यह पावन पुरी हिंदू संस्कृति के उज्ज्वल इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। इसकी गौरव गाथा इतिहास के जन्म काल से भी पुरानी है। वेदों को हमारे मनीषी इतिहास नहीं मानते, क्योंकि इतिहास तो मानव की कृति है, जबकि वेद तो स्वयं सृष्टि के निर्माता पूज्य ब्रह्माजी की वाणी हैं, जिन्हें परम तपस्वी ऋषियों ने अपनी ध्यान समाधि में साक्षात् देखा था।
अयोध्या मात्र एक नगर, एक बस्ती, एक शहर का ही नाम नहीं है। यह पावन पुरी हिंदू संस्कृति के उज्ज्वल इतिहास का स्वर्णिम अध्याय है। इसकी गौरव गाथा इतिहास के जन्म काल से भी पुरानी है। वेदों को हमारे मनीषी इतिहास नहीं मानते, क्योंकि इतिहास तो मानव की कृति है, जबकि वेद तो स्वयं सृष्टि के निर्माता पूज्य ब्रह्माजी की वाणी हैं, जिन्हें परम तपस्वी ऋषियों ने अपनी ध्यान समाधि में साक्षात् देखा था। वे इसीलिए तो पावन मंत्रों के द्रष्टा कहलाए, रचयिता नहीं। इन्हीं वेदों में से एक ‘अथर्ववेद’ में अयोध्यापुरी का माहात्मय इन शब्दों में वर्णित है-
अष्टचक्रा नवद्वारा देवानां पूर्ययोध्या
तस्या हिण्यमय: कोश: स्वर्गो ज्योतिषाकृत:।
(अथर्ववेद 10.2.32)
परवर्ती संस्कृत साहित्य में आदिकवि महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण संभवत: प्राचीनतम ग्रंथ है। इसमें भी अयोध्या नगरी का परिचय अत्यंत विस्तारपूर्वक दिया गया है। इस नगर को भगवान विष्णु का शीर्ष भी कहा गया है तथा मोक्षदायिका सप्त पुरियों में इसका स्थान प्रथम माना गया है। हिंदू पुराख्यान के अनुसार वैवस्वत् मनु ने पृथ्वी पर सर्वप्रथम जिस नगर की स्थापना की, उसका नाम अयोध्या रखा। इस नाम से ध्वनित होता है, एक ऐसा स्थान जहां युद्ध वर्जित हो। अवध भी इसे इसीलिए कहा गया, क्योंकि यहा किसी का वध करने की बात सोची भी नहीं जाती।
मनु के पुत्र इक्ष्वाकु से लेकर भगवान श्रीराम तक सूर्यवंश के 64 महाप्रतापी सम्राटों ने अयोध्या पर शासन किया। समुद्र को सागर नाम की संज्ञा जिनके नाम के कारण प्राप्त हुई, वे यशस्वी महाराज सगर, पतित पावनी मां गंगा को स्वर्ग से भूलोक पर लाकर उसे भागीरथी नाम देने वाले परम तपस्वी राजा भगीरथ, अपने सत्य धर्म की वेदी पर राजपाट, पुत्र, पत्नी और स्वयं को भी अर्पित कर देने वाले धर्मावतार श्री हरिश्चंद्र तथा पश्चिमी एशिया तक अपने राज्य की सीमा को विस्तार देने वाले यशस्वी योद्धा रघु जैसे महान सम्राट इस माला के दिपदिप करते अनमोल मोती हैं।
इस पवित्र नगर के उत्तर में इसकी यश गाथा का कल-गान करती हुई सरयू नदी युगों-युगों से बह रही है। भगवान् विष्णु के नेत्रों से निसृत होने के कारण इसने ‘नेत्रा’ नाम पाया है। मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम के सान्निध्य के कारण ‘रामगंगा’ कहकर धर्मग्रंथ इसका वर्णन करते हैं। यही नहीं, बल्कि महर्षि वशिष्ठ की नदी के कारण इसे ‘विशष्ठी’ भी कहा जाता है। इसी की परमोज्ज्वल निर्मल धारा में ही भगवान् श्रीराम ने जल समाधि लेकर अपने मानव जीवन को अंतिम विराम देते हुए ‘राम-राम’ कहा था। वह तप: पूत नीलवर्णी काया अपनी अद्भुत लीला-माया सहित इसी नदी की लहरों में कहीं विलीन हो गई थी।
