कश्मीर में शासन करने वाले राजनेता भी अपना रुख बदलते रहे और सहानुभूति हासिल करने के लिए तरह-तरह के मुखौटे पहनते रहे। जैसे नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता जब दिल्ली में होते हैं, तो वे खुद को कट्टर राष्ट्रवादी के रूप में चित्रित करते हैं, लेकिन जब वे कश्मीर में कदम रखते हैं, तो उनका पाकिस्तान समर्थक अलगाववाद सतह पर आ जाता है। इस प्रकार की राजनीति के कारण भारतमाता के मस्तक का मुकुट जम्मू-कश्मीर लगातार घायल बना रहा है।
कहा जाता है कि ‘इतिहास नग्न सत्य को उजागर कर देता है। अगर देखने वाले आंखों से वंचित हों, तो इतिहास उनकी प्रशंसा नहीं करता है।’
और जम्मू-कश्मीर में चले जिहाद-आतंकवाद-पृथकतावाद का इतिहास यही है। वास्तविकता यह है कि स्वतंत्रता के बाद से लेकर छह दशकों से अधिक समय तक दिल्ली की सरकार ने कभी भी जम्मू-कश्मीर मुद्दे को देश की अभिन्न समस्या नहीं माना। इसे देश भर में सत्ता हासिल करने के लिए एक वोट बैंक उपकरण बनाकर रख दिया गया था।
कश्मीर में शासन करने वाले राजनेता भी अपना रुख बदलते रहे और सहानुभूति हासिल करने के लिए तरह-तरह के मुखौटे पहनते रहे। जैसे नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता जब दिल्ली में होते हैं, तो वे खुद को कट्टर राष्ट्रवादी के रूप में चित्रित करते हैं, लेकिन जब वे कश्मीर में कदम रखते हैं, तो उनका पाकिस्तान समर्थक अलगाववाद सतह पर आ जाता है। इस प्रकार की राजनीति के कारण भारतमाता के मस्तक का मुकुट जम्मू-कश्मीर लगातार घायल बना रहा है।
एक बार 1987-90 के दौर पर लौटें, जब बड़ी संख्या में मुस्लिम पुलिस अधिकारी और कर्मचारी प्रत्यक्ष/अप्रत्यक्ष रूप से आतंकवादी संगठनों का समर्थन करने लगे थे। सरकार का कोई निर्णय आधिकारिक कार्यान्वयन से पहले ही आतंकवादियों तक पहुंच जाता था। एक हेड कांस्टेबल अब्दुल्ला बांगरू ने आतंकवादियों के गुप्त संदेशों और रणनीतियों के आदान-प्रदान में प्रमुख भूमिका निभाई थी। इसी तरह, अनंतनाग के कई पुलिस अधिकारियों के आतंकवादियों के साथ गोपनीय संबंध प्रकाश में आए थे।
बड़ी संख्या में विभिन्न प्रशासनिक सेवाओं के अधिकारी भी आतंकवादी गतिविधियों को बढ़ावा देते थे। कई अधिकारी सरकारी नौकरी करते हुए आतंकवादी संगठनों के प्रमुख नियंत्रक और क्षेत्रीय कमांडर बने हुए थे।
राज्य विद्युत विभाग का एक निरीक्षक हिजबुल मुजाहिद्दीन के क्षेत्रीय कमांडर के रूप में काम करता था। वह लंबे समय तक अपनी ड्यूटी से अनुपस्थित रहा, फिर भी उसे उसका पूरा वेतन और अन्य सभी सुविधाएं हमेशा की तरह दी जाती रहीं। बिजली विभाग की ओर से प्रदान की जाने वाली टेलीफोन और आवागमन जैसी सेवाओं का उपयोग भी वह अपनी आतंक फैलाने वाली गतिविधियों के लिए सरेआम करता था।
उधर श्रीनगर का जेल प्रशासन आंखें मूंदे बैठा हुआ था। श्रीनगर जेल प्रशासन की मदद से बारह खूंखार आतंकवादी जेल से भागने में सफल रहे थे। उन्हें दीवार पर चढ़ने के लिए रस्सी और कपड़ा तथा दीवार तोड़ने के लिए उपकरण जेल प्रशासन ने उपलब्ध कराए। बिल्कुल तय समय पर बिजली गुल हो गई और ड्यूटी पर तैनात सुरक्षा गार्ड नियत स्थान से ‘फरार’ हