28 जनवरी, 2024 को नीतीश महागठबंधन और आईएनडीआईए से मुक्त हो गए। इस्तीफा देकर उन्होंने भाजपा के समर्थन से फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। विपक्ष के महागठबंधन में नीतीश को हाशिए पर लाने की कांग्रेस की चौधराहट वाली राजनीति से वे यह समझ गए थे कि प्रधानमंत्री बनने का उनका हसीन सपना अब पूरा नहीं होगा।
ब्रिटिश राजनेता हेरॉल्ड विल्सन ने एक बार कहा था, ‘‘राजनीति में एक सप्ताह की अवधि भी बहुत लंबी होती है।’’ जनता दल (यू) के अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इसे बिल्कुल सही सिद्ध कर दिया है। नीतीश कुमार ने लालू प्रसाद यादव के राष्ट्रीय जनता दल से अलग होने के लिए जो खिचड़ी पकानी शुरू की थी, उसके बारे में राजनीति पर बारीक नजर रखने वालों का भी विचार था कि उसके पकने में कुछ दिन तो लग ही जाएंगे। लेकिन नीतीश ने मात्र 72 घंटे में ही खिचड़ी तैयार कर उसे परोस भी दिया। राजनीति के महापंडित भी हक्के-बक्के रह गए।
लालू प्रसाद के साथ ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ गाते रहने वाले नीतीश कुमार ने 28 जनवरी को नौवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली। उन्होंने अपना सुर बदल दिया। वे हर बार पाला बदलकर मुख्यमंत्री बनने में सफल रहते हैं। लालू प्रसाद और नीतीश दोनों जात-पात की राजनीति के मंजे हुए खिलाड़ी हैं। दोनों आपस में शह और मात का खेल खेलते रहते हैं। उनका बड़ा ही विचित्र राजनीतिक इतिहास रहा है।
नीतीश कुमार ने 2013 में भाजपा के साथ 17 वर्ष पुराना गठबंधन तोड़ दिया, क्योंकि भाजपा ने 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को चुनाव की कमान सौंप दी थी। फिर जून, 2015 में बिहार विधानसभा के चुनाव में नीतीश कुमार ने अपने कट्टर विरोधी लालू प्रसाद से हाथ मिला लिया और राजद, कांग्रेस और अन्य दलों का महागठबंधन बना लिया। नीतीश पांचवीं बार मुख्यमंत्री बन गए।
जुलाई, 2017 में नीतीश ने राजद कोटे से उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव पर भ्रष्टाचार के आरोपों का हवाला देते हुए राजद से नाता तोड़ लिया। फिर भाजपा से गठजोड़ किया और अपनी सरकार बनाकर छठी बार मुख्यमंत्री बने। जुलाई, 2020 में नीतीश कुमार भाजपा व कतिपय अन्य दलों के समर्थन से सातवीं बार मुख्यमंत्री बने। लेकिन उन्होंने अगस्त, 2022 में भाजपा पर पार्टी तोड़ने का प्रयास करने का आरोप लगाते हुए नाता तोड़ लिया और राजद के महागठबंधन में शामिल होकर एक बार फिर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर विराजमान हो गए।
अब 28 जनवरी, 2024 को नीतीश महागठबंधन और आईएनडीआईए से मुक्त हो गए। इस्तीफा देकर उन्होंने भाजपा के समर्थन से फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। विपक्ष के महागठबंधन में नीतीश को हाशिए पर लाने की कांग्रेस की चौधराहट वाली राजनीति से वे यह समझ गए थे कि प्रधानमंत्री बनने का उनका हसीन सपना अब पूरा नहीं होगा।
‘मैं बिहार में भूमिहारों, राजपूतों, कायस्थों और दूसरी जातियों के लोगों से मिलने नहीं आया हूं। जात-पात की भावना एक बुराई है, उससे बचिए। राजनीति में जात-पात की कोई जगह नहीं होनी चाहिए।’ -पंडित जवाहरलाल नेहरू