हम आज भी इसके सुहाने तट पर खड़े होकर प्रतीक्षातुर नयनों से इसकी विस्तृत जलराशि को ताकते रहते हैं, कि एक बार हां, बस एक बार पल भर को ही सही, परंतु हमारे आराध्यदेव की मनमोहक तथा पाप-शाप-ताप निवारक छवि के दर्शन हमें हो जाएं तो यह जन्म सार्थक हो जाए। सुनते हैं कि प्रतिवर्ष रामनवमी के पावन पर्व पर प्रयागराज स्वयं अयोध्या पधारते हैं और सरयू में डुबकी लगाकर गंगा, यमुना तथा अंत: सलिला सरस्वती के संगम पर तीर्थ यात्रियों द्वारा छोड़े गए पापों से मुक्ति प्राप्त करते हैं।
हिंदू स्नान करते समय अन्य मंत्रों के साथ एक दोहे का भी उच्चारण करते हैं, जिसमें अयोध्या की महिमा का चित्रण है—
गंगा बड़ी गोदावरी तीरथ बड़ा प्रयाग।
सबसे बड़ी अयोध्या जहां राम लिए अवतार।।
अयोध्या सबका तीर्थ
जैन मतावलंबियों के लिए भी अयोध्या का महत्व और महात्म्य बहुत अधिक है। जैन धर्म का तो जन्म ही यहां हुआ था। 24 तीर्थंकरों में से 22 सूर्यवंशी थे और उनमें भी 5 तो अयोध्या में ही हुए हैं, जिनमें प्रथम तीर्थंकर भगवान् आदिनाथ या ऋषभनाथजी भी हैं। बौद्ध धर्म की दृष्टि से भी अयोध्या का महत्व उल्लेखनीय रहा है। साकेत नगरी यही तो है। कोशल की प्राचीन राजधानी यही नगर रहा है। महाप्रतापी राजा प्रसेनजित, महादानी और अनाथ पिंडिक तथा विख्यात दानशीला विशाखा अयोध्या और श्रावस्ती के निवासी थे। भगवान् बुद्ध ने 25 वर्ष श्रावस्ती तथा 16 वर्ष अयोध्या में निवास किया था। बौद्ध भिक्षुओं के लिए अनेक नियमों का स्वरूप अयोध्या में ही निश्चित किया गया। यहां स्थित अनेक टीले आज भी बौद्ध स्तूपों के अवशेषों के प्रमाण बनकर उस महान युग का स्मरण कराते हैं। संस्कृत के महान कवि, नाटककार तथा दार्शनिक अश्वघोष की जन्मभूमि भी अयोध्या ही है।
‘राम’ शब्द मात्र ईश्वर का पर्यायवाची या दशरथनंदन श्रीराम के नाम की सूचक, व्यक्तिवाचक संज्ञा ही नहीं है। इस देश के अमृत-पुत्रों, ऋषि-मुनियों, साधु-संतों, श्रमिकों-कृषकों, यहां तक कि भिक्षुओं के जीवन में इस शब्द की अनिवार्य सत्ता एवं असीम महत्ता सदैव देखी जा सकती है। उनका जन्म भी इसी शब्द के उच्चारण के साथ होता है और मृत्यु के बाद भी इसी की चिरंतन महत्ता का प्रतिपादन करने के लिए शवयात्री ‘राम नाम सत्य है’ का उद्घोष करते चलते हैं। जीवन का हर छोटा-बड़ा कार्य यहां राम नाम लेने के साथ ही प्रारंभ किया जाता है। परस्पर कहीं भी मिलने पर एक-दूसरे की भाषा न समझते हुए भी इस देश के निवासी ‘राम-राम’ के अभिवादन के कारण आपस में स्नेह बंधन में बंध जाते हैं।
‘‘श्रीराम जन्मभूमि पर बने मंदिर को बचाने के लिए हिंदुओं ने जान की बाजी लगा दी। एक लाख चौहत्तर हजार हिंदू वीरों की लाशें गिर जाने के बाद ही मीर बाकी मंदिर में प्रवेश कर सका। तोप के गोले दागकर ही उस मंदिर को गिराया जा सका।’’
– प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता कनिंघम के अनुसार
सतत-संघर्ष का इतिहास
