगे बढ़ाने के लिए तेजी से प्रयास कर रही है।
  • 6 अगस्त, 1993 को भाजपा सांसद सुमित्रा महाजन ने भी समान नागरिक संहिता बनाने के लिए लोकसभा में एक विधेयक पेश किया था।
  • 9 दिसंबर, 2022 में भाजपा सांसद किरोड़ी लाल मीणा ने राज्यसभा में समान नागरिक संहिता के पक्ष में एक विधेयक पेश कर राष्ट्रीय निरीक्षण जांच आयोग गठित करने की मांग की थी।

इन देशों में कानून है लागू

दुनिया के अधिकांश देशों में समान नागरिक संहिता लागू हैं। इनमें प्रमुख देश हैं- अमेरिका, आयरलैंड, फ्रांस, जर्मनी, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मलेशिया, तुर्किए, इंडोनेशिया, सूडान, मिस्र, रूस, इस्राएल और जापान।

पांथिक रीति-रिवाजों को खतरा नहीं

समान नागरिक संहिता से किसी भी मत, मजहब, पंथ और संप्रदाय के रीति-रिवाजों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। समान नागरिक संहिता के विरोध में इसी एक बिंदु को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। मुसलमानों के ‘निकाह’, सिखों के ‘आनंद कारज’, हिंदुओं के अग्नि के समक्ष फेरे और ईसाइयों के ह्यऌङ्म’८ ें३१्रेङ्मल्ल८ह्ण इत्यादि वैवाहिक रीति-रिवाज उनकी अपनी-अपनी मान्यताओं के अनुसार ही होंगे। समान नागरिक संहिता का उद्देश्य देश में विभिन्न पांथिक समुदायों के व्यक्तिगत कानूनों को एकजुट करना है। लेकिन तर्क दिया जाता है कि यह विविध संस्कृतियों और परंपराओं को प्रभावित करेगी। हालांकि, विशेषज्ञों और कानूनी विद्वानों ने स्पष्ट किया है कि यह संहिता वनवासी समुदायों के रीति-रिवाजों और परंपराओं को भी प्रभावित नहीं करेगी, जो विशेष संवैधानिक और कानूनी सुरक्षा के दायरे में आते हैं।

सामाजिक-राजनीतिक प्रयास

  • 1967 में भारतीय जनसंघ ने अपने घोषणापत्र में वादा किया था कि अगर वह सत्ता में आई तो कॉमन सिविल कोड पारित करेगी। जनसंघ ने विवाह, गोद लेने, उत्तराधिकार जैसे मुद्दों पर यह कानून बनाने की बात कही थी।
  • 1972 में पुणे में शरीफा तैयबजी की अध्यक्षता में आयोजित महाराष्ट्र मुस्लिम महिला सम्मेलन में देश के विभिन्न हिस्सों से आई लगभग 150 महिलाओं ने अपने मौलिक अधिकारों की मांग उठाने के साथ समान नागरिक संहिता का समर्थन भी किया।
  • 1974 में छह मुस्लिमों का एक प्रतिनिधिमंडल तत्कालीन राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद से मिलकर देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान संहिता बनाने की मांग की।
  • 14 मई, 1993 को महाराष्ट्र में कांगे्रस के मुख्यमंत्री शरद पवार ने तत्कालीन केंद्रीय गृहमंत्री एस.बी. चव्हाण को पत्र लिखकर कहा था कि राज्य विधान परिषद कॉमन सिविल कोड के पक्ष में है।
  • 4 अगस्त, 1995 को माकपा महासचिव हरकिशन सिंह सुरजीत ने कहा कहा था कि उनकी राजनीतिक पार्टी सामान्य नागरिक संहिता का समर्थन करती है।
  • 1995 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल ने समान नागरिक संहिता के पक्ष में एक प्रस्ताव पारित किया था।
  • 1996, 1998, 2004 और 2009 में भाजपा ने अपने घोषणापत्रों में समान नागरिक संहिता पर आम सहमति बनाने और इसे लागू करने का वादा किया था।
  • 10 जनवरी, 2000 को अमदाबाद में आयोजित संकल्प शिविर में रा.स्व.संघ के तत्कालीन सरकार्यवाह एच.वी. शेषाद्रि ने कहा था कि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णयों को समान नागरिक संहिता के संदर्भ में लागू किया जाना चाहिए।

