गत 18 जनवरी 2024 को केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने कोचिंग संस्थानों के पंजीकरण, वहां प्रवेश लेने वाले छात्रों के नामांकन की आयु, वहाँ पढ़ाने वाले शिक्षकों की योग्यता, उन संस्थानों द्वारा छात्रों एवं अभिभावकों से किए जाने वाले वादे और आश्वासन, वेबसाइट पर अद्यतन जानकारियाँ उपलब्ध कराने, वहाँ पढ़ने वाले छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य की चिंता एवं स्थिति, तनावमुक्त शैक्षिक वातावरण, शुल्क विनियमन एवं वापसी, समावेशी नीतियाँ, बुनियादी ढाँचा एवं सुरक्षा संबंधी मानक आदि को लेकर आवश्यक दिशानिर्देश जारी किए हैं। इसमें सबसे महत्त्वपूर्ण 16 वर्ष से कम आयु के छात्रों के नामांकन पर प्रतिबंध लगाया जाना है। अब माध्यमिक विद्यालय की शिक्षा पूरी करने के बाद ही कोई विद्यार्थी कोचिंग संस्थान में प्रवेश ले सकेगा। नए दिशानिर्देश के अनुसार कोचिंग संस्थाओं में पढ़ाने वाले शिक्षकों के पास न्यूनतम स्नातक स्तर की योग्यता होनी चाहिए।
नैतिक अधमता (समाजिक कल्याण के विपरीत कार्य) के दोषी व्यक्तियों को अध्यापन के लिए नियुक्त करना निषिद्ध है। कोचिंग की गुणवत्ता, सुविधाओं, परिणामों, रैंकों तथा अच्छे अंकों की गारंटी आदि को लेकर भ्रामक दावे, मिथ्या आश्वासन एवं आकर्षक विज्ञापन पर अंकुश लगाया गया है। निर्गत दिशानिर्देश में कहा गया है कि कोचिंग संस्थानों के पास शिक्षकों की योग्यता, पाठ्यक्रम की अवधि, छात्रावास में उपलब्ध सुविधाओं एवं शुल्क संबंधी अद्यतन जानकारी प्रदान करने वाली एक वेबसाइट होनी आवश्यक है। कोचिंग ले रहे विद्यार्थियों के मानसिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देने की आवश्यकता पर बल देते हुए एक परामर्श-प्रणाली स्थापित करने, मनोवैज्ञानिकों एवं परामर्शदाताओं के संदर्भ में जानकारी प्रदान करने तथा मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों और सरोकारों पर शिक्षकों को प्रशिक्षण देने का निर्देश दिया गया है।
शुल्क विनियम एवं उचित ट्यूशन फीस की व्यवस्था सुनिश्चित करते हुए यह निर्दिष्ट किया गया है कि विद्यार्थियों द्वारा समय से पूर्व कोई पाठ्यक्रम (कोर्स) छोड़े जाने की स्थिति में आनुपातिक आधार पर शुल्क-वापसी की जानी चाहिए। बुनियादी ढाँचा संबंधी मानक तय करते हुए यह कहा गया है कि प्रत्येक कक्षा-कक्ष (क्लासरूम) में प्रति छात्र न्यूनतम एक वर्गमीटर का स्थान सुनिश्चित किया जाना चाहिए, कोचिंग संस्थान के भवनों को अग्नि सुरक्षा संहिता, भवन सुरक्षा संहिता एवं अन्य प्रासंगिक सुरक्षा मानकों के अनुरूप विकसित किया जाना चाहिए। इतना ही नहीं, केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय ने जहाँ पंजीकरण एवं जारी किए गए दिशानिर्देशों के उल्लंघन पर नियमानुसार दंड के प्रविधान किए हैं, वहीं सभी राज्य सरकारों को भी कोचिंग संस्थान की गतिविधियों की निगरानी करने तथा पंजीकरण अर्हता का अनुपालन सुनिश्चित कराने का कार्य सौंपा है।