इतिहासकारों के अनुसार बाबर काल में 5, हुमायूं काल में 10, अकबर काल में 20, औरंगजेब काल में 30, नवाब सादत अली के काल में 5, नासिरुद्दीन हैदर के समय 3, वाजिदअली के समय 2, अंग्रेजों के समय 2 तथा प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के कार्यकाल में 1 धर्मयुद्ध हुआ। यानी अयोध्या में राम मंदिर के लिए कुल 78 धर्मयुद्ध हुए, जिनमें अब तक 3.50 लाख हिंदू अपना बलिदान दे चुके हैं। अयोध्या पर हमला करने वाला पहला आक्रांता ग्रीक मिनिऐंडर था, जिसे मिलिंद या मिहिरगुप्त भी कहा जाता है। इसी ने सबसे पहले श्रीराम जन्मभूमि के मंदिर को ध्वस्त किया था। शुंग वंश के सम्राट द्युमत्सेन ने उसे चुनौती दी और तीन माह बाद ही मिलिंद को मार कर अयोध्या को मुक्त करा लिया।
शकारि वीर विक्रमादित्य ने कसौटी पत्थर से निर्मित 84 खंभों पर आधारित एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया। इसके बाद यवन, शक, हूण, कुषाण तथा अन्य आक्रांता भी लगातार हमले करते रहे। अयोध्या पर दूसरी बार महमूद गजनवी के भानजे सालार महमूद ने हमला किया। उसने दो बार आक्रमण किया और अनेक मंदिरों को ध्वस्त करते हुए अयोध्या पहुंचा। हालांकि वह अयोध्या के आसपास कुछ मंदिरों को नष्ट करने में सफल रहा, लेकिन आसपास के राजाओं और दिगंबरी अखाड़े के साधुओं के संयुक्त प्रचंड प्रतिरोध के कारण वह भागकर उत्तर की ओर चला गया, जहां उसका सामना वीर राजा सुहेलदेव से हुआ। 14 जून, 1033 ई. को बहराइच के मोर्चे पर वह अपने सूबेदार सैफुद्दीन सहित सुहेलदेव के नेतृत्व में युद्ध कर रहे 17 अन्य हिंदू राजाओं की संयुक्त सेना के घेरे में फंसकर मारा गया। इस महासंग्राम में मुस्लिम आक्रांताओं को बहुत नुकसान हुआ और अगले 200 वर्षों तक वे हिंदुस्थान की तरफ आने का साहस नहीं जुटा सके।
इसके बाद 1528 में बाबर ने सेनापति मीर बाकी को दो सिरफिरे फकीरों अब्बास और जलालशाह को खुश करने के लिए अयोध्या में बने भव्य श्रीराम मंदिर को ध्वस्त करने का क्रूर आदेश दिया। अब्बास और जलालशाह इसी मंदिर के प्रमुख महंत योगिराज श्यामानंद जी के शिष्य थे। अब्बास ने तो बाकायदा उनसे योग विद्या की शिक्षा ली थी। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता कनिंघम के अनुसार, ‘‘श्रीराम जन्मभूमि पर बने मंदिर को बचाने के लिए हिंदुओं ने जान की बाजी लगा दी। एक लाख चौहत्तर हजार हिंदू वीरों की लाशें गिर जाने के बाद ही मीर बाकी मंदिर में प्रवेश कर सका। तोप के गोले दागकर ही उस मंदिर को गिराया जा सका।’’
(लखनऊ गजेटियर-अंक 36, पृष्ठ 3)
मंदिर को ध्वस्त करने के बाद जलालशाह ने हिंदुओं के खून से गारा बनाकर लखौरी ईंटों से मस्जिद की नींव भरी। यह बात बाराबंकी गजट में स्पष्ट रूप से लिखी हुई मिलती है। बाबरनामा के पृष्ठ 173 पर लिखा है, ‘‘हजरत फजल अब्बास मूसा आशिक्रात कलंदर साहेब की इजाजत से इस मंदिर को तोड़कर इसी की सामग्री और मलबे से मस्जिद बांधी गई है।’’ भीठी नरेश महताब सिंह को जब मंदिर पर आक्रमण की सूचना मिली, वह बदरीनाथ यात्रा पर जा रहे थे।
