‘जय रामजी की’ या ‘राम-राम’ के संबोधन से जहां लोगों की सुबह होती है और जीवन का सूरज डूबने पर भी जिस समाज की यात्रा ‘राम नाम सत्य है’ उच्चारते हुए आगे बढ़ जाती है वह धरती विशेष है, यहां के लोग विशेष हैं। राम जो सबको दिशा-भरोसा देते हैं। निषाद के दाता राम। अहिल्या-शबरी के त्राता राम। सुग्रीव-भरत के सखा-भ्राता .. सब राम ही तो हैं।
श्रीराम से जुड़े प्रतीक चिन्ह हमारी जिज्ञासा को शांत करने के लिए हमेशा से सब कुछ कहते रहे हैं।पहले वह बात जो बाबा तुलसी ब ता गए-
जामवंत बोले दोउ भाई।
नल नीलहिं सब कथा सुनाई॥
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं।
करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं॥
जामवंत ने नल-नील, दोनों भाइयों को बुलाकर कहा, ‘‘मन में श्रीरामजी के प्रताप को स्मरण करके सेतु तैयार करो, प्रभु के प्रताप से कुछ भी परिश्रम नहीं होगा।’’
अब जिक्र उन समाचारों का जो दुनिया को मथ रहे हैं
एक अमेरिकी टीवी चैनल ‘साइंस’ ने शोध के बाद दावा किया कि रामसेतु प्राकृतिक रूप से बना हुआ नहीं, बल्कि इसे बनाया गया है। इस शोध में रामसेतु को ‘एनशिएंट लैंड ब्रिज’ नाम से संबोधित किया गया और अमेरिकी पुरातत्वविदों ने वैज्ञानिक जांच से पाया कि रामसेतु की चट्टानें तो सात हजार साल पुरानी हैं जबकि जिस बालू पर ये चट्टानें टिकी हैं, वह केवल 4,000 साल पुराना है। स्पष्ट है, बाबा तुलसी ने जो बातें कहीं और विज्ञान ने शोध से जो बातें पता कीं, वे वही थीं जो हम जानते रहे हैं।
अब बात उस महायज्ञ की जो अयोध्या में चल रहा है। अयोध्या के इस महायज्ञ का आयोजन भी वैज्ञानिकता की अग्निपरीक्षा के बाद ही हो रहा है। कुछ लोगों ने राम को ‘काल्पनिक’ बताया था, रामसेतु को ‘काल्पनिक’ बताया था, अयोध्या में जन्मस्थान पर मंदिर होने को ‘काल्पनिक’ बताया था, मस्जिद को पहले बताया था…। इन कहानियों को सिद्ध करने के बाद ही अयोध्या का यह महा आयोजन हो रहा है, इसलिए यह अवसर विशेष है। यह अवसर इसलिए भी विशेष है कि हम समय-चक्र में उस जगह खड़े हैं जब सदियों के संघर्ष के बाद सत्य की स्थापना के साक्षी बन रहे हैं।
अयोध्या होने का अर्थ
पीछे से आ रहे पदचिन्हों पर दृष्टि डालें तो पूरी स्पष्टता के साथ कई तरह की आकृतियां दिखती हैं- भूगोल की ताजा रेखाओं की सीमाओं के बाहर व्याप्त भरत-भूमि, इस भूमि के हृदय-स्थल पर आक्रांताओं का ग्रहण और इससे निकलने की सदियों की व्याकुलता, किसी आस्था की विशुद्ध वैज्ञानिकता की अग्नि-परीक्षा से तेजोदीप्त होकर निकलने का अनूठा उदाहरण और कण-कण में ईश्वर को देखने की प्रकृति-दृष्टि का प्रतिष्ठापन। यही है राम और उनकी अयोध्या।
