Razakar: The Silent Genocide of Hyderabad : ‘रजाकार द साइलेंट जेनोसाइड ऑफ हैदराबाद’ फिल्म कितनी मर्मस्पर्शी होगी, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। फिर भी, वर्तमान और भावी पीढ़ियों को हैदराबाद मुक्ति संघर्ष के बारे में जानकारी देने का यह एक गंभीर प्रयास नजर आता है। हैदराबाद मुक्ति संघर्ष उस इतिहास से जुड़ा है, जिसे छद्म बुद्धिजीवियों ने मिटाने की कोशिश की है, और आज भी कर रहे हैं।
जानकारों का कहना है कि यह फिल्म द कश्मीर फाइल्स और द केरला स्टोरी के भी रिकॉर्ड तोड़ने की क्षमता रखती है। यह फिल्म उस अनकहे नरसंहार और अत्याचार का विवरण प्रस्तुत करती है, जिसमें हैदराबाद में रजाकारों द्वारा 40,000 से अधिक हिंदुओं की हत्या कर दी गई थी। रजाकार हैदराबाद में निजाम के शासन के तहत 1938 में गठित और सक्रिय किया गया एक अर्धसैनिक गिरोह था, जिसकी पहचान ही हिन्दुओं के प्रति भारी क्रूरता की थी। इसकी रणनीति भी बेहद क्रूर होती थी। रजाकारों ने स्वतंत्र भारत में हैदराबाद के एकीकरण का हिंसक विरोध किया था। अलीगढ़-शिक्षित कासिम रजवी के नेतृत्व में रजाकारों का काफी विस्तार हुआ।
पूर्ववर्ती हैदराबाद राज्य में वर्तमान तेलंगाना और वर्तमान महाराष्ट्र और कर्नाटक के कुछ हिस्से शामिल थे। भारत को स्वतंत्रता मिलने के लगभग 13 महीने बाद 17 सितंबर, 1948 को हैदराबाद भारत में शामिल हो सका। इसके बाद निजाम की सेना के विरुद्ध आपरेशन पोलो नामक एक भारतीय सैन्य अभियान चलाना पड़ा था।
रजाकार फिल्म वास्तव में अपने समय से आधी सदी की देरी से आ रही है, लेकिन फिर भी यह ऐतिहासिक विषयों पर आधारित भारतीय सिनेमा में एक स्वागत योग्य योगदान है। इस विषय पर बनी फिल्म कैसी होगी, यह देखना बहुत महत्वपूर्ण होगा। रजाकार निजाम का कट्टरपंथी दस्ता था, जिसने व्यापक हिंदू-विरोधी आतंक फैला रखा था। अगर फिल्म उसका ठीक चित्रण करती है, तो यह किसी वृत्तचित्र से ज्यादा बड़ी बात होगी। इसका विपरीत भी उतना ही सही है। किसी ऐतिहासिक घटना पर वास्तव में अच्छी तरह से बनाई गई डॉक्यूमेंट्री भी साहित्यिक और नाटकीय तत्वों में किसी फिल्म से कम नहीं हो सकती।
हैदराबाद की मुक्ति की कहानी भी वही परिचित ऐतिहासिक घटना है, जो मुहम्मद बिन कासिम के आक्रमण के साथ भारतवर्ष तक पहुंची मानसिकता में निहित है, जो मुगल शासन के दौरान ठोस रूप लेती गई और जिसने 20वीं शताब्दी में अंतत: पाकिस्तान का निर्माण कराया। पाकिस्तान विश्व की एकमात्र ऐसी इस्लामिक हुकूमत है, जिसका निर्माण किसी पारंपरिक युद्ध से नहीं, बल्कि सड़कों पर की गई हिंसा के माध्यम से किया गया था। वास्तव में पाकिस्तान की स्थापना हो जाने के कारण निजाम को लगने लगा था कि वह भी अपने लिए दक्षिण (दक्खन) में एक पाकिस्तान बना सकता है।