तीर्थयात्रा बीच में ही स्थगित कर वह सैनिकों के साथ मीर बाकी से जा भिड़े। 17 दिनों तक चले भीषण युद्ध में असंख्य मुगल सैनिकों को मार कर रामभक्त वृद्ध केहरी भी वीरगति को प्राप्त हुए। इसी संदर्भ में हंसवर नरेश के कुल पुरोहित देवदीन पांडेय ने 70,000 योद्धाओं के साथ बाबर की सेना से लोहा लिया। युद्ध में देवदीन पांडेय का सिर फट गया था, लेकिन फेंटा बांधकर एवं असंख्य शत्रु सैनिकों को मौत के घाट उतारने के बाद ही वे धरती पर गिरे। अपनी आत्मकथा ‘तुजुक-ए-बाबरी’ में बाबर ने उनके शौर्य का वर्णन किया है। जब महाराजा रणविजय सिंह को अपने कुल पुरोहित के वीरगति प्राप्त होने की खबर मिली तो वे महारानी जयकुंवरि को सत्ता की बागडोर सौंप कर 25,000 सैनिकों के साथ मंदिर मुक्ति संग्राम में कूद पड़े।
‘‘हिंदुओं के निरंतर हमलों से तंग आकर नवाब ने हिंदुओं व मुसलमानों को साथ-साथ भजन-पूजन और नमाज की अनुमति दे दी। इसके बाद ही संघर्ष शांत हुआ।’’ – कर्नल हंट ने लखनऊ गजेटियर
राजा रणविजय सिंह के बलिदान होने पर महारानी जयकुंवरि ने मोर्चा संभाला, जिसमें उनका साथ आनंद संप्रदाय के महंत स्वामी महेश्वरानंद ने दिया। स्वामी महेश्वरानंद के नेतृत्व में मठों, मंदिरों और अखाड़ों के असंख्य नागा संप्रदायी, गोरक्षपंथी, दिगंबर, निर्मोही, निर्मले और निर्वाणी साधु-संतों ने भी शस्त्र उठा लिए और शत्रु पर टूट पड़े। महारानी तथा स्वामी महेश्वरानंद के छापामार युद्धों से मीर बाकी इतना डर गया कि बाबर को छुट्टी देकर सेनापति को उसके घर ताशकंद भेजना पड़ा।
बाबर के बेटे हुमायूं के शासनकाल में भी महारानी जयकुंवरि तथा स्वामी महेश्वरानंद लगातार हमले करते रहे। उन्हें 10वें हमले में सफलता मिली और श्रीराम जन्मभूमि दो-तीन वर्षों तक आक्रांताओं से मुक्त रही। बाद में मुगलों की विशाल सेना से लड़ते हुए दोनों योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। अकबर के शासन काल में कोयंबतूर से आए रामानुज संप्रदाय के स्वामी बलराम आचार्य ने मुक्ति संग्राम की रणभेरी बजाई। उनके नेतृत्व में हिंदुओं ने 20 आक्रमण किए। अंत में बीरबल और टोडरमल की सलाह पर अकबर ने उस स्थान पर एक छोटा-सा मंदिर बनवाकर पूजा-पाठ करने की अनुमति दे दी।
शाहजहां के समय तक वहां निर्विघ्न पूजा-अर्चना चलती रही। उसी राम चबूतरे पर 90 वर्ष तक भजन-कीर्तन होता रहा और मेले भरते रहे। लेकिन बाद में औरंगजेब ने पुन: श्रीराम मंदिर को ध्वस्त कर दिया। इस कार्य के लिए उसने अपने सिपहसालार जांबाज खां को सेना के साथ भेजा। उस समय अयोध्या के अहल्या घाट पर परशुराम मठ था, जिसमें समर्थ गुरु रामदास के शिष्य बाबा वैष्णवदास रहते थे। उनके साथ चिमटाधारी साधुओं की विशाल शिष्य मंडली भी थी। वे सब चिमटे तथा त्रिशूल लेकर कुछ अन्य योद्धाओं के साथ मंदिर की रक्षार्थ मैदान में कूद पड़े और जांबाज खां को खदेड़ दिया। अगली बार औरंगजेब ने सैयद हसन अली को विशाल सेना के साथ भेजा। तब बाबा वैष्णवदास ने गुरु गोविंद सिंह से संपर्क साधा और वे अपनी दुर्जेय सेना सहित अयोध्या पहुंच गए।
उन्होंने साधु सेना के साथ मिलकर मुगल फौज को धूल चटा दी। हसन अली सआदतगंज के मोर्चे पर मारा गया। अंत में 1664 ई. में औरंगजेब ने विशाल सेना के साथ आक्रमण किया, किंतु तब तक गुरु गोविंद सिंह लौट चुके थे। उसने चबूतरे पर बने लघु मंदिर को खुदवाकर वहां गड्ढा बना दिया, पर देशभर से आने वाले रामभक्त उसी स्थान पर श्रद्धासुमन अर्पित करते रहे। हालांकि मंदिर-मुक्ति का संघर्ष अनवरत चलता रहा। अमेठी के राजा गुरुदत्त सिंह तथा पिपरा के राजकुमार सिंह ने नवाब सादत अली की सेना से मोर्चा लेकर इस क्रम को आगे बढ़ाया। कर्नल हंट ने लखनऊ गजेटियर में लिखा है, ‘‘हिंदुओं के निरंतर हमलों से तंग आकर नवाब ने हिंदुओं व मुसलमानों को साथ-साथ भजन-पूजन और नमाज की अनुमति दे दी। इसके बाद ही संघर्ष शांत हुआ।’’