अयोध्या-मात्र शब्द नहीं, पूरा आख्यान है। इस शब्द का अर्थ है-अ-युध्य। अर्थात् जिससे युद्ध नहीं किया जा सकता। जिसे जीतना असंभव है। इतिहास साक्षी है कि इस अयोध्या को जीतने के लिए बर्बर प्रयास हुए। श्रीरामचरितमानस के रचयिता महाकवि गोस्वामी तुलसीदास ने दोहाशतक में लिखा है-
मंत्र उपनिषद् ब्राह्मनहुँ बहु पुरान इतिहास।
जवन जराये रोष भरि करि तुलसी परिहास।।
सिखा सूत्र से हीन करि, बल ते हिंदू लोग।
भमरि भगाये देश ते, तुलसी कठिन कुजोग।।
बाबर बर्बर आइके, कर लीन्हे करवाल।
हरे पचारि पचारि जनल, तुलसी काल कराल।।
संबत सर वसु बान भर नभ, ग्रीष्म ऋतु अनुमानि।
तुलसि अवधहिं जड़ जवन, अनरथ किए अनखानि।।
राम जनम महिं मंदिरहिं, तोरि मसीत बनाय।
जबहि बहु हिंदुन हते, तुलसी कीन्ही हाय।।
दल्यो मीर बाकी अवध, मंदिर राम समाज।
तुलसी रोवत हृदय हृति, त्राहि त्राहि रघुराज।।
राम जनम मंदिर जहँ, लसत अवध के बीच।
तुलसी रची मसीत तहँ, मीर बाकी खल नीच।।
रामायन धरि घंट जहँ, श्रुति पुरान उपखान।
तुलसी जवन अजान तहँ, कुरान अजान।।
इतिहास इसका भी साक्षी है कि ये बर्बर प्रयास अंतत: परास्त ही हुए। समय की प्रस्तरशिला पर प्रबलतम आघात को सरयू की रेती सा बारीक घिस देने वाली है अयोध्या।
अयुध्य क्यों है अयोध्या?
क्योंकि यह राममय है। धर्म अर्थात् कर्तव्य आधारित सोच जो पितृ-धर्म, पुत्र-धर्म, स्त्री-धर्म, गुरु-धर्म, शिष्य-धर्म, राष्ट्र-धर्म जैसे नाना प्रकार के कर्तव्यों की बात करते हुए सह-अस्तित्व का उत्कर्ष है। एक ऐसा सोच जो न्याय के प्रतिष्ठापन के लिए प्रतिबद्ध है और चर-अचर में परमात्मा को देखने की दृष्टि से संचालित। चूंकि यह दृष्टि सीमित और निहित स्वार्थों की पोषक नहीं, इसलिए सहज सर्व-स्वीकार्य और कालातीत है, अजेय है। ‘जय रामजी की’ या ‘राम-राम’ के संबोधन से जहां लोगों की सुबह होती है और जीवन का सूरज डूबने पर भी जिस समाज की यात्रा ‘राम नाम सत्य है’ उच्चारते हुए आगे बढ़ जाती है वह धरती विशेष है, यहां के लोग विशेष हैं। राम जो सबको दिशा-भरोसा देते हैं। निषाद के दाता राम। अहिल्या-शबरी के त्राता राम। सुग्रीव-भरत के सखा-भ्राता .. सब राम ही तो हैं।
क्या रामजन्मभूमि के प्रश्न पर लड़ाई मुसलमानों से थी?
इसमें संदेह नहीं कि हम इतिहास के अनमोल पल का हिस्सा बन रहे हैं। किंतु इस अवसर पर हमें यह भी देखना होगा कि पांच-एक सौ साल की यह अयोध्या यात्रा की सीख क्या हैं। हम अपने ही अनुभवों से अगर सीख नहीं लेंगे तो भूत अपने को दोहराएगा, विचलन लाएगा, फिर बलिदान मांगेगा। इसलिए उत्सव के इस उजाले से धुंधलके में लिपटे उन प्रश्नों का साफ होना जरूरी है जो समाज को उलझन और आक्रोश में धकेलते रहे, आपस में लड़ाते रहे। प्रश्न है कि 500 वर्ष से जारी यह लड़ाई किसकी थी? कौन किससे लड़ रहा था? क्या यह लड़ाई सरकार से थी या फिर मुसलमानों से?
