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प्रण से प्राण प्रतिष्ठा तक

स्वतंत्र भारत के इस सबसे बड़े सामाजिक आंदोलन की सुखांत परिणति का साक्षी होना विह्वल कर देने वाला क्षण था। इस आंदोलन के दौरान पाञ्चजन्य के संपादक रहे श्री तरुण विजय मेरे निकट खड़े थे। प्राण प्रतिष्ठा के तुरंत बाद रामलला की मुस्काती मूरत देखते ही सहसा हम दोनों ने एक-दूसरे को बांहों में भर लिया।

by हितेश शंकर
Jan 29, 2024, 09:56 am IST
in भारत, सम्पादकीय, उत्तर प्रदेश, धर्म-संस्कृति, आजादी का अमृत महोत्सव
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22 जनवरी, 2024। पाञ्चजन्य के संपादक के रूप में इस दिन अयोध्या में होना भावुक करने वाला पल था। 70 बरस तक लड़ाई न्यायालय में लड़ी गई। स्वतंत्र भारत के इस सबसे बड़े सामाजिक आंदोलन की सुखांत परिणति का साक्षी होना विह्वल कर देने वाला क्षण था। इस आंदोलन के दौरान पाञ्चजन्य के संपादक रहे श्री तरुण विजय मेरे निकट खड़े थे। प्राण प्रतिष्ठा के तुरंत बाद रामलला की मुस्काती मूरत देखते ही सहसा हम दोनों ने एक-दूसरे को बांहों में भर लिया। कार्यक्रम में उपस्थित हजारों लोगों की तरह हम दोनों की आंखों से अश्रुधारा फूट पड़ी।
क्या यह भावना का उफान भर था? नहीं!
यह उस संघर्ष को लांघकर निकले सामाजिक उद्वेलन के आंसू थे।
एक ऐसी बेचैनी और छटपटाहट, जो बीती पांच सदी से इस समाज के सीने में जमी बैठी थी, एकाएक छंट गई। आंसुओं का सागर बह निकला।
वैसे, मीरबाकी से भी पहले, भारत के इस मान बिंदु को झुकाने, गिराने का पहला दुष्कृत्य तो मिनिएंडर या मिहिरकुल ने किया था। यह ईसा से भी डेढ़ सदी पहले की बात है।
लव-कुश द्वारा स्थापित श्रीराम जन्मभूमि मंदिर पर वह पहली मर्मान्तक चोट थी, किंतु इस आघात के केवल तीन माह बाद शुंग वंशीय द्युमत्सेन ने मिहिरकुल की राजधानी कौशांबी पर अधिकार कर लिया, मिहिरकुल मारा गया।
इसके बाद आरंभ हुआ कुषाणों के हमले का लंबा दौर। आक्रांताओं से जूझता हिंदू समाज बाहरी शक्तियों से जी जान से लड़ता भी रहा और मंदिर के भग्नावशेषों के बीच आस्था की लौ भी उसने जलाए रखी।
आक्रांताओं की नजर आस्था के इस केंद्र पर थी, समाज लगातार अपने आराध्य के लिए लड़ रहा था।
बाबर के समय करीब आधा दर्जन, हुमायूं के समय करीब एक दर्जन, अकबर के वक्त दो दर्जन और दुर्दांत औरंगजेब के समय तीन दर्जन युद्ध इस समाज ने अपने आस्था स्थल को उसका गौरव दिलाने के लिए लड़े। यह राष्ट्र की जिजीविषा, समाज की गौरव स्थापना का महायज्ञ था, जिसमें लगातार हिंदू समाज प्राणों की आहुतियां दे रहा था। स्वयं लॉर्ड कनिंघम ने लखनऊ गजेटियर में लिखा, ‘‘1,74,000 हिंदुओं की लाशें गिर जाने के बाद ही बाबर का सिपहसालार मीर बाकी मंदिर को तोप के गोलों से गिराने में सफल हो सका।’’
क्या विश्व में किसी मत, पंथ का कोई और आस्था स्थल ऐसा है, जिसकी रक्षा के लिए पौने दो लाख लोगों ने प्राणोत्सर्ग किया हो? नहीं! यह अयोध्या ही थी। अयोध्या, जिससे युद्ध नहीं हो सकता उस ‘अ’ युध्य से युद्ध का लंबा उपक्रम अंतत: परास्त हुआ।
जो हिंदू-मुस्लिम एकता का बिम्ब हो सकता था, उसे विवाद की फांस बनाने वाली मानसिकता, बांटो और राज करो की सोच, 1858 में मौलाना आमिर अली और रामगढ़ी के महंत रामचरण दास को कुबेर टीले पर फांसी देने वाली सोच अंतत: परास्त हुई।
समाज को बांटकर, लड़ाकर अपना हित साधने वाली शक्तियों की प्राण-शक्ति मानो इस 22 जनवरी को इस प्राण-प्रतिष्ठा ने हर ली।
यह क्षण विलक्षण है! किंतु इस विह्वल कर देने वाली विलक्षणता में खोने का यह क्षण बिल्कुल नहीं है।
इस अवसर पर भारत के गौरव की पुनर्स्थापना उन सभी को अवश्य खल रही होगी, जो इस देश के गरिमामयी अतीत और भविष्य की ओर बढ़ती गर्वीली पदचाप को लक्षित कर आघात करते रहे हैं।
भावनाएं महत्वपूर्ण हैं किंतु भविष्य इससे भी बढ़कर है। आंसुओं को थामें और रामलला को देखते हुए एक-दूसरे का हाथ थामे बढ़ते रहें। आस्था के साथ और व्यवस्था के साथ कदमताल करते हुए बढ़ते रहें।
अंधेरा छंटना अभी बस आरंभ हुआ है। और अच्छी खबरें इस संगठित समाज और भविष्य की ओर बढ़ते भारत की देहरी पर खड़ी हैं।
@hiteshshankar

Topics: Pran PratisthaAyodhyaLord Ram Manasअयोध्याराष्ट्र की जिजीविषारामललाsurvival of the nation.पाञ्चजन्यश्रीराम जन्मभूमि मंदिरShri Ram Janmabhoomi TempleRamlalamanasप्राण प्रतिष्ठा#panchjanya
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