नवाब नासिरुद्दीन के समय भी संघर्ष की दुंदुभी गूंजती रही। चौथे युद्ध में शाही सेना पराजित हो गई और जन्मभूमि पर हिंदुओं का अधिकार हो गया। परंतु तीन दिन बाद पुन: नवाब की विशाल सेना के हमले के कारण मंदिर उनके हाथ से निकल गया। नवाब वाजिद अलीशाह के समय बाबा उद्धवदास और रामचरणदास ने अपूर्व पराक्रम का परिचय देते हुए राम चबूतरे पर अधिकार करके उस पर पुन: मंदिर का निर्माण कराया। दो दिन तक चले उस भयंकर युद्ध में शाही सेना तटस्थ होकर तमाशा देखती रही। 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में हिंदू-मुस्लिमों को एक करने के लिए अमीर अली ने फैजाबाद और अयोध्या के मुसलमानों के समक्ष प्रस्ताव रखा कि मंदिर हिंदुओं को सौंप दिया जाए। लेकिन मुसलमानों ने इसका कड़ा विरोध किया।
इस सूचना से अंग्रेज चौकन्ने हो गए और उन्होंने अमीर अली और बाबा रामचरणदास को 18 मार्च, 1858 को कुबेर टेकरी पर इमली के पेड़ से लटकाकर फांसी दे दी। सुल्तानपुर गजेटियर में कर्नल मार्टिन ने इस घटना का जिक्र किया है। आजादी से पहले 1934-35 में हिंदुओं ने अपने आराध्यदेव श्रीराम की जन्मभूमि को मुक्त कराने का एक और सफल प्रयास किया एवं फिर से मूर्ति स्थापित कर दी। हालांकि फैजाबाद के डिप्टी कमिश्नर ओ.पी. निकल्सन ने पुन: मस्जिद तो बनवा दी, पर नमाज बंद करा दी। आजादी के बाद जन्मस्थान पर पुन: कीर्तन व रामायण पाठ शुरू हो गया। मुसलमानों की शिकायत पर जिलाधीश कृष्णकुमार नायर ने सिटी मजिस्ट्रेट ठाकुर गुरुदत्त सिंह को फैजाबाद से अयोध्या भेजा। उनके आग्रह पर पूजा-पाठ तो बंद नहीं हो सका, परंतु नमाज पढ़ने की अनुमति बाद में अवश्य मिल गई। साथ ही चौबीस घंटे पहरे का प्रबंध भी कर दिया गया। पर पुलिस संरक्षण के बाद भी मुसलमानों ने नमाज नहीं पढ़ी, क्योंकि वहां मूर्ति स्थापित थी।
मस्जिद निर्माण में दैवीय व्यवधान
श्रीराम मंदिर को ध्वस्त करने के बाद हिंदू वीरों के खून से मंदिर के मलबे का गारा सानकर मस्जिद बनाने का प्रयास बार-बार विफल हुआ। दिन में जितनी दीवार उठाई जाती थी, रात में ढह जाती थी। थक-हार कर बाबर को अयोध्या आना पड़ा। एक अंग्रेज इतिहासकार के अनुसार, उसने अयोध्या से तीन कोस दूर पड़ाव डाला और सात-आठ दिनों तक वहां साधु-संतों से मिन्नतें करता रहा कि वे ही कोई उपाय बताएं। उसने फकीर के हठ का हवाला देकर खुद को निर्दोष बताने का भी प्रयास किया। अपनी नाक बचाने के लिए वह साधु-संतों की कोई भी शर्त मानने पर तैयार हो गया। ‘तुजुक-ए-बाबरी’ में लिखा भी है, ‘‘मीर बाकी ने मुझे पत्र लिखा कि अयोध्या के राममंदिर को ध्वस्त कर जो मस्जिद बनाई जा रही है, उसकी दीवारें शाम को खुद-ब-खुद गिर जाती हैं। मैंने खुद जाकर आंखों से इसे देखा और कुछ हिंदू साधु-संतों को बुलाकर उनके समक्ष यह समस्या रखी। कई दिनों तक गौर करने के बाद उन साधु-संतों ने मस्जिद में कुछ बदलाव करने की सलाह दी, जिनमें पांच बातें प्रमुख थीं- मस्जिद का नाम सीता पाक (सीता रसोई) रखा जाए, परिक्रमा जारी रहे, सदर गुंबद दरवाजे में लकड़ी लगाई जाए, मीनारें गिराने के साथ साधु-संतों को भजन-पाठ करने दिया जाए। उनकी राय मैंने मान ली, तब जाकर मस्जिद तैयार हो सकी।’’