ये सभी दिशानिर्देश स्वागत योग्य हैं, परंतु इनके प्रभावी क्रियान्वयन के लिए विद्यार्थियों, शिक्षकों एवं अभिभावकों के मध्य व्यापक विचार-विमर्श अपेक्षित एवं आवश्यक हैं। यह सर्वविदित है कि सफलता का सब्जबाग दिखाते और सपने बेचते कोचिंग संस्थानों की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। कोचिंग के लिए ख्यात प्रमुख शहरों की तर्ज़ पर आज देश के लगभग सभी छोटे-बड़े शहरों से लेकर गली, मुहल्ले, कस्बों में भी कोचिंग संस्थान कुकुरमुत्ते की तरह उग आए हैं। कोचिंग सामान्य व्यवसाय से आगे निकल, इन दिनों संगठित उद्योग का रूप लेता जा रहा है। ऑनलाइन कोचिंग की पैठ व पहुँच तो अब घर के भीतर तक हो गई है। यह विडंबना ही है कि विभिन्न प्रचार-माध्यमों के जरिए ऑनलाइन क्लासेज की महत्ता, उपयोगिता एवं गुणवत्ता पर तमाम सिने-सितारे ज्ञान बघार रहे हैं और जनमानस पर उनका परोक्ष-प्रत्यक्ष प्रभाव भी पड़ रहा है। घोर आश्चर्य है कि शिक्षा जैसे गंभीर एवं महत्त्वपूर्ण विषय पर भी राय बनाते या निर्णय लेते समय हम प्रायः प्रचार और यथार्थ का अंतर नहीं समझ पाते! तमाम सर्वेक्षणों से निकले आँकड़े भी कोचिंग के प्रति बढ़ते रुझानों की ओर संकेत करते हैं। इनफिनियम ग्लोबल रिसर्च रिपोर्ट, 2023 के मुताबिक भारत में कोचिंग उद्योग का सालाना कारोबार करीब 58 हजार करोड़ रुपये का है और अगले पॉंच वर्षों में इसके बढ़कर लगभग एक लाख 34 हजार करोड़ रुपये तक पहुँचने का अनुमान है। इंडियन काउंसिल फॉर रिसर्च ऑन नेशनल एजुकेशन की 2019 की रिपोर्ट के अनुसार देश में 85 लाख छात्र विभिन्न प्रकार की कोचिंग ले रहे हैं। 2023-24 में अकेले कोटा में ही लगभग 2.05 लाख विद्यार्थी कोचिंग के लिए आए। नेशनल सैंपल सर्वे ऑफिस का 2020 का सर्वेक्षण बताता है कि हमारे यहॉं कक्षा 11 और 12 के लगभग 25% छात्र अलग-अलग विषयों के लिए कोचिंग कक्षाओं में अध्ययनरत हैं।
एक दौर था जब पढ़ाई में कमज़ोर छात्रों के लिए ही कोचिंग आवश्यक समझा जाता था, परंतु इन दिनों कोचिंग एक चलन ही नहीं, ‘स्टेट्स सिंबल’ बनता जा रहा है। कोचिंग नहीं लेने वाले विद्यार्थियों को आजकल कमज़ोर, औसत या प्रतिभाहीन मान लिया जाता है। अधिक प्राप्तांक या प्रतियोगी परीक्षाओं में मिली सफलता को ही विद्यार्थियों की प्रतिभा की एकमात्र कसौटी बनाने-मानने से उनकी सामाजिकता, संवेदनशीलता, सरोकारधर्मिता, रचनात्मकता, नैतिकता जैसे गुण एवं मूल्य सर्वथा उपेक्षित रह जाते हैं। यदि कोई विद्यार्थी जेईई, नीट, क्लेट, कैट, यूपीएससी जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं की चुनौती को भले पार न कर पाए, परंतु वह नैतिक-सामाजिक-साहित्यिक-सांस्कृतिक-व्यावहारिक दृष्टि से परिपूर्ण एवं समृद्ध हो तो क्या इन गुणों को उसकी योग्यता का मानक व मापदंड नहीं मानना चाहिए? क्या उसके संवाद-कौशल, उसकी नेतृत्व-क्षमता, उसकी टीम-भावना, नितांत नई, अपरिचित एवं चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से ताल-मेल बिठा पाने में उसकी दक्षता, उसमें पाई जाने वाली सेवा, समर्पण एवं सहयोग की भावना, प्रकृति, परिवेश, देश एवं समाज के प्रति उसकी सजगता, संवेदनशीलता व कर्त्तव्यपरायणता, उसकी स्वस्थ जीवनचर्या एवं शुचिता-स्वच्छता-सरलता-सहजता-सामाजिकता जैसे संस्कारों आदि का कोई अर्थ, महत्त्व व मूल्य नहीं? अंकों या प्रतियोगी परीक्षाओं में मिली सफलता की तुलना में इन मूल्यों को शिक्षा की मुख्य धुरी या केंद्रबिंदु नहीं होना चाहिए?