हैदराबाद रियासत को 1 नवंबर, 1956 को पूरी तरह से भंग कर दिया गया था। निजाम की इस जर्जर ‘हुकूमत’ की समाप्ति आधिकारिक तौर पर के.एम. मुंशी के हाथों हुई थी। के.एम. मुंशी का एक ऐतिहासिक उद्धरण है: ‘दीर्घकालिक दृष्टिकोण से, हैदराबाद का पतन भारत के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी, क्योंकि निजाम का शासन आखिरी और मुगल साम्राज्य का सबसे घिसा-पिटा अवशेष था।’ अपेक्षा की जाती है कि फिल्म में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी की समझदारी को भी प्रशंसा के साथ प्रस्तुत किया गया होगा। मुंशी हैदराबाद रियासत में भारत के ट्रेड एजेंट (एजेंट-जनरल) के रूप में तैनात थे। वी.पी. मेनन की पुस्तक ‘इंटीग्रेशन आफ द इंडियन स्टेटस’ में के.एम. मुंशी की चतुराई के संबंध में कहा गया है-
‘स्टैंडस्टिल समझौते के अनुच्छेद दो के अनुसार (जिस पर नई दिल्ली के साथ निजाम ने हस्ताक्षर किए थे) भारत सरकार ने के.एम. मुंशी को हैदराबाद में अपना एजेंट-जनरल नियुक्त किया। तब मैं मुंशी को ठीक से नहीं जानता था; लेकिन 1937 से 1939 तक बंबई में गृह मंत्री के रूप में उन्होंने जिस तरह से सांप्रदायिक स्थिति को संभाला था, उससे मैं विशेष रूप से प्रभावित हुआ था। जब हमने हैदराबाद सरकार को मुंशी की नियुक्ति की सूचना दी, तो निजाम ने कुछ शर्तें रखीं। सबसे पहले वह यह चाहते थे कि मुंशी एक ट्रेड एजेंट से ज्यादा कुछ न रहें।
मैंने लाइक अली (जिन्हें कासिम रिजवी की सलाह पर निजाम ने अपनी कार्यकारी परिषद का अध्यक्ष नियुक्त किया था) को जवाब दिया और उनका ध्यान समझौते के अनुच्छेद दो की ओर आकर्षित किया जिसके तहत एजेंट-जनरल के कार्य निश्चित रूप से व्यापार तक ही सीमित नहीं थे। मुंशी के लिए हैदराबाद में जो आवास उपलब्ध कराया जाना था, उसके सवाल पर एक मामूली लेकिन फिर भी महत्वपूर्ण विवाद खड़ा हो गया। जब तक मुंशी को कहीं और आवास नहीं मिल जाता, तब तक के लिए निजाम ने उन्हें अस्थायी रूप से भी हैदराबाद में आवास देने से इनकार कर दिया। अंतत: भारतीय सेना की दो इमारतों को मुंशी और उनके कर्मचारियों को सौंप दिया गया।’
मुंशी की भूमिका बहुत नाजुक और कठिन थी। जबकि दिल्ली में निजाम के एजेंट-जनरल (नवाब जैन यार जंग) के साथ भारत सरकार के संबंध सौहार्दपूर्ण थे। हैदराबाद सरकार द्वारा मुंशी के साथ निश्चित रूप से शत्रुतापूर्ण व्यवहार किया गया था और उनके साथ उनके संबंध बेहद तनावपूर्ण थे। हैदराबाद सरकार जिस संदेह के साथ उन्हें देखती थी, उसके कारण वह वस्तुत: अपने ही घर में एक कैदी थे। अपनी जान जोखिम में डालकर भी मुंशी तत्कालीन केंद्रीय गृह मंत्री सरदार पटेल को हैदराबाद राज्य की हरकतों से अवगत कराते रहे। मुंशी द्वारा दी गई जानकारी इस पुस्तक में संक्षेप में उद्धृत की गई है-