ध्यान से देखेंगे तो पाएंगे कि यह लड़ाई किसी सत्ता या वर्ग से थी ही नहीं। इसे अन्याय के विरुद्ध आधुनिक इतिहास का सबसे बड़ा सामाजिक आंदोलन कहना अधिक सही होगा। शासन के विरुद्ध आंदोलन सत्ता पलटने और सत्ता हासिल करने के चक्र में घूमकर रह जाते हैं। किंतु समाज को बार-बार एक साथ लाने वाले इस आंदोलन की विशेषता रही कि न तो राजसिंहासन इसकी इच्छा के केंद्र में था और न ही समुदाय विशेष से प्रतिशोध। 1528 में जब बाबर के फौजदार मीर बाकी ने मंदिर को तोड़ा तो अयोध्या के निकट हंसवर रियासत के राजा रणविजय सिंह, भीठी रियासत के राजा महताब सिंह, रानी जयराज कुंवरि और राजगुरु पं. देवीदीन पांडेय ने एकजुट होकर युद्ध छेड़ दिया।
यह लड़ाई बाबर के तख्तो-ताज के लिए नहीं, जमीन के उस पावन खण्ड के लिए थी जिसके कण-कण में ‘ठुमक चलत रामचन्द्र’ की स्मृतियां बसी थीं। उस संघर्ष में करीब 1,75,000 हिंदुओं की लाशें गिरने की बात लॉर्ड कनिंघम ने लखनऊ गजट में लिखी है। क्या एक स्थान के लिए ऐसा भारी बलिदान देने के बाद भी हिंदुओं ने मुसलमानों से व्यवहार बंद किया? नहीं!
6 दिसम्बर, 1992 को लाखों रामभक्तों के सम्मुख अपमानकारी ढांचा भरभराकर गिर गया, किन्तु इस स्थान के अतिरिक्त अयोध्या में किसी मुसलमान या किसी मस्जिद पर किसी ने कोई कंकरी उछाली? नहीं! इसलिए कि यह अन्याय के विरुद्ध था, मुसलमानों के नहीं। इसे लोहा लेना था न्यायद्रोहियों से, न कि किसी समुदाय विशेष से।
क्या मुसलमान हिंदुओं से लड़ रहे थे?
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या वास्तव में मुसलमान इस मामले पर हिंदुओं से लड़ रहे थे? निश्चित ही नहीं! पहले तो यह समझें कि अयोध्या इस देश को विभाजित करने वाली फांस नहीं, बल्कि हिंदू, मुसलमान, सिख, जैन, बौद्ध सबके दिलों को जोड़ने वाला सेतु है। यह उस इक्ष्वाकु वंश के जैन तीर्थंकरों की जन्मस्थली है, जिसमें स्वयं प्रभु रामचन्द्र का जन्म हुआ।
जन्मभूमि वह स्थान है जिसके दर्शन करने (1510-11 में) स्वयं गुरुनानक देव जी पधारे थे। वास्तव में 1857 में ब्रिटिश राज के विरुद्ध छिड़ा प्रथम स्वतंत्रता आंदोलन वह पहला मौका था जब हिन्दू-मुसलमान मिलकर अंग्रेजों से लड़े। दोनों ने एकता की शक्ति को समझा और यह भी कि ‘बाबरी’ दोनों के बीच विवाद की जड़ है। तब मुस्लिम नेता मौलाना अमीर अली ने मुसलमानों से आह्वान किया था, ‘‘फर्जे इलाही हमें मजबूर करता है कि हिन्दुओं के खुदा रामचंद्र जी की पैदाइशी जगह पर जो बाबरी ‘मस्जिद’ बनी है, वह हम हिन्दुओं को बाखुशी सुपुर्द कर दें, क्योंकि हिन्दू-मुस्लिम नाइत्तफाकी की सबसे बड़ी जड़ यही है…।’’
अंग्रेज यह बात भांप गए कि हिंदू-मुस्लिम एकता और इस देश के दिलों को जोड़ने वाली राम की शक्ति उनके लिए कितनी खतरनाक हो सकती है। सो, जन्मभूमि विवाद को समाप्त करने के लिए आवाज उठाने वाले मौलाना अमीर अली तथा हनुमान गढ़ी के महंत बाबा रामचरण दास को अंग्रेजों ने 18 मार्च, 1858 को अयोध्या में हजारों हिन्दुओं और मुसलमानों के सामने कुबेर टीले पर फांसी दे दी।
तो कौन किससे लड़ रहा था?