(तुजुक-ए-बाबरी, पृष्ठ 523)
श्रीराम जन्मभूमि पर सरकारी पहरा बैठाने के बाद भी एक आश्चर्यजनक घटना घटी। पहरे पर मौजूद अब्दुल बरकत नामक एक सिपाही ने फैजाबाद के जिलाधीश के.के. नायर के समक्ष दिए अपने बयान में इस चमत्कार के बारे में कहा कि 22-23 दिसंबर, 1941 के बीच की रात करीब दो बजे उसे मस्जिद के अंदर मद्धिम रोशनी दिखी जो बाद में सुनहरी हो गई। इसके बाद मजिस्द में घुंघराले बालों वाले चार-पांच साल के एक सुंदर बच्चे को देखकर वह सकते में आ गया। होश आने पर उसने देखा कि मुख्य द्वार का ताला टूटा हुआ था और मस्जिद में हिंदुओं की भीड़ एक सिंहासन पर रखी मूर्ति की आरती कर रही थी। उस स्थान को विवादित घोषित करते हुए तत्कालीन नगरपालिका अध्यक्ष प्रियदत्त राम को आदाता (रिसीवर) नियुक्त किया गया। 5 जनवरी, 1950 को कार्यभार संभालने के बाद उन्होंने व्यवस्था दी कि पुजारी पूजा कर सकेंगे, जबकि भक्तजन खिड़की से ही रामलला के दर्शन कर सकेंगे। तब से लेकर ताला खोले जाने के दिन 1 फरवरी, 1986 तक यही क्रम चलता रहा।
ऐसे खुला ताला
बाद में विधिवेत्ता उमेशचंद्र पांडेय ने फैजाबाद न्यायालय में याचिका दायर की। उन्होंने तालाबंदी को अनावश्यक और अनुचित बताते हुए तर्क दिया कि जब न्यायालय ने पूजा-अर्चना की अनुमति दे रखी है, तो ताला लगा रहने पर कोई कैसे पूजा कर सकता है? अदालती जांच में पाया गया कि मंदिर में ताला बिना न्यायालय के आदेश के लटका हुआ है। बहरहाल, 1 फरवरी, 1986 को फैजाबाद न्यायालय ने मंदिर का ताला खोलने का आदेश दिया। इसके बाद, अगस्त 1988 में देशभर के मुसलमानों ने धमकी दी कि वे श्रीराम मंदिर में नमाज पढ़ने के लिए एक छोटा और दूसरा बड़ा प्रयाण करेंगे। 8 अक्तूबर, 1988 को मुसलमानों की उत्तेजक घोषणा के विरोध में उत्तर प्रदेश की सभी शिक्षण संस्थाएं बंद रहीं। 12 से 14 अक्तूबर तक उत्तर-प्रदेश में ऐतिहासिक बंद रखा गया। तब बजरंग दल ने दिल्ली की जामा मस्जिद में ‘हनुमान चालीसा’ का पाठ करने की घोषणा की। यही नहीं, राजस्थान, महाराष्ट्र तथा मध्य प्रदेश के अनेक युवा संगठनों ने भी अपने-अपने क्षेत्रों में स्थित मस्जिदों में कीर्तन करने तथा हनुमान चालीसा पढ़ने की घोषणा कर दी। इसके बाद अयोध्या के श्रीराम मंदिर में नमाज पढ़ने की धमकी देने वाले मियां शहाबुद्दीन ने अपना फैसला वापस ले लिया।