दिल्ली स्थित नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी में कानून के प्रोफेसर डॉ. रमेश कुमार के अनुसार, समान नागरिक संहिता केवल विवाह, तलाक, गोद लेने, विरासत और उत्तराधिकार जैसे मामलों से निपटेगी, जो वर्तमान में विभिन्न व्यक्तिगत कानूनों द्वारा शासित होते हैं। जनजातीय समुदायों के अपने प्रथागत कानून हैं, जो संविधान और संसद द्वारा मान्यता प्राप्त हैं। यह संहिता इन कानूनों पर हावी नहीं होगी या उन्हें खत्म नहीं करेगी। भारत के संविधान ने जनजातीय समुदायों के अधिकारों और हितों की रक्षा के लिए कई प्रावधान किए हैं, खासकर उन क्षेत्रों में जहां वे केंद्रित हैं। इनमें प्रमुख हैं-

अनुच्छेद 371(ए) और अनुच्छेद 371(जी)- ये क्रमश: नागालैंड और मिजोरम को विशेष दर्जा देते हैं और राज्य विधानसभाओं को नागाओं और मिजोस की पांथिक व सामाजिक प्रथाओं पर कानून बनाने का अधिकार देते हैं।

अनुच्छेद 338(ए)- इसके अंतर्गत स्थापित राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग एक संवैधानिक निकाय है, जो जनजातीय समुदाय के कल्याण और विकास की सिफारिश करता है तथा उसकी निगरानी करता है।

अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वन निवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 – यह कानून वन निवासी जनजातीय समुदायों और अन्य पारंपरिक वनवासियों के वन संसाधन संबंधी उन अधिकारों को मान्यता प्रदान करता है, जिन पर ये समुदाय विभिन्न प्रकार की जरूरतों के लिए निर्भर हैं। इनमें आजीविका, निवास और अन्य सामाजिक-सांस्कृतिक आवश्यकताएं शामिल हैं।

संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची- ये अनुसूचित क्षेत्रों और अनुसूचित जनजातियों के प्रशासन व नियंत्रण से संबंधित हैं। इन क्षेत्रों का प्रशासन क्रमश: जनजातीय सलाहकार परिषदों और स्वायत्त जिला परिषदों द्वारा किया जाता है। पांचवीं अनुसूची में असम, त्रिपुरा, मेघालय और मिजोरम को छोड़कर 10 राज्य शामिल हैं, जबकि छठी अनुसूची में पूर्वोत्तर के चार राज्य असम, त्रिपुरा, मेघालय व मिजोरम शामिल हैं।

संविधान की सातवीं अनुसूची- यह राज्यों और संघ के बीच अधिकारों को पारिभाषित करती है। इसकी समवर्ती सूची में विवाह-तलाक, शिशु-नाबालिग, गोद लेना, वसीयत, वसीयत-उत्तराधिकार, अविभाजित परिवार-विभाजन जैसे विषय शामिल हैं। अत: संविधान में निहित राज्य के नीति-निदेशक सिद्धांतों, प्रस्तावना एवं मौलिक अधिकारों के आधार पर नागरिकों को समान नागरिक संहिता से वंचित नहीं किया जा सकता है। इन विषयों पर कानून बनाए जा सकते हैं।

हिंदू कोड बिल- इसे 1950 के दशक में अधिनियमित किया गया था। इसमें चार अधिनियम हैं, जो हिंदुओं के व्यक्तिगत कानूनों को संहिताबद्ध करते हैं। हालांकि, ये अधिनियम स्पष्ट रूप से अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों को उनके आवेदन से बाहर रखते हैं, जब तक कि केंद्र सरकार अन्यथा निर्देश न दे।

क्या थी संविधान सभा की राय?

डॉ. कुमार बताते हैं कि संविधान निर्माताओं की इच्छा थी कि अलग-अलग मत-पंथों के लिए अलग-अलग कानून बनाने के बजाए सभी नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता बने, जो पंथ, जाति, भाषा, क्षेत्र और लिंग निरपेक्ष हो। अनुच्छेद-44 पर चर्चा के दौरान बाबासाहेब आंबेडकर ने सामान्य नागरिक संहिता के पक्ष में कहा था, ‘‘केवल विवाह और उत्तराधिकार ऐसे क्षेत्र थे, जो सामान्य नागरिक संहिता के दायरे में नहीं आते। संविधान के अनुच्छेद-44 को लागू करने वालों का इरादा इस तरह का बदलाव लाना था। (जस्टिस ए. एम. भट्टाचार्जी, मुस्लिम कानून और संविधान, पृष्ठ-169)

