ज्ञानवापी प्रकरण में हिंदू पक्ष को बड़ी जीत मिली है। वाराणसी के जिला न्यायालय ने ज्ञानवापी प्रकरण में सुनवाई करते हुए हिंदू पक्ष को पूजा का अधिकार दे दिया है।
वर्ष 1991 में पंडित सोमनाथ व्यास, डा.रागरंग शर्मा एवं हरिहर पाण्डेय के द्वारा ज्ञानवापी परिसर के स्वामित्व का वाद दायर किया गया था। इन तीनों लोगों की मृत्यु हो चुकी है। पंडित सोमनाथ व्यास के नाती शैलेन्द्र पाठक ने उस मूल मुकदमे में पक्षकार बनने का प्रार्थना पत्र दिया है और इसके साथ ही उन्होंने वाराणसी जनपद न्यायालय में याचिका दाखिल की. शैलेन्द्र पाठक में याचिका में मांग की है कि सोमनाथ व्यास जी के तहखाने में वर्ष 1993 से पूजा – पाठ बंद है. न्यायालय से मांग की है कि तहखाने में पूजा – पाठ की अनुमति प्रदान की जाय. इस मुकदमे में दोनों पक्षों की बहस मंगलवार को पूरी हो गई थी. बुधवार को वाराणसी जनपद न्यायालय के जिला जज ने अपने आदेश में कहा कि तहखाने की बैरिकेडिंग हटाई जाय. सात दिन में व्यवस्था बनाई जाय.
दरअसल, वर्ष 1991 में हिन्दुओं की तरफ से पंडित सोमनाथ व्यास, डा.रागरंग शर्मा एवं हरिहर पाण्डेय के द्वारा ज्ञानवापी परिसर के स्वामित्व की याचिका योजित की गई थी। वाद में कहा गया कि वर्ष 18 अप्रैल 1669 में औरंगजेब ने फरमान जारी करके मंदिर को तोड़ा था। यह पूरी सम्पत्ति आदि विशेश्वर भगवान की है। उस परिसर को पूर्ण रूप से हिन्दुओं को सौंप दिया जाना चाहिए। वहां पर अन्य किसी का कोई दावा नहीं बनता है। बीतते समय के साथ तीनों वादकारियों की मृत्यु हो गई। सोमनाथ व्यास के नाती शैलेन्द्र पाठक अब इस मुकदमे के पक्षकार बनने की पैरवी कर रहे हैं।
यह मुकदमा वर्ष 1991 में दाखिल हुआ था। करीब सात वर्ष बाद वर्ष 1998 में अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में याचिका दाखिल कर ट्रायल कोर्ट की कार्यवाही पर रोक लगाने की मांग की। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने वर्ष 1998 में इस मुकदमे में स्थगन आदेश पारित किया था। अधिवक्ता मदन मोहन बताते हैं कि “नवंबर 2018 में इस मुकदमे में एक नया मोड़ आया। उच्चतम न्यायालय ने एशियन सर्फेसिंग कंपनी के एक मुकदमे की सुनवाई करते हुए निर्णय दिया कि अगर किसी स्थगन आदेश का विधि सम्मत कारण नहीं है तो वह स्थगन आदेश 6 महीने के बाद स्वत: निष्प्रभावी हो जाएगा। उच्चतम न्यायालय के इस निर्णय का हवाला देते हुए मैंने सिविल जज सीनियर डिवीजन, वाराणसी जनपद के न्यायालय में प्रार्थना पत्र दिया गया और मुकदमे का विचारण आरंभ हुआ। सिविल जज सीनियर डिवीजन ने सुनवाई के बाद 8 अप्रैल 2021 को एएसआई सर्वे का आदेश दिया। इसके बाद अंजुमन इंतजामिया मसाजिद कमेटी ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में उस आदेश को चुनौती दी। उच्च न्यायालय ने सर्वे के आदेश को स्टे कर दिया। उसके बाद गत 19 दिसंबर 2023 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मुस्लिम पक्ष की सभी पांचों याचिकाओं को खारिज कर दिया। इसके बाद मुकदमे की सुनवाई का रास्ता साफ हो गया।”
इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने गत 19 दिसंबर 2023 को अपने निर्णय में कहा कि “वर्ष 1991 में दाखिल मुकदमा संख्या 610 पोषणीय है। यह सिविल वाद, प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 से बाधित नहीं है। 7 रूल 11 सी.पी.सी के अंतर्गत वाद को खारिज नहीं किया जा सकता है। प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट “धार्मिक चरित्र” को परिभाषित नहीं करता है और इस अधिनियम के अंतर्गत केवल “रूपांतरण” और “पूजा स्थल” को परिभाषित किया गया है। विवादित स्थान का धार्मिक स्वरूप क्या होगा, यह तो मुकदमे के पक्षकारों के साक्ष्यों के बाद ही सक्षम न्यायालय द्वारा तय किया जा सकता है। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि ज्ञानवापी परिसर में या तो हिंदू धार्मिक चरित्र है या मुस्लिम धार्मिक चरित्र है। इसमें एक ही समय में दोहरा चरित्र नहीं हो सकता है। ट्रायल कोर्ट को पक्षों की दलीलों और दलीलों के समर्थन में दिए गए सबूतों पर विचार करते हुए धार्मिक चरित्र का पता लगाना होगा। प्रारंभिक रूपरेखा के आधार पर किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंचा जा सकता। प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991 केवल पूजा स्थल के रूपांतरण पर रोक लगाता है, लेकिन यह पूजा स्थल के धार्मिक चरित्र को निर्धारित करने के लिए किसी प्रक्रिया को परिभाषित या निर्धारित नहीं करता है।
उच्च न्यायालय ने कहा कि वर्ष 1991 के मूल वाद संख्या 610 को दाखिल करने के बाद से 32 साल से अधिक समय बीत चुका है और प्रतिवादियों द्वारा लिखित बयान दाखिल करने के बाद मुकदमे में केवल वाद बिंदु का निर्धारण ही हो पाया है। इस न्यायालय द्वारा 13 अक्टूबर 1998 को दिए गए अंतरिम आदेश के आधार पर मुकदमे की कार्यवाही लगभग 25 वर्षों तक लंबित रही। मुकदमे में उठाया गया विवाद बिल्कुल ही राष्ट्रीय महत्व का है। यह दो अलग-अलग पक्षकारों के बीच का मुकदमा नहीं है। इसका असर देश के दो प्रमुख समुदायों पर पड़ता है। वर्ष 1998 से चल रहे अंतरिम आदेश के कारण मुकदमा आगे नहीं बढ़ सका। राष्ट्रीय हित में यह आवश्यक है कि मुकदमा शीघ्रता से आगे बढ़ाया जाए और बिना किसी टाल-मटोल की रणनीति का सहारा लिए अत्यंत तत्परता से निर्णय लिया जाए। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि मुकदमा वर्ष 1991 से लंबित है और 32 वर्ष से अधिक समय बीत चुका है। यह न्यायालय, ट्रायल कोर्ट को निर्देश देता है कि वह मामले को शीघ्रता से आगे बढ़ाएं और वर्ष 1991 के इस मूल वाद संख्या ( 610/1991) की कार्यवाही को इस आदेश की प्रमाणित प्रति मिलने की तारीख से अगले छह महीने के भीतर पूर्ण कर ली जाए। उच्च न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि निचली अदालत किसी भी पक्ष को अनावश्यक मोहलत नहीं देगी। इस मुकदमे के वादी और प्रतिवादी भी इस मुकदमे में अनावश्यक विलंब नहीं करेंगे। उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि एएसआई की सर्वे रिपोर्ट दाखिल होने के बाद अगर यह पाया जाता है कि आगे सर्वेक्षण की आवश्यकता है तो जनपद न्यायालय के आदेश पर आगे भी सर्वे जारी रहेगा। उच्च न्यायालय ने कहा कि इस प्रकार सभी पांच मामले इस न्यायालय द्वारा खारिज कर दिए जाते हैं और अगर कोई अंतरिम आदेश है तो उसे निरस्त किया जाता है।
मुकदमे के लिहाज से यह लड़ाई 33 वर्ष से चल रही है मगर वर्ष वैसे देखा जाय तो वर्ष 1669 में मुग़ल आक्रान्ता औरंगजेब ने ज्ञानवापी में मंदिर तोड़कर कथित ढांचे का निर्माण कराया था। इसके बाद वर्ष 1936 में दीन मोहम्मद व दो अन्य बनाम स्टेट सेकेट्री आफ़ इंडिया मुकदमा दायर हुआ था। इस मुकदमे में कोई हिन्दू पक्षकार नहीं था, मगर 12 गवाहों ने इस मुकदमे में स्वीकार किया था कि वहां पर उस समय से नियमित पूजा-पाठ होती रही थी। कई बरस पहले इस मुकदमे के सभी पक्षकारों की मृत्यु हो गई। अधिवक्ता मदन मोहन यादव बताते हैं कि “दीन मोहम्मद के मुकदमे में यह बात साबित हुई थी कि तब भी मंदिर में पूजा पाठ होती थी। वर्शिप एक्ट (पूजा अधिनियम) 1991 यह कहता है कि 15 अगस्त 1947 के पूर्व की स्थिति बहाल रहेगी। गत मंगलवार को इलाहाबाद उच्च न्यायालय का निर्णय अत्यंत स्वागत योग्य है। उच्च न्यायालय ने यह माना है कि सिविल वाद, वर्शिप एक्ट 1991 से बाधित नहीं है। दीन मोहम्मद के मुकदमे में भी यह साबित हो चुका है कि वर्ष 1947 के पहले हिन्दू वहां पर पूजा-पाठ कर रहे थे। पूजा- पाठ से परिसर के मूल चरित्र पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।”
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