प्रयाग में 1989 के महाकुंभ में देशभर से आए असंख्य संतों ने पूज्य देवराहा बाबा के सान्निध्य में 30 सितंबर से गांव-गांव ‘श्रीराम’ नाम से अंकित राम शिलाएं ले जाने और उनका पूजन करने की घोषणा की। यह निर्णय लिया गया कि देश के हर गांव के सभी घरों से पूजित शिलाएं प्रखंड स्तरों पर श्रीराम महायज्ञ का आयोजन करते हुए 9 नवंबर, 1989 को अयोध्या पहुंचेगीं। देवोत्थान एकादशी (9 नवंबर) को भूमि पूजन तथा 10 नवंबर को श्रीराम मंदिर का शिलान्यास किया जाएगा। सर्वप्रथम श्रीराम शिला का पूजन 19 अगस्त, 1989 को श्रीबदरीनाथ मंदिर में श्रीज्योतिषपीठ के वरिष्ठ शंकराचार्य पूज्य श्री स्वामी शांतानंदजी महाराज द्वारा संपन्न हुआ। तमाम पाबंदियों के बीच देश ही नहीं, दुनियाभर के 30 देशों से श्रीराम शिलाएं अयोध्या पहुंचीं। इधर, शिला-पूजन अभियान चल रहा था और उधर कांग्रेस सरकार ने न्यायालय से स्थगन आदेश प्राप्त करने का प्रयास किया, परंतु उसे सफलता नहीं मिली। कांग्रेस शासन ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक याचिका दायर कर शिलान्यास रुकवाने का प्रयास किया। 7 नवंबर को न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रस्तावित स्थल पर शिलान्यास नहीं हो सकता।
9 नवंबर, 1989 को देवोत्थान एकादशी के दिन भूमि पूजन किया गया। 10 तारीख को दोपहर एक बजकर, 35 मिनट पर भगवान श्रीराम के भव्य मंदिर की प्रथम शिला नींव में रखी गई। धर्माचार्यों ने श्रीराम मंदिर की प्रथम पवित्र आधारशिला एक हरिजन बंधु कामेश्वर प्रसाद चौपाल के हाथों वेद मंत्रों के साथ रखवाई। यह शिला बांग्लादेश में किए गए 56 यज्ञों की पावन भस्म से तैयार की गई थी। इसी के साथ गुप्तदान में मिली चांदी की एक ठोस शिला, वासुकी एवं कच्छप की स्थापना के साथ कूप में श्रीराम की एक प्रतिमा भी रख दी गई। इस स्थल पर प्रस्तावित मंदिर का परिमाप इस प्रकार निर्धारित किया गया— 212 खंभों वाले मंदिर की कुल-लंबाई 270 फुट, चौड़ाई 126 फुट तथा ऊंचाई 132 फुट होगी। गर्भगृह की लंबाई-चौड़ाई 20-20 फुट तथा रंग मंडप व नृत्य मंडप 63-63 फुट लंबे-चौड़े होंगे। आंध्र के मुसलमान बंधु अकबर पाशा तथा मध्य प्रदेश के मुस्लिम नेता सलीम शाह ने शिला पूजन के साथ भाषण करते हुए अपने मजहबी बंधुओं से राम-जन्मभूमि हिंदुओं को सौंपने की अपील की।
मुकदमे और पेशियां
1885 ई. में महंत रघुवरदास ने जिला अदालत में गुहार लगाई कि हमारे रामलला का जन्म स्थान अयोध्या में वही स्थान है, जिसे बाबरी मस्जिद कहा जा रहा है। हमें उस परिसर में मंदिर बनाने की इजाजत दी जाए। उन्होंने अपने पुरखों से सुन रखा था कि बाबर के आदेश पर उसके सेनापति मीर बाकी ने 1528 ई. में राममंदिर को तोड़ कर वहां मस्जिद का निर्माण कराया। उन्हें यह जानकारी भी थी कि गोस्वामी तुलसीदास ने 30 मार्च, 1574 को अयोध्या के उसी मंदिर में अपने रामजी के चरणों में माथा टेककर अपने प्रसिद्ध ग्रंथ रामचरितमानस की रचना आरंभ की थी। शोध के बाद उन्हें यह भी पता चला कि औरंगजेब के रिश्तेदार फिदाई खान ने 1660 ई. में अयोध्या में तीन मंदिर तोड़े, जिनमें पूर्वोक्त राम मंदिर भी शामिल था। आई.पी.एस. अधिकारी कुणाल किशोर जो श्री विश्वनाथ प्रताप सिंह एवं श्री चंद्रशेखर के प्रधानमंत्रित्व काल में अयोध्या मुद्दे के वार्ताकार भी रहे, के अनुसार बाबर तो अयोध्या कभी गया ही नहीं। हिंदू जनता को 1767 ई. में छपी आस्ट्रिया से आए फादर जोजेफ टिफेनथलोर की पुस्तक ‘डिस्क्रिप्टो इंडिया’ की जानकारी भी हो चुकी थी, जिसके अनुसार मंदिर के भीतर काले ग्रेनाइट की वेदी थी, हिंदू जिसकी तीन बार परिक्रमा करते थे।