‘रजाकारों के समर्थन से, हैदराबाद में सत्तारूढ़ गुट अब लड़ाकू मूड में था। मुझे बताया गया कि निजाम के सलाहकारों ने उन्हें आश्वासन दिया था कि यदि भारत ने किसी भी आर्थिक नाकेबंदी का सहारा लिया तो उसके प्रभावी होने की संभावना नहीं है, क्योंकि हैदराबाद अगले कुछ महीनों तक आसानी से अपने पैरों पर खड़ा रह सकता है, इस दौरान विश्व जनमत को इसके पक्ष में लामबंद किया जा सकता है।
भारत को बहुत कमजोर और अभी या किसी भी समय सैन्य कार्रवाई करने में असमर्थ बताया गया। यह कहा गया कि सभी मुस्लिम देश हैदराबाद के मित्र हैं और उसके विरुद्ध कोई सैन्य कार्रवाई नहीं होने देंगे। हैदराबाद रेडियो ने यहां तक घोषणा कर दी कि यदि हैदराबाद के विरुद्ध युद्ध हुआ तो हजारों की संख्या में पठान भारत में मार्च करेंगे… कासिम रजवी ने, जो हैदराबाद हुकूमत पर हावी दिखते हैं, स्पष्ट रूप से कहा कि यदि भारतीय राज्य हैदराबाद में आता है तो उसे डेढ़ करोड़ हिंदुओं की हड्डियों और राख के अलावा यहां कुछ भी नहीं मिलेगा… ’
मुंशी द्वारा प्रदान की गई सटीक सूचनाओं के आधार पर ही सरदार पटेल ने अंतत: ‘आपरेशन पोलो’ का खाका तैयार करने और उसे हरी झंडी देने का साहसिक निर्णय लिया। प्रक्रिया को सफल बनाने में मुंशी की अतिशय सावधानी को स्वयं सरदार पटेल ने स्वीकार किया था –
सरदार पटेल ने कहा था- ‘सरकार की ओर से, मैं कहना चाहता हूं कि हम सार्वजनिक कर्तव्य की उस उच्च भावना के प्रति गहराई से सचेत हैं जिसने आपको इस दायित्व को स्वीकार करने के लिए प्रेरित किया और जिस सक्षम तरीके से आपने सौंपे गए कर्तव्यों का निर्वहन किया, उसका अंतिम परिणाम में कोई छोटा योगदान नहीं था।’ के.एम. मुंशी जैसे लोगों द्वारा अपने प्राण जोखिम में डालकर किए गए कार्यों के कारण ही आज हैदराबाद भारत के मानचित्र में है।
निजाम हर दृष्टि से अंग्रेजों का लाड़ला था। ईस्ट इंडिया कंपनी और बाद में शाही ब्रिटिश हुकूमत ने निजाम का इस्तेमाल अपने विध्वंसक उद्देश्यों के लिए किया। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के बाद, ब्रिटिश राजशाही ने निजाम को इसलिए सत्ता में पाले रखा, ताकि अगर फिर देशव्यापी विद्रोह हो, तो निजाम सैनिक ताकत का एक संभावित स्रोत बन सके। बाद में निजाम ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे बड़ा चाटुकार बन गया था। इसके साथ ही वह भारतीय राष्ट्रवाद का और स्वतंत्रता के प्रयासों का धुर विरोधी भी था। निजाम का हैदराबाद इसलिए बचा रहा था, क्योंकि ब्रिटिश शासक उसे बनाए रखना चाहते थे, हालांकि हैदराबाद के लोगों को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी।
हिंदू बहुसंख्यकों पर अत्याचार
