AMU: अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (AMU) के ‘अल्पसंख्यक दर्जे’ को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई का मामला तेजी से चल रहा है। सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार ने दलील दी कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी एक राष्ट्रीय संस्थान है, अल्पसंख्यक संस्थान नहीं। इस दौरान सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू से यह बताने को कहा कि अल्पसंख्यक संस्थान के रूप में उसका दर्जा कैसे उचित है, ये बताइए। शीर्ष अदालत ने विशेष रूप से उल्लेख किया कि एएमयू की 180 सदस्यीय गवर्निंग काउंसिल में केवल 37 मुस्लिम सदस्य हैं।
आखिर क्यों है अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे पर विवाद? यह मामला कब अदालत में गया और क्या फैसले हुए? आइए इस आर्टिकल की मदद से 57 साल पुराने इस विवाद को समझाते हैं।
जानिए ‘अल्पसंख्यक दर्जा’ क्या है?
भारत के संविधान का अनुच्छेद 30(1) सभी भाषाई और धार्मिक अल्पसंख्यकों को शैक्षणिक संस्थान चलाने और खोलने का अधिकार देता है। ये प्रावधान सरकार द्वारा अल्पसंख्यक समुदायों के विकास को प्रोत्साहित करने के लिए किए गए हैं। इससे उन्हें शैक्षणिक संस्थान चलाने की आजादी मिलती है और यह भी आश्वासन कि सरकार वित्तीय सहायता में भेदभाव नहीं करेगी क्योंकि यह एक ‘अल्पसंख्यक संस्था’ है।
अलीगढ मुस्लिम यूनिवर्सिटी का गठन कब और कैसे हुआ?
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी की शुरुआत 1875 में मोहम्मडन एंग्लो-ओरिएंटल कॉलेज के रूप में हुई थी। सर सैयद अहमद खान ने शिक्षा में मुसलमानों का पिछड़ापन दूर करने और उन्हें सरकारी सेवाओं के लिए तैयार करने के लिए इस कॉलेज का निर्माण कराया था। सर सैयद महिला शिक्षा के भी समर्थक थे। 1920 में इस संस्था को विश्वविद्यालय का दर्जा दिया गया। जब इसे विश्वविद्यालय का दर्जा मिला तो कॉलेज की सारी संपत्ति विश्वविद्यालय को दे दी गई।
जानिए AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर कब-कब उठा विवाद?
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के अल्पसंख्यक दर्जे को लेकर कानूनी विवाद 1967 में शुरू हुआ था। एएमयू (AMU) के अल्पसंख्यक दर्जे को पहली बार सुप्रीम कोर्ट में ‘एस. अजीज बाशा और अन्य बनाम भारत संघ’ मामले में चुनौती दी गई थी। उस समय भारत के मुख्य न्यायाधीश केएन वांचू के नेतृत्व में कोर्ट ने 1920 के एएमयू एक्ट में 1951 और 1965 में किये गये बदलावों की समीक्षा की। इन परिवर्तनों ने विश्वविद्यालय चलाने के तरीके को प्रभावित किया।
AMU एक्ट में जो मुख्य बदलाव किए गए…
1920 के अधिनियम में कहा गया था कि भारत का गवर्नर जनरल विश्वविद्यालय का प्रमुख होगा लेकिन 1951 में इसे ‘लॉर्ड रेक्टर’ के स्थान पर ‘विजिटर’ कर दिया गया और यह विजिटर भारत का राष्ट्रपति होगा। इसके अतिरिक्त, एक प्रावधान जिसमें कहा गया था कि केवल मुस्लिम ही यूनिवर्सिटी कोर्ट का हिस्सा हो सकते हैं, उसे हटा दिया गया, जिससे गैर-मुसलमानों को भी इसमें शामिल होने की अनुमति मिल गई। इन परिवर्तनों ने विश्वविद्यालय न्यायालय की शक्तियों को कम कर दिया और एएमयू की कार्यकारी परिषद की शक्तियों को बढ़ा दिया। परिणामस्वरूप, न्यायालय प्रभावी रूप से ‘विजिटर’ द्वारा नियुक्त निकाय बन गया। AMU की संरचना में इन बदलावों को सुप्रीम कोर्ट में कानूनी चुनौती का सामना करना पड़ा।
याचिकाकर्ताओं ने मुख्य रूप से इस आधार पर बहस किया कि मुसलमानों ने एएमयू की स्थापना की थी और इसलिए इसे चलाना और प्रबंधन करना उनका अधिकार है। इन संशोधनों की चुनौती पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने 20 अक्टूबर, 1967 को कहा कि एएमयू (AMU) न तो मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा स्थापित किया गया था और न ही चलाया गया था।
1967 में सुप्रीम कोर्ट का फैसला