- 1949 में विवादित ढांचे में भगवान राम की प्रतिमा मिली। इस पर विवाद हुआ और दोनों पक्ष अदालत पहुंचे। सरकार ने उस स्थान को ही विवादित घोषित कर दिया।
- 1950 में गोपाल सिंह विशारद ने फैजाबाद अदालत में याचिका दायर कर रामलला की पूजा करने की अनुमति मांगी। महंत रामचंद्रदास ने भी पूजा जारी रखने की आज्ञा मांगी। इसी साल अदालत ने पहली बार मस्जिद को ढांचा कहा।
- निर्मोही अखाड़े ने 1959 में अदालत से मांग की कि विवादित स्थान पर उनका अधिकार मान्य किया जाए। सुन्नी वक्फ बोर्ड की उत्तर प्रदेश शाखा ने भी दावा ठोक कर मालिकाना हक मांगा।
- 1986 में जिला मजिस्ट्रेट ने हिंदुओं की अपील पर पूजा करने और विवादित स्थल पर लटका ताला खोलने की अनुमति भी दी।
- 1994 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने विवादित ढांचा ध्वंस की सुनवाई शुरू की। अदालत ने तीन वर्ष बाद 49 लोगों को आरोपी ठहराया, जिनमें लालकृष्ण आडवाणी, डॉ. मुरलीमनोहर जोशी और कल्याण सिंह भी शामिल थे।
- 2002 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय की लखनऊ खंडपीठ में मामले की सुनवाई शुरू हुई।
- 30 सितंबर, 2010 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के तीन जजों की पीठ ने विवादित भू-खंड पर निर्णय दिया। इसमें 2.77 एकड़ भूमि को तीन भागों में बांटकर राम मंदिर, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड को दे दिया। न्यायमूर्ति सुधीर अग्रवाल व न्यायमूर्ति एस.यू. खान ने बीच का गुंबदवाला स्थान जहां रामलला विराजमान हैं, हिंदू समुदाय को दिया। लेकिन न्यायमूर्ति डी.वी. शर्मा इससे सहमत नहीं थे। उनका मानना था कि बाबर के आदेश से भगवान राम का मंदिर तोड़ा गया था। इसलिए पूरे परिसर का स्वामित्व हिंदुओं का है। लेकिन अदालत के फैसले से तीनों दावेदार श्रीराम जन्मभूमि न्यास, निर्मोही अखाड़ा और सुन्नी वक्फ बोर्ड संतुष्ट नहीं थे। इसलिए अपने-अपने दावों और तर्कों-प्रमाणों के साथ वे सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गए।
- सर्वोच्च न्यायालय ने 9 मई, 2011 को 30 सितंबर, 2010 के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय पर रोक लगाते हुए 7 जनवरी, 1993 की स्थिति बहाल की।
- 2016 में 95 वर्ष की आयु में हाशिम अंसारी दिवंगत हुए। वे 28 वर्ष की आयु से यह मुकदमा लड़ते आ रहे थे।
- 6 अगस्त, 2019 से सर्वोच्च न्यायालय ने मामले की नियमित सुनवाई शुरू की, जो 40 दिनों तक चली। 16 अक्तूबर को न्यायालय ने फैसला सुरक्षित रख लिया।
- 9 नवंबर, 2019 को शीर्ष अदालत की पांच सदस्यीय संवैधानिक पीठ ने सर्वसम्मति से ऐतिहासिक निर्णय सुनाया। मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पीठ में न्यायमूर्ति एस.ए. बोबड़े, न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति अशोक भूषण और न्यायमूर्ति एस. अब्दुल नजीर भी थे। फैसला 1045 पृष्ठों में लिखा गया। रामजन्मभूमि न्यास के पक्षकार और पैरोकार वरिष्ठ अधिवक्ता के. परासरन की आयु 92 वर्ष थी। पद्म भूषण एवं पद्म विभूषण से सम्मानित परासरन वेद और पुराणों के अद्भुत ज्ञाता हैं।
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