संतों के संघर्ष, राष्ट्रीय शक्ति के सहयोग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकल्प से अयोध्या में जन्मभूमि पर रामलला विराजमान हुए हैं। प्रधानमंत्री मोदी मंदिर निर्माण के साथ अयोध्या को आध्यात्मिक केंद्र बनाने के लिए प्रयत्नशील रहे। अयोध्या के विकास को लेकर उन्होंने चार वर्ष में दो दर्जन बैठकें कीं
अंतत: रामलला अयोध्या में अपने जन्मस्थान पर विराजमान हो गए। कितनी पीढ़ियां यह सुखद पल देखने का सपना संजोए संसार से विदा हो गईं, पर वर्तमान पीढ़ी को यह सौभाग्य मिला। संतों के निरंतर संघर्ष, राष्ट्रीय शक्ति का सहयोग और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संकल्प की त्रिवेणी से यह परम् सौभाग्य का सपना सकार हो सका।
22 जनवरी विश्व इतिहास में एक अमर स्मृति बन गई है। यह कलिकाल की दीपावली का दिन था। रामलला के अपने जन्मस्थान पर विराजमान होने से केवल अयोध्या नगरी ही नहीं संवरी, अपितु पूरे संसार ने उल्लास की नई अंगड़ाई ली है। रामलला के प्राण प्रतिष्ठा समारोह का लाइव प्रसारण देखने का विश्व कीर्तिमान बना।
इससे पहले दुनिया के किसी समारोह का लाइव प्रसारण इतना नहीं देखा गया, जितना रामलला के प्राण प्रतिष्ठा आयोजन को देखा गया। नासा या इसरो के चंद्र अभियान को भी लाइव देखने का आंकड़ा इतना नहीं था। भारत में ही विभिन्न नगरों में सजावट और स्वागत द्वार नहीं बने, बल्कि पूरे विश्व से ऐसे समाचार आए। अमेरिका, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी ही नहीं, पाकिस्तान में भी उस आयोजन को लाइव देखा गया।
संतों का संघर्ष और बलिदान
सबसे पहले संतों का संघर्ष और बलिदान है जो न कभी रुका और न कभी थका। भारत पर हमलों और विध्वंस का दौर 7वीं सदी से आरंभ हुआ था। तब हमलावरों का उद्देश्य लूट और महिलाओं का अपहरण करना था। उनके निशाने पर राजमहल और देव स्थान रहे। रक्षा के लिए दोनों प्रकार की शक्तियां सामने आईं- राजशक्ति भी और संतशक्ति भी। जब स्थानीय राजशक्ति का क्षय हो गया, तब धर्म स्थानों की रक्षा के लिए संतशक्ति ने ही संघर्ष किया और प्राणों का बलिदान दिया।
संतों का यह संघर्ष देश के हर कोने में हुआ। अन्य स्थानों पर भले थोड़ा शिथिल हुआ हो पर अयोध्या में यह निरंतर जारी रहा, पहले आक्रमणकारी सालार मसूद से लेकर जन्मस्थान की मुक्ति तक। बाबर के हमले के बाद की लूटपाट, पुजारियों की हत्या और मूर्तियां तोड़ने की घटनाओं के विवरण से बाबरनामा से लेकर लखनऊ गजेटियर तक भरा पड़ा है। जिन संतों, साधुओं और पुरोहितों के बलिदान के प्रसंग इतिहास में मिलते हैं, उनमें सबसे पहला नाम महात्मा श्यामनंदजी महाराज का है। वह मंदिर के मुख्य पुजारी थे। जब भीटी के राजा महताब सिंह सेना सहित बलिदान हो गए, तब महात्मा श्यामनंदजी के नेतृत्व में संत-महात्माओं और जन सामान्य ने मोर्चा लिया व बलिदान हुए। दूसरा नाम पंडित देवीदीन पांडेय का है।
वह अयोध्या के समीप सनेथू नामक ग्राम के निवासी थे और जन्मस्थान मंदिर में भगवान राम की सेवा में थे। बाबर के हमले और मंदिर विध्वंस करने पर पं. देवीदीन पांडेय ने आसपास के संतों और क्षत्रिय समाज को एकत्रित किया और मंदिर में तैनात बाबर की सेना पर धावा बोला। यह युद्ध पं. देवीदीन पांडेय के नेतृत्व में ही लड़ा गया, जिसमें वह बलिदान हुए। हुमायूं के समय स्वामी महेश्वरानंद जी ने संन्यासियों की एक सेना बनाई और रानी जयराज कुमारी हंसवर से सहयोग मांगा। इस संयुक्त युद्ध में स्वामी महेश्वरानंद और रानी जयराज कुमारी दोनों बलिदान हुए।