अगला सवाल यह उठता है कि यदि इस मुद्दे पर हिंदुओं की लड़ाई मुसलमानों से नहीं थी, मुसलमानों की लड़ाई हिंदुओं से नहीं थी तो फिर कौन किससे लड़ रहा था? जवाब के लिए 70 वर्ष चले उस मुकदमे के कुछ दिलचस्प प्रकरणों से गुजरना होगा जब मुस्लिम समुदाय की आड़ में न्यायालय और समाज को गुमराह करते ‘छलिया’ वामपंथी रंगेहाथ पकड़े गए। इतिहास समय के फलक पर घटता है। इसे घटाया-बढ़ाया, बदला नहीं जा सकता। मंदिर के अस्तित्व को नकारने वाले इतिहासकारों की कड़ी में अग्रणी इरफान हबीब मार्क्सवादी ठप्पे के इतिहासकार हैं। इतिहास की कसौटी कहती है कि यदि कोई किसी वाद या पूर्वाग्रह से ग्रस्त है तो इतिहासकार नहीं और वामपंथ का तकाजा है कि मजहबी आस्था-पहचान है तो वामपंथी नहीं। फिर इरफान हबीब क्या हैं? न मुसलमान, न ही इतिहासकार!
डी.एन. झा और हबीब जैसे लोग मुस्लिम पैरोकारी के चोगे में अपना अलग एजेंडा लिए बैठे थे। गौर करने लायक बात है कि दोनों बुद्धिजीवी भारतीय पुरातात्विक विशेषज्ञों को नकारते हुए जिस फ्रांसिस बुकानन के संदर्भ उछाल रहे थे, वह वनस्पतिशास्त्र और प्राणिशास्त्र का जानकार ब्रिटिश फौजी था, इतिहासकार नहीं। भारतीय पुरातत्व विभाग पर सवाल उठाने वाले एक और वामपंथी विद्वान थे सुरेश चंद्र मिश्र। इनकी दो गवाही हुई।
पहली पेशी में इन्होंने बताया कि बाबरी ढांचे में फारसी में एक शिलालेख लगा था। दूसरी बार बोले कि शिलालेख अरबी में था! आखिरकार यह बात खुल ही गई कि उन्हें न तो अरबी आती है, और न फारसी। हां, राजनीति जरूर आती रही होगी। वामपंथ की ओर से थोथे ज्ञान का तीसरा नमूना सुवीरा जायसवाल ने प्रस्तुत किया। जन्म स्थान पर मंदिर न होने की बात तो उन्होंने जोरदार तरीके से कही मगर अपनी बात के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं दे सकीं। एक अन्य वामपंथी बुद्धिजीवी सुशील श्रीवास्तव भी मुस्लिम पक्ष की ओर से गवाह के रूप में आए। मामले की जटिलताओं पर जरा सी चर्चा से यह खुलासा हो गया कि उन्हें न तो फारसी आती है, न अरबी, न संस्कृत और न ही उन्हें इतिहास की ठीक जानकारी है।
पुरातात्विक साक्ष्यों को नकारने और हिंदू-मुसलमान पक्षों के बीच बहस गरमाए रखने का यह वामपंथी एजेंडा मुस्लिम मुखौटे की आड़ में कई बरस चला। इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने तो इस खेल को उजागर करने वाली एक कड़ी टिप्पणी भी की। अदालत ने कहा, ‘‘जिन लोगों को ‘स्वतंत्र’ गवाह बताकर अदालत में प्रस्तुत किया गया है वे सब आपस में संबंद्ध हैं। एक ने दूसरे के मार्गदर्शन में पीएचडी की है, तो दूसरे ने तीसरे के साथ मिलकर किताब लिखी है।’’