संविधान सभा के सदस्य के.एम. मुंशी ने कहा था, ‘‘एक और तर्क दिया गया है कि नागरिक संहिता का अधिनियमन अल्पसंख्यकों के लिए अत्याचारी होगा। क्या यह अत्याचारी है? उन्नत मुस्लिम देशों में कहीं भी प्रत्येक अल्पसंख्यक के व्यक्तिगत कानून को नागरिक संहिता के अधिनियम को रोकने के लिए पवित्र नहीं माना गया है… ऐसा कोई नहीं है। पूरे भारत में समान नागरिक संहिता क्यों नहीं होनी चाहिए? … एक महत्वपूर्ण विचार है, जिसे हमें ध्यान में रखना होगा और मैं चाहता हूं कि मेरे मुस्लिम मित्र यह महसूस करें कि जितनी जल्दी हम जीवन के प्रति इस अलगाववादी दृष्टिकोण को भूल जाएंगे, उतना ही अच्छा होगा। देश के लिए बेहतर बनें।’’
अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर का कहना था, ‘‘दूसरी आपत्ति यह थी कि मजहब खतरे में है। यदि समान नागरिक संहिता होनी है तो समुदाय सौहार्दपूर्ण ढंग से नहीं रह सकते। यह सौहार्द को नष्ट नहीं करता है। ऐसा नहीं है कि एक कानूनी प्रणाली किसी अन्य कानूनी प्रणाली को प्रभावित नहीं कर रही है या उससे प्रभावित नहीं हो रही है … इसलिए कोई भी प्रणाली आत्मनिर्भर नहीं हो सकती है, अगर उसमें विकास के तत्व हों। हमेशा अतीत से चिपके रहने का कोई फायदा नहीं है। हम एक महत्वपूर्ण बात के संबंध में अतीत से दूर जा रहे हैं, अर्थात् हम चाहते हैं कि संपूर्ण भारत एक राष्ट्र के रूप में संगठित और एकजुट हों।’’

9 अप्रैल, 1948 को रोहिणी कुमार चौधरी ने संविधान सभा में हिंदू कोड का प्रस्ताव करते हुए कहा था, ‘‘विरासत के लिए सांप्रदायिक कानून और विवाह के सांप्रदायिक कानून नहीं होने चाहिए, बल्कि एक समान नागरिक संहिता होनी चाहिए, जो सभी समुदायों और सभी वर्गों पर लागू हो। वास्तव में यदि यह मत, पंथ या जाति के आधार पर बिना किसी भेदभाव के सभी नागरिकों पर लागू होता है, तो मैं इसका समर्थन करता हूं।’’ जब संविधान सभा ने सांप्रदायिक चुनाव/विधानमंडल में सीटों का आरक्षण/मजहब के आधार पर अलग व्याख्या समाप्त कर दी, उस समय सी.सुब्रमण्यम, जसपत राय कपूर और हंसा मेहता ने कॉमन सिविल कोड के पक्ष में बयान दिए थे। 22 नवंबर, 1949 को हंसा मेहता ने स्पष्ट रूप से कहा था, ‘‘अगर हम एक राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं तो यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हमारे पास एक समान नागरिक संहिता हो।’’ इसके बाद 24 नवंबर, 1949 को एथानु पिल्लई ने संविधान सभा में कहा, ‘‘यदि आप भारत के लिए एक समान नागरिक संहिता प्रदान करना चाहते हैं, तो वह जीवन की आधुनिक उन्नत अवधारणाओं के अनुरूप होनी चाहिए। हमारी महिलाएं स्वतंत्र हैं, हमारे विवाह कानून सामाजिक अस्तित्व की नवीनतम अवधारणाओं के अनुरूप हैं।’’
14 दिसंबर, 1949 को संविधान सभा में हिंदू कोड पर चर्चा के दौरान वी.आई. मुनीस्वामी पिल्लई ने भी कहा था, ‘‘संविधान में हमने कहा है कि हमें समान नागरिक संहिता विकसित करनी होगी।’’ कुछ वर्ष बाद 5 फरवरी, 1951 को जब प्रोविजनल पार्लियामेंट में हिंदू कोड पर चर्चा हुई, तब भी कई सदस्यों ने कॉमन सिविल कोड के पक्ष में मतदान किया था। इसमें विनायक सीतारमण सरवटे, इंद्र विद्यावाचस्पति और जे.आर. कपूर जैसे नाम प्रमुख थे। फिर 7 फरवरी 1951 को उसी हिंदू कोड पर चर्चा के दौरान सेठ गोविंद दास ने भी कॉमन सिविल कोड का समर्थन किया।

 

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