नीतीश कुमार राजनीतिक माहौल को बारीकी से परखते रहते हैं और हवा का रुख देखते रहते हैं। उन्हें राजनीति का चतुर ‘मौसम विज्ञानी’ कहा जाता है। उनका लक्ष्य राष्ट्रीय हित के बजाए निजी राजनीतिक हित रहता है। प्रश्न है कि भाजपा ने, जो राष्ट्रीय स्तर का दल है और 2024 का लोकसभा चुनाव जीतने की जिसकी प्रबल संभावना है, नीतीश को फिर क्यों स्वीकार कर लिया? भाजपा ने तो कहा था कि नीतीश कुमार के लिए अब भाजपा के सभी दरवाजे बंद हैं। लेकिन नीतीश द्वारा दरवाजा खटखटाने पर दरवाजा खोल दिया गया। इसे जानने के लिए थोड़ा पीछे मुड़ना होगा।
2014 के आम चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नरेंद्र मोदी ने जातिवादी राजनीति की चुनावी खेल परंपरा को बदलते हुए विकास की राजनीति का मॉडल प्रस्तुत किया था। मोदी सरकार ने विकास की राजनीति के अंतर्गत ‘सबका साथ, सबका विकास, सबका विश्वास’ को अपना नीति मंत्र बनाकर सभी वर्गों का पर्याप्त समर्थन प्राप्त किया है। मोदी का कहना है कि मेरे लिए चार जातियां हैं:- गरीब, युवा, किसान और महिलाएं। लेकिन जातीय राजनीति की रोटी खाने वालों का तंदूर तो निरंतर चालू है। जहां पार्टियां नहीं, जातियां चुनाव लड़ती हैं
2015 में विधानसभा चुनाव के समय जात-पांत ने बिहार में जो कहर ढाया, उसे सारे देश ने देखा। उस दौरान आरक्षण को लेकर लालू-नीतीश ने अपने युगल गान में पुरजोर ढंग से यह प्रचारित करना शुरू कर दिया कि ‘भाजपा के जीत जाने पर देश में पिछड़ी जातियों की आरक्षण व्यवस्था समाप्त कर दी जाएगी’। हालांकि भाजपा ने आरक्षण के मुद्दे पर कुछ भी नहीं कहा था। लेकिन बिहार में गांव-गांव में यह प्रचारित कर दिया गया कि भाजपा आरक्षण व्यवस्था खत्म कर देगी।
भाजपा के किसी प्रकार के प्रतिवाद का भी कोई असर नहीं हुआ। इससे भाजपा को चुनाव में जबरदस्त नुकसान हुआ। इससे यह भी साबित हो गया कि इस मुद्दे को कितना संवेदनशील बना दिया गया है। जात-पात की आड़ में मिथ्यालाप और अफवाहबाजी से भी चुनाव जीता जा सकता है। इस मोर्चे पर भाजपा विफल साबित हुई। उन दिनों ऐसा महसूस हुआ कि बिहार में पार्टियां नहीं, जातियां चुनाव लड़ रही हैं।
अब जातिवादी राजनीति के नए चेहरे राहुल गांधी की बात की जाए, जो पार्टी के मूल सिद्धांतों को पूरी तरह नजरअंदाज कर रहे हैं। 1952 में लोकसभा के पहले चुनाव के समय पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पटना के गांधी मैदान में जात-पात की राजनीति करने वालों को लताड़ते हुए कहा था, ‘मैं बिहार में भूमिहारों, राजपूतों, कायस्थों और दूसरी जातियों के लोगों से मिलने नहीं आया हूं। जात-पात की भावना एक बुराई है, उससे बचिए। राजनीति में जात-पात की कोई जगह नहीं होनी चाहिए।’1980 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी ने जातिवादी राजनीति का मुकाबला करने के लिए नारा दिया था-
‘न जात पर न पात पर, मोहर लगेगी हाथ पर।’
राजीव गांधी ने भी इसी नीति को अपनाया था। लेकिन राहुल गांधी इसके उलट चल रहे हैं। जातीय समीकरण को ध्यान में रखते हुए उनका ओबीसी प्रेम जागा है। उनका कहना है कि यदि उनकी पार्टी सत्ता में आई तो जाति वे गणना करवाकर रहेंगे।
लेकिन असली समस्या उत्पन्न होगी लोकसभा चुनाव के बाद विधानसभा चुनाव के मौके पर। लोकसभा चुनाव में तो लोग मोदी जी के नाम पर भाजपा को वोट देंगे। बाद में क्या होगा, इससे पार्टी के कार्यकर्ता कुछ चिंतित हैं। हालांकि समय बीतने के साथ स्थिति बदल सकती है। नीतीश ने पिछली बार कहा था कि यह उनका आखिरी चुनाव है। जो भी हो, अगले चुनाव में कोई उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत करने को तैयार नहीं होगा। उन्हें केंद्र की राजनीति में लिया जा सकता है, क्योंकि वे सत्ता के बिना रह नहीं सकते।
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