अर्थात् यह लड़ाई समाज में सह-अस्तित्व के सोच को आचारबद्ध करने की राममय प्रकृति के विरुद्ध थी। इसे विदेशी आक्रांताओं से लेकर कुछ देसी तत्व लड़ रहे थे जिनके अपने-अपने स्वार्थ थे। किसी में भरत-भूमि की राममय संस्कृति को विस्थापित कर एक क्षुब्ध प्रभुसत्ता को स्थापित करने की ललक थी, तो कुछ देसी ताकतों को उस प्रभुसत्ता के वरदहस्त से कुछ पाने की उत्कंठा।
कण-कण में ‘ठुमक चलत रामचन्द्र’ की स्मृतियां बसी
निषाद के दाता राम। अहिल्या-शबरी के त्राता राम।
सुग्रीव-भरत के सखा-भ्राता .. सब राम ही तो हैं
इस महायज्ञ में हमारा योगदान क्या हो।
सो, वापस चलते हैं समुद्र के किनारे।
जब पूरी सेना रामसेतु बनाने में व्यस्त थी
तो श्रीराम का ध्यान एक गिलहरी पर था।
वह समुद्र के किनारे जाती, लोटती-पोटती,
बालू के कुछ कण उसके शरीर से चिपक जाते
और वह उन्हें पुल पर झाड़ आती।
सियासी बिसात
प्रश्न यह भी है कि क्या सेकुलर होने की ताल ठोकती राजनीति इस मुद्दे से अलिप्त रह पाई? गौर करने पर पता चलता है कि खुद अपनी अचकन पर ‘सेकुलर-प्रगतिशील’ होने का बिल्ला टांकने वाले राजनीतिक दल इस मुद्दे को साम्प्रदायिक रंग देने में सबसे आगे रहे। बिना विषय की पृष्ठभूमि और गंभीरता को जाने नेहरू, अपनी सीमित राजनीतिक समझ और कुछ मुस्लिम लोगों के प्रभाव में, इस स्थान से बलपूर्वक मूर्तियां हटाने का आदेश जारी करने की हद तक बढ़ गए थे। कहना होगा कि जनमानस के हृदय से जुड़ा यह मुद्दा सही मायनों में कोई राजनीतिक दल सिर माथे लेकर चला तो वह है भारतीय जनता पार्टी।
1 फरवरी, 1986 को जन्मभूमि के द्वार पर लगा ताला खुला तो इसका श्रेय भी कांग्रेस की भलमनसाहत को नहीं जाता, बल्कि देशभर में रथयात्रा के उत्साहपूर्ण वातावरण की पृष्ठभूमि में और शाहबानो केस में मुस्लिम महिलाओं पर अन्याय को वैधानिक तौर पर सही ठहराने के बाद प्रधानमंत्री राजीव गांधी के लिए यह तुष्टीकरण के धब्बे से बचने की मजबूरी और देश में राम मंदिर के लिए उत्तरोत्तर प्रबल होते उफान को थामने की कवायद थी।
अयोध्या और संविधान
काल-चक्र में आज हमारे यहां की व्यवस्था संविधान से चलती है। यह हमारे द्वारा, हमारे लिए बनाई गई व्यवस्था है जो सर्वहित समभाव की भावना को बनाए रखते हुए बदलाव की खिड़की खोले रखने की प्रतिबद्धता जताती है। जो सीख हमें अयोध्या की यात्रा से मिलती है, कुछ वैसे ही संकेत तो हमारे संविधान निर्माताओं ने भी दिए थे। ख्यात चित्रकार नंदलाल बोस द्वारा संविधान की मूल प्रति में चित्रित श्रीराम, कृष्ण, महावीर, बुद्ध की सांस्कृतिक झांकियों में साहचर्य, शुचिता और नैतिकता के सूत्र हैं। खुद बाबासाहेब ने अपने एक आलेख में भारत का वर्णन एक ऐसे देश के रूप में किया है जिसके उत्तर में विशाल पर्वतमालाएं हैं और दक्षिण में अनंत जलराशि, एक ऐसा देश जो ऊपरी तौर पर वानस्पतिक, जैवीय और सामाजिक विविधता से भरा है, किन्तु जिसका मूल ‘एकात्मता’ है। सो हम कह सकते हैं कि अपने संविधान में भी विविधता को साधने वाली राममय दृष्टि का विस्तार मिलता है। यह सोच एक ही व्यक्ति, इकलौती एकपक्षीय किताब या एक ही देवता (या शक्ति केंद्र) जैसा कठोर, निर्मम और रूढ़ सोच से अलग और वास्तव में प्रगतिशील है।