हर व्यावहारिक मानदंड पर, निजाम घराना ब्रिटिश कठपुतली था, लेकिन वह एक ऐसी घातक कठपुतली था, जो अपनी इच्छा पूरी करने के लिए स्वतंत्र था। इसी कारण वहां एक ऐसा कथित ‘साम्राज्य’ बाकी था, जिसमें छोटे से मुस्लिम अल्पसंख्यक शासन का अपनी हिंदू बहुसंख्यक आबादी पर पूरी तरह निरंकुश राज था। निजाम के पास एक स्थायी सेना थी, एक पुलिस बल था, एक अर्ध-स्वतंत्र अर्थव्यवस्था थी। पूरा प्रशासनिक तंत्र उसके अधीन था। लगभग सभी निजामों ने अपनी हिंदू प्रजा को आतंकित करने के लिए हर संभव तरीके से इस मशीनरी का उपयोग किया। इसी दमनचक्र के कारण कश्मीर का मामला हैदराबाद के निजाम से पूरी तरह विपरीत है, जिसमें महाराजा हरि सिंह ने मुस्लिम बहुसंख्यक आबादी पर शासन किया था।
दमनकारी सर्फ-ए-खास प्रणाली हिंदू उत्पीड़न का एक उदाहरण है। यह विशाल भूखंड था, जिसे निजाम अपनी निजी संपत्ति मानता था (जो वास्तव में सरकारी भूमि थी)। यहां से निजाम सालाना ढाई करोड़ रुपये की उगाही करता था। जबरन वसूली की इस भयावहता को ऐसे समझा जा सकता है कि निजाम के क्षेत्र की कुल सीमा 82,698 वर्ग मील थी। इसमें से 8,109 वर्ग मील को उपरोक्त सर्फ-ए-खास के रूप में माना गया था।
इसके अलावा, जागीर गांव थे, जिनका कुल क्षेत्रफल 25,629 वर्ग मील था-यानी 1500 जागीरें और 6,500 गांव जो निजाम के क्षेत्र का एक तिहाई हिस्सा होते थे। इनके लिए जागीरदार, पैगास और संस्थानम के प्रमुख नामक अधिकारी नियुक्त किए जाते थे। ये सारे अपनी हैसियत और अपने उत्तराधिकार को निजाम का रहमोकरम मानते थे और निजाम को खुश रखने के लिए बाध्य थे। इन जमीनों से होने वाली आय का एक बड़ा हिस्सा सीधे निजाम की जेब में जाता था। भूमि स्वामित्व की इससे अधिक गई-बीती, अन्यायपूर्ण और दमनकारी व्यवस्था सामंती यूरोप में भी खोजना कठिन था। फिर भी यह व्यवस्था निजामों के शासनकाल में दो शताब्दियों से अधिक समय तक, तब तक फलती-फूलती रही, जब तक हैदराबाद की मुक्ति नहीं हो गई। यह सब अंग्रेजों की नाक के नीचे और अंग्रेजों के प्रोत्साहन से चलता रहा।
मीर उस्मान अली का भ्रम
1947 में जब अंग्रेज चले गए, तो दमन का यह लाइसेंस समाप्त हो चुका था। लेकिन निजाम मीर उस्मान अली खान भारी भ्रम का शिकार था। वह तकनीकी रूप से एक ‘स्वतंत्र’ शासक था और उसे लगता था कि उसके पास एक देश बनाने वाले सभी तत्व हैं- सेना, पुलिस, प्रशासन, बैंकिंग, अर्थव्यवस्था, संचार, हवाई जहाज, आदि। वह पूरी तरह इस ताकत के आधार पर भारतीय संघ के खिलाफ युद्ध छेड़ने पर भरोसा करता था। महीनों बाद जाकर उसे यह घोर अपमानजनक अहसास हुआ कि ब्रिटिश समर्थन के बिना यह सब बेकार था।