क्यों अंक बटोरने या प्रतियोगी परीक्षाओं में मिली सफलता को ही शिक्षा का पर्याय मान लिया गया? क्यों स्वतंत्रता के साढ़े सात दशक बाद भी शिक्षा, कॅरियर अथवा जीविकोपार्जन के एक सामान्य विकल्प से आगे – सुखी, सार्थक एवं प्रसन्न जीवन जीने का समग्र चित्र अथवा व्यापक आधार नहीं प्रस्तुत कर पाई? शिक्षा की ऐसी दिशा एवं दशा के लिए कौन जिम्मेदार हैं? विद्यालयों से इतर कोचिंग की समानांतर व्यवस्था क्यों पनपीं एवं फली-फूलीं? प्रश्न यह भी महत्त्वपूर्ण है कि क्या केवल दिशानिर्देश जारी कर देने से कोचिंग संस्थानों का मनमानापन अथवा विनियमन संभव होगा? क्या अपेक्षित जागरूकता एवं उचित, स्तरीय व गुणवत्तापूर्ण विद्यालयी शिक्षा के अभाव में कोचिंग संस्थाओं से अभिभावकों का मोहभंग होगा? कहीं ऐसा तो नहीं कि विद्यालयी पाठ्यक्रम एवं प्रतियोगी परीक्षाओं के पाठ्यक्रम, प्रारूप एवं पद्धत्ति के मध्य व्याप्त दूरी और अंतराल अभिभावकों व विद्यार्थियों को कोचिंग का रुख़ करने को विवश करते हैं? क्या यह सत्य नहीं कि आज सामान्य प्रतियोगी परीक्षाओं के लिए भी कोचिंग आवश्यक समझा जाने लगा है? शिक्षा-जगत के नीति-नियंता यदि गहराई से विचार करें तो पाएँगें कि शिक्षा-क्षेत्र में व्याप्त अधिकांश समस्याओं, अनियमितताओं एवं कदाचार की जननी – कोचिंग की यह फलती-फूलती संस्कृति ही है।
सफलता, जिसे कभी सतत साधना का प्रतिफल समझा जाता था, आज हर कोई उसका छोटा या तैयार रास्ता (शॉर्टकट) ढूँढ़ रहा है। कोई यह समझने को तैयार नहीं कि विद्यार्थियों की सफलता, उनके व्यक्तित्व के विकास अथवा निर्माण का कोई तय सूत्र या निर्दिष्ट फॉर्मूला नहीं होता। इसके लिए तो प्रत्येक विद्यार्थी की निजी रुचि, प्रकृति, प्रवृत्ति, सामर्थ्य एवं सीमाओं को जानना-पहचानना पड़ेगा। प्रत्येक विद्यार्थी में अंतर्निहित वैशिष्ट्य एवं मौलिक प्रतिभा को पहचानना होगा। कुल मिलाकर उन्हें समग्रता में जाने-समझे, उनके साथ सुदीर्घ एवं गुणवत्तायुक्त समय बिताए बिना, यह संभव नहीं होगा। क्या कोचिंग संस्थानों के सीमित-संकीर्ण लक्ष्य, व्यावसायिक दृष्टिकोण, यांत्रिक दिनचर्या, अंकों-रैंकों के गुणाभाग, परीक्षा पे परीक्षा की अंतहीन शृंखला आदि की प्रचलित व्यवस्था एवं परिपाटी में यह सब संभव है? हमें सदा यह स्मरण रखना होगा कि विद्यार्थी नीरस और उबाऊ दिनचर्या के दुहराव के यंत्र अथवा अंक बटोरने की मशीन नहीं हैं और न ही वे बने-बनाए ढाँचे में तैयार किए जाने वाले उत्पाद हैं।