किन्तु साथ ही यह भी सच है कि देश की रक्षा-सुरक्षा केवल संविधान नहीं, इसे लागू करने, अपनाने वालों की भावना पर निर्भर करती है। देश की संस्कृति और इसकी स्वतंत्रता की रक्षा और संविधान निर्माताओं का सोच बाबासाहेब के उद्धरणों में बार-बार झलकता है।
संविधान सभा में दिया गया उनका भाषण स्वतंत्रता की गारंटी के प्रश्न पर सांस्कृतिक संदर्भों से भरा है। उन्होंने कहा था, ‘‘यह देश आगे गुलाम नहीं होगा, इसकी क्या गारंटी है? हमको आगे पराधीनता का मुंह नहीं देखना पड़ेगा इसकी क्या गारंटी है? जब ‘दाहिर’ आक्रमणकारियों से लड़ रहा था तो उसी की सेना के लोग मीर कासिम की सेना से जाकर मिल गए। पृथ्वीराज चौहान जब मोहम्मद गोरी से लड़ रहा था तो उसी के लोग जाकर मोहम्मद गोरी से मिल गए। जब यह देश अंग्रेजों से लड़ रहा था तो इस देश के लोग अंग्रेजों से जाकर मिल गए…’’
संविधान सभा में बाबासाहेब का यह अंतिम भाषण है। देशभक्ति का आह्वान करता और ऐतिहासिक गद्दारियों की खबर लेता। अयोध्या की यह यात्रा भी यही सीख देती है। राज की नीति के स्थान पर जन की नीति का प्रतिष्ठापन, छोटे और अल्पकालिक स्वार्थ के लिए समाज की संरचना के धागे को अलग-अलग कर उनके रंगों के भौंडे प्रयोग से हमारे आसपास बड़े और दीर्घकालिक दुष्प्रभावों को जन्म देने वालों की खोज-खबर लेते हुए न्यायप्रिय सर्वहितकारी राममय समाज की स्थापना करना और इसे अक्षुण्ण रखने की सीख है जो अयोध्या की इस यात्रा से मिलती है।
अब बात इसकी कि इस महायज्ञ में हमारा योगदान क्या हो। सो, वापस चलते हैं समुद्र के किनारे। जब पूरी सेना रामसेतु बनाने में व्यस्त थी तो श्रीराम का ध्यान एक गिलहरी पर था। वह समुद्र के किनारे जाती, लोटती-पोटती, बालू के कुछ कण उसके शरीर से चिपक जाते और वह उन्हें पुल पर झाड़ आती। यही क्रम बार-बार चल रहा था। लक्ष्मण की शंका के समाधान के लिए श्रीराम ने जब गिलहरी से पूछा कि वह क्या कर रही है तो उसने कहा कि वह इस पुण्य कार्य में अपना योगदान कर रही है। जितना कर सकती है, कर रही है। हम सबके लिए इससे बड़ा संदेश क्या हो सकता है। हम वह करें जो कर सकते हैं। पाञ्चजन्य परिवार ने सत्य के लिए संघर्ष में सतत-साहसी बौद्धिक योगदान किया, आप अपने तरीके से करें। जिसकी जैसी सामर्थ्य!
राम सबके हैं, यह काम हम सबका है!
@hiteshshankar
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