नसीरुद्दीन हैदर के समय मकरही के राजा के नेतृत्व में भीती, हंसवर, मकरही, खजूरहट, दीयरा, अमेठी आदि के राजाओं के साथ वीर चिमटाधारी साधुओं की सेना भी साथ थी। युद्ध में शाही सेना को हारना पड़ा और जन्मभूमि पर पुन: हिंदुओं का अधिकार हो गया। लेकिन कुछ दिनों के बाद विशाल शाही सेना ने पुन: जन्मभूमि पर अधिकार किया, जिसमें हजारों चिमटाधारी संत बलिदान हुए। औरंगजेब के समय में समर्थ गुरु श्रीरामदासजी महाराज के शिष्य श्रीवैष्णवदास जी ने जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए 30 बार आक्रमण किया, जिसमें अनेक संत बलिदान हुए।
1853 में बाबा रामचरणदास जी ने जन्मस्थान मंदिर पर बने ढांचे के मौलवी आमिर अली को समझौते के लिए तैयार कर लिया था, लेकिन 1857 की क्रांति में दोनों बलिदान हो गए और मामला अटक गया। अंग्रेजी राज में कानूनी लड़ाई का आरंभ भी संतों की ओर से हुआ। 1858 में कलेक्टर को पहली रिपोर्ट,1885 के अनुसार पहला मुकदमा महंत रघुबर दास ने दायर किया था। 1934, 1938 और 1949 में भी संत समाज ही सामने आया और 1950 के बाद की अधिकांश याचिकाएं भी संतों की ओर से ही अदालत में पहुंचीं।
राष्ट्रीय शक्ति की सहभागिता
संतों द्वारा आरंभ किए गए जन्मस्थान पर प्रतिष्ठापना संघर्ष को राष्ट्रीय सोच की संगठित शक्ति की सहभागिता से निर्णायक गति मिली। माना जाता है कि 1966 में आरंभ हुए गोरक्षा आंदोलन से गति तेज हुई। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के द्वितीय सरसंघचालक गुरु गोलवलकर जी की गोरखपुर और काशी यात्रा में संतों ने उनके सामने अयोध्या का विषय रखा। 1961 में सुन्नी वक्फ बोर्ड की सक्रियता बढ़ने पर संतों में चिंता बढ़ी और संतों ने राष्ट्रीय संगठन से सहयोग की अपेक्षा की। संभवत: भारत-पाकिस्तान युद्ध, जेपी आंदोलन और फिर आपातकाल आदि के चलते कोई निर्णायक योजना न बन सकी।
माना जाता है कि आपातकाल के बाद संघ के तृतीय सरसंघचालक बालासाहब देवरस जी के समय इस विषय पर गंभीरता से विचार मंथन हुआ और 1984 से इस संघर्ष को समर्थन देने का मन बना। इसकी झलक 8 अप्रैल, 1984 को नई दिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित पहली धर्मसंसद में दिखी। इस धर्म संसद में 76 मत-पंथ व संप्रदायों के कुल 558 धर्माचार्य और संत उपस्थित थे, जिसमें राम जन्मभूमि मुक्ति यज्ञ समिति का गठन हुआ।
महंत अवैद्यनाथ को समिति का अध्यक्ष, दाऊदयाल खन्ना को महामंत्री तथा महंत नृत्य गोपाल दास, महंत रामंचद्र दास, ओंकार भावे, महेश नारायण सिंह व दिनेश त्यागी को महामंत्री घोषित किया गया। समिति ने देशव्यापी जन जागरण अभियान चलाने का निर्णय लिया। विश्व हिंदू परिषद को इस आंदोलन के संचालन का दायित्व सौंपा गया। इसके बाद युवाओं को जोड़ने के लिए हिंदू युवा सम्मेलनों का आयोजन आरंभ हुआ।
इसी वर्ष बजरंग दल का गठन हुआ। विनय कटियार इसके प्रथम राष्ट्रीय संयोजक बने। बजरंग दल ने 8 अक्तूबर, 1984 को अयोध्या से लखनऊ तक श्रीराम रथयात्रा का आयोजन किया, जिसमें नारा लगा- ‘बजरंग दल की है ललकार, ताला खोले यह सरकार’। इस पदयात्रा में हजारों की संख्या में साधु-संत, युवा चल पड़े और ‘आगे बढ़ो जोर से बोलो, जन्मभूमि का ताला खोलो’, ‘जब तक ताला नहीं खुलेगा, तब तक हिंदू चैन न लेगा’ आदि नारे भी लगे।
विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल और रामजन्म भूमि मुक्ति अभियान समिति ने 1984 से ताले में बंद रामलला के बड़े-बड़े बैनर 40 ट्रकों पर लगाए और पूरे उत्तर प्रदेश में यात्रा निकालकर सामाजिक जागरण किया। देशभर में राम शिलापूजन आरंभ हुआ, जो देश के तीन लाख से ज्यादा गांवों और कस्बों तक पहुंचा। भाजपा ने 1989 से राम मंदिर मुद्दे को अपने एजेंडे में शामिल किया।
जिस प्रकार राष्ट्रीय विचार वाले संगठनों की सक्रियता से संतों के राम जन्म भूमि मुक्ति संघर्ष को गति मिली, उसी प्रकार भाजपा के खुलकर सामने आने के बाद इस मुक्ति आंदोलन को गति मिली। इसके साथ कारसेवा आरंभ हुई और भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने रथ यात्रा भी आरंभ की। 1990 के गोलीकांड में अनेक राम भक्तों ने बलिदान दिया। अंत में 6 दिसंबर, 1992 को विवादित ढांचा गिर गया। संतों और राष्ट्रीय सोच के संगठनों के अतिरिक्त कोई अन्य संगठन यह बात खुलकर नहीं कह पाया कि वहां राम मंदिर था और राम मंदिर ही बनना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संकल्प
अयोध्या में भगवान राम जन्मभूमि के गौरव की प्रतिष्ठापना में तीसरा महत्वपूर्ण आयाम है-प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संकल्प शक्ति। नरेंद्र मोदी लगभग 33 वर्ष पहले लालकृष्ण आडवाणी की राम जन्मभूमि मुक्ति के सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा के समन्वयक थे। बिहार में रथयात्रा के रोके जाने के बाद नरेंद्र मोदी, मुरली मनोहर जोशी के साथ अयोध्या आए और संकल्प व्यक्त किया कि अब जन्मस्थान की मुक्ति के बाद ही अयोध्या आएंगे। उन्होंने प्रचार से दूर रह कर लगभग पूरे भारत की यात्रा की और जन जागरण किया।
न्यायालयों के निर्णय तो इससे पहले भी आए थे, लेकिन तब प्रत्येक सरकार ने उनके क्रियान्वयन में तुष्टीकरण का संतुलन बिठाने का प्रयास किया। यही नहीं, ढांचा ढहने के बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री ने वहां पुन: मस्जिद बनाने की ही बात संसद में कही थी। लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने न्यायालय के निर्णय को यथारूप में ही क्रियान्वयन करने की दिशा में कदम बढ़ाया।
मोदी ने सबका साथ सबका विश्वास, सबका समन्वय और सहमति की भावना के अनुरूप जन्मभूमि मंदिर निर्माण के प्रति पूरी दृढ़ता व्यक्त की। वह इस विषय पर सदैव चिंतित रहे। उन्होंने पिछले चार वर्ष में अयोध्या के विकास को लेकर लगभग दो दर्जन बैठकें कीं। वस्तुत: प्रधानमंत्री मोदी अयोध्या में मंदिर निर्माण के साथ उस स्थल को आध्यात्मिक केंद्र बनाने के लिए प्रयत्नशील रहे, जो उनकी 11 दिनों की साधना तथा वहां अनुष्ठान से स्पष्ट है।
जिस प्रकार प्रात:कालीन सूर्योदय के निमित्त हजारों पलों की आहुति होती है, उसी प्रकार लाखों संतों और भक्तों का बलिदान हुआ। जिस प्रकार ब्रह्म मुहूर्त प्रात:कालीन यात्रा के लिए मार्ग बनाता है, उसी प्रकार राष्ट्रीय भाव से भरी शक्ति ने पूरे देश में वातावरण बनाया। जिस प्रकार ऊषाकाल अपनी विनती से भगवान सूर्यदेव को प्रकट करता है, उसी प्रकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की संकल्प शक्ति से अंतत: समस्त विश्व ने रामलला को अपने जन्मस्थान पर विराजमान होते हुए देखा।
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