1967 के फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने AMU के अल्पसंख्यक दर्जे को मंजूरी नहीं दी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि एमएमयू अल्पसंख्यक दर्जा प्राप्त संस्थान होने का दावा नहीं कर सकता। केंद्र सरकार ने भी सुप्रीम कोर्ट में दाखिल अपने हालिया हलफनामे में इस बात पर जोर दिया है कि अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को स्वीकार नहीं किया था। ये बात तो केंद्र के हलफनामे की हुई लेकिन आइए जानते है कोर्ट का आखिरी फैसला क्या था? 1967 के अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर मुसलमानों ने 1920 में भले ही यूनिवर्सिटी खोल लेते तो भी सरकार उनकी डिग्री को मान्यता नहीं देती। इसलिए, न्यायालय ने जोर देकर कहा, एएमयू सरकारी कानून के माध्यम से बनाया गया था ताकि इसकी डिग्री सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त हो। कोर्ट ने कहा कि भले ही कानून मुसलमानों के प्रयासों से पारित हुआ हो लेकिन यह कहना सही नहीं है कि 1920 अधिनियम के तहत निर्मित एएमयू की स्थापना मुस्लिम अल्पसंख्यक द्वारा की गई थी।
इसके साथ ही, सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि 1920 के अधिनियम के अनुसार, विश्वविद्यालय केवल मुसलमानों द्वारा नहीं चलाया जाता था। इसका प्रशासन “लॉर्ड रेक्टर” और अन्य वैधानिक निकायों को सौंप दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने बताया कि भले ही यूनिवर्सिटी कोर्ट में केवल मुस्लिम सदस्य थे, लेकिन जिस समूह ने उनका चयन किया वह पूरी तरह से मुस्लिम नहीं था।
इंदिरा गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को पलटने के लिए एएमयू एक्ट में बदलाव किया
अजीज बाशा मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद देशभर में मुसलमानों ने बहुत ज्यादा विरोध प्रदर्शन किया। नतीजा यह हुआ कि तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार को दबाव के आगे झुकना पड़ा और एएमयू अधिनियम में एक संशोधन लाया गया जिसने स्पष्ट रूप से इसकी अल्पसंख्यक स्थिति की पुष्टि की। इस संशोधन में धारा 2(1) और उपधारा 5(2)(सी) जोड़ी गई, जिसमें कहा गया है कि एक विश्वविद्यालय ‘भारत के मुसलमानों द्वारा स्थापित पसंद का एक शैक्षणिक संस्थान’ है।
2005 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इंदिरा सरकार की कार्रवाई को असंवैधानिक करार दिया
2005 में, एएमयू ने एक आरक्षण नीति लागू की, जिसमें मुस्लिम उम्मीदवारों के लिए स्नातकोत्तर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में 50% सीटें आरक्षित की गईं। इसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, जिसने उसी वर्ष आरक्षण को रद्द कर दिया और 1981 के अधिनियम को रद्द कर दिया। हाई कोर्ट ने एएमयू संशोधन कानून 1981 को गैरसंवैधानिक करार दिया और कहा कि अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। कोर्ट ने तर्क दिया कि एएमयू विशेष आरक्षण बरकरार नहीं रख सकता, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के एस. अजीज बाशा मामले के निर्णय के अनुसार, यह अल्पसंख्यक संस्थान के योग्य नहीं है।
हाई कोर्ट के फैसले को सुप्रीम कोर्ट में दी गई चुनौती, जिस पर चल रही सुनवाई
इसके बाद 2006 में हाई कोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सुप्रीम कोर्ट में कुल 8 याचिकाएं दायर की गईं, जिनमें से एक याचिका केंद्र सरकार की ओर से है। उस समय केंद्र में मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार थी लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली BJP सरकार के सत्ता में आने के बाद एएमयू (AMU) को लेकर केंद्र के रुख में बड़ा परिवर्तन आया। नरेंद्र मोदी सरकार ने 2016 में सुप्रीम कोर्ट को बताया कि वह केंद्र द्वारा दायर अपील वापस ले रही है। सरकार ने तर्क दिया कि वह एक धर्मनिरपेक्ष देश में कोई अल्पसंख्यक संस्थान स्थापित करते हुए नहीं देखा जा सकता। 12 फरवरी, 2019 को तत्कालीन सीजेआई रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की बेंच ने मामले को सात जजों की बेंच को भेज दिया। सीजेआई डी. वाई.चंद्रचूड़, जस्टिस सूर्यकांत, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस दीपांकर दत्ता, जस्टिस जेबी पारदीवाला, जस्टिस मनोज मिश्रा और जस्टिस सतीश चंद्र शर्मा की बेंच ने मामले की सुनवाई शुरू की।
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