वे मन, बुद्धि, भावना व संवेदना से युक्त मनुष्य हैं, जिनका समग्र एवं संपूर्ण विकास एक अनुकूल, आत्मीय, स्वस्थ, संतुलित एवं वैविध्यपूर्ण परिवेश और रुचिपूर्ण-रचनात्मक दैनिक गतिविधियों की अपेक्षा रखता है। हम यह साधारण-सी बात क्यों भुला बैठते हैं कि मनुष्य का निर्माण संयम, समझ, स्नेह, समर्पण, संवेदना, त्याग, धैर्य और विवेक के बिना संभव नहीं! क्या यह सत्य नहीं कि मनुष्य का मनुष्य हो जाना ही उसकी चरम उपलब्धि है? क्या कोचिंग संस्थानों से हम ऐसे मनुष्य के निर्माण या ऐसे मूल्यों की अपेक्षा कर सकते हैं? विद्यालयी शिक्षा में तो फिर भी विद्यार्थियों के मानसिक-बौद्धिक विकास के साथ-साथ उनके शारीरिक, सामाजिक, सृजनात्मक एवं भावनात्मक विकास की न्यूनाधिक चिंता की जाती है और तदनुसार दैनिक, साप्ताहिक, मासिक एवं वार्षिक पाठ्यक्रम एवं सहगामी क्रियाकलापों आदि की रचना व योजना की जाती है। परंतु कोचिंग का दमघोंटू वातावरण, गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा, सफलता का दबाव आदि उन्हें अनावश्यक तनाव, अवसाद एवं कुंठा की ओर लेकर जाता है। कोचिंग संस्थानों में पढ़ रहे विद्यार्थियों की व्यथा-कथा अत्यंत दुःखद, दारुण एवं कारुणिक है। दशमलव के अंतर से छूट जाने के बाद की पीड़ा-व्यथा-उपेक्षा अनिर्वचनीय है। यह विद्यार्थियों को हमेशा के लिए पंगु बना सकती है। इसकी भयावह परिणति कोचिंग संस्थाओं में पढ़ रहे विद्यार्थियों में बढ़ती आत्महत्या की प्रवृत्ति एवं आँकड़ों में देखी जा सकती है। वर्ष 2023 में अकेले कोटा में ही कोचिंग ले रहे 30 विद्यार्थियों ने आत्महत्या कर ली। वहाँ पिछले सप्ताह ही (जनवरी,2024) नीट की तैयारी कर रहे एक छात्र एवं इंजीनियरिंग की एक छात्रा ने आत्महत्या कर ली, जिसने अपने माता-पिता के नाम बड़ा मार्मिक संदेश छोड़ते हुए लिखा – ”मम्मी-पापा मैं जेईई नहीं कर सकती, इसलिए आत्महत्या कर रही हूँ। मैं सबसे ख़राब बेटी हूँ, सॉरी मम्मी-पापा!”