हैदराबाद का नए भारतीय संघ में विलय करने के खिलाफ निजाम की हठधर्मिता तीन प्रमुख कारकों से प्रेरित थी। पहला कारण उसके भ्रम का प्राथमिक स्रोत भी था। वह यह कि दक्षिण भारत के हर टटपूंजिये मुस्लिम शासक की तरह मीर उस्मान अली भी यह मान कर चलता था कि दक्खन का अधिपति वही था। उसे यह गलतफहमी बहमनियों और टीपू सुल्तान से विरासत में मिली थी। यह भारी भ्रम था, जो कई महीनों तक बना रहा था, और जिसकी परिणति आपरेशन पोलो में हुई थी।
दूसरी गलतफहमी और ज्यादा रोचक थी। महीनों पहले इस्लामिक स्टेट आफ पाकिस्तान एक वास्तविकता बन गया था। इस नए देश में छोटी रियासतें और ब्रिटिश भारत के कुछ हिस्से शामिल थे। और यहां निजाम की पूरी रियासत लगातार दो शताब्दियों से अस्तित्व में थी। लिहाजा दक्खन में एक पाकिस्तान की संभावना निजाम को बहुत व्यावहारिक लगती थी।
तीसरे, निजाम को बाहरी मदद मिलने का पूरा और पक्का विश्वास था। आपरेशन पोलो से पहले की डेढ़ वर्ष की अवधि में निजाम ने पाकिस्तान के साथ एक भारी-भरकम और विश्वसनीय संचार नेटवर्क स्थापित कर लिया था। इस संचार का मुख्यालय कराची में था।
सभी मुस्लिम देश हैदराबाद के मित्र हैं और उसके विरुद्ध कोई सैन्य कार्रवाई नहीं होने देंगे। हैदराबाद रेडियो ने यहां तक घोषणा कर दी कि यदि हैदराबाद के विरुद्ध युद्ध हुआ तो हजारों की संख्या में पठान भारत में मार्च करेंगे… कासिम रजवी ने, जो हैदराबाद हुकूमत पर हावी दिखते हैं, स्पष्ट रूप से कहा कि यदि भारतीय राज्य हैदराबाद में आता है तो उसे डेढ़ करोड़ हिंदुओं की हड्डियों और राख के अलावा यहां कुछ भी नहीं मिलेगा… ’
इसके अलावा, 1945 के अंतिम महीनों से ही, निजाम ने एक ब्रिटिश वकील-राजनयिक वाल्टर मॉन्कटन को अपने पक्ष में कर लिया था। वाल्टर मॉन्कटन प्रिंस आफ वेल्स का अटॉर्नी-जनरल था, ब्रिटिश राजशाही से उसका परिचय था और भारतीय राजाओं-नवाबों से भी उसका गहरा परिचय था। स्वयं वह ब्रिटिश कंजर्वेटिव पार्टी का करीबी था। निजाम ने ब्रिटेन में उसे अपना कानूनी सलाहकार नियुक्त किया था। मॉन्कटन ने कई अवसरों पर लंदन में निजाम के मामले की पैरवी की थी। वह माउंटबेटन का घनिष्ठ निजी मित्र भी था। मीर उस्मान अली ने इसी बात पर सबसे ज्यादा भरोसा किया था। निजाम ने मार्च 1948 में मॉन्कटन को तार भेजा था। निजाम ने सर वाल्टर मॉन्कटन से शिकायत की कि भारत सरकार हथियारों की आपूर्ति का अपना वादा नहीं निभा रही है। लगभग उस समय तक हैदराबाद और भारत के बीच चर्चा का माहौल खत्म होने लगा था। निजाम ने भारत के साथ अपने विवाद में संयुक्त राष्ट्र का उपयोग करने का फैसला किया।
निजाम के आखिरी दांवों में से एक था, अपनी मुस्लिम आबादी के बीच इस्लामी कट्टरवाद को भड़काना। इस बर्बर कार्य के लिए उसने जिस नेता को चुना, वह घोर कट्टरपंथी और दुर्दांत कासिम रजवी था। रजाकारों का सर्वेसर्वा।
(सौजन्य – पाञ्चजन्य आर्काइव)
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