कोटा पुलिस के अनुसार वर्ष 2018 में 19, 2017 में 7, 2016 में 18, 2015 में 31 तथा 2014 में 45 छात्रों ने आत्महत्या की थी, वहीं 2019 से 2022 के बीच कोचिंग ले रहे 53 छात्र-छात्राओं ने प्रतियोगी परीक्षाओं के दबाव व तनाव में आत्महत्या कर अपने प्राण गंवा दिए। इन आँकड़ों से कोचिंग संस्थाओं की भयावहता एवं वहाँ अध्ययनरत विद्यार्थियों की वास्तविक मनःस्थिति का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। सच तो यह है कि कोचिंग संस्थान सपनों के सौदागर हैं। भ्रामक प्रचार-प्रसार एवं आक्रामक विज्ञापनों के जरिए वे भोले-भाले मासूमों एवं उनके अभिभावकों को बहलाते-फुसलाते हैं। बल्कि कई बार तो बहुत-से अभिभावक भी बच्चों की रुचि, क्षमता, पात्रता, प्रवृत्ति, प्रकृति आदि का विचार किए बिना उन पर अपने सपनों एवं महत्त्वाकांक्षाओं का भार थोपने की भूल कर बैठेते हैं, जिसका परिणाम प्रायः त्रासद ही होता है। कोचिंग संस्थाओं द्वारा बढ़ा-चढ़ाकर किए गए अतिरेकी दावों और सफल अभ्यर्थियों के चमकते-दमकते चंद सितारा चेहरों के पीछे लाखों विफल विद्यार्थियों के दर्द, आँसू और स्याह सच सामने नहीं आते। केवल भेड़चाल के कारण बहुत छोटी आयु में बच्चों को कोचिंग की भट्ठी में झोंकने से उनका बचपन छिन जाता है।
वे एकाकी एवं आत्म-केंद्रित होते चले जाते हैं। उनके जीवन से बालसुलभ हास, सहज आनंद, उमंग व उल्लास लगभग लुप्त हो जाता है। अपने सहपाठियों (बैचमेट्स) से प्रतिस्पर्द्धा करते-करते और कोचिंग की यांत्रिक दिनचर्या का भार ढोते-ढोते वे प्रकृति व संसार में सर्वत्र व्याप्त सहयोग, सामंजस्य, संतुलन व सौंदर्य को देखना-सहेजना तथा चराचर में फैले जीवन के गीत को गाना-गुनगुनाना, सुनना-सराहना ही भुला बैठते हैं। प्रतिस्पर्द्धा करते-करते कई बार वे अपने घर-परिवार, समाज और राष्ट्र के प्रति भी प्रतिस्पर्द्धी भाव रखने लगते हैं। कई बार तो वे अपनों के प्रति भी कटु और कृतघ्न हो उठते हैं। यह विडंबना नहीं तो और क्या है कि साथ, सहयोग एवं सामंजस्य के स्थान पर हम उन्हें बचपन से ही दूसरों को पछाड़ने की सीख दे रहे हैं? हम क्यों नहीं समझ पा रहे कि ‘जीवन एक संघर्ष’ ही नहीं, वह ‘विरुद्धों का सामंजस्य’ एवं ‘सहयोग, समन्वय व संतुलन’ की सतत साधना भी है। औरों को उखाड़ने-पछाड़ने से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण सबके साथ घुलना-मिलना, किसी को संग लेना, किसी के साथ बढ़ना है। क्या हुआ यदि कोई इंजीनियर, डॉक्टर या बड़ा अफसर नहीं बन पाया? यह इतिहास-सिद्ध सत्य है कि किसी एक क्षण की कौंध या प्रेरणा कई बार युगांतकारी परिवर्तन या असीमित संभावनाओं का वाहक बनती है। हमें सदैव यह स्मरण रखना चाहिए कि जीवन का ध्येय केवल जीवन है!
प्रणय कुमार, लेखक शिक्षाविद एवं वरिष्ठ स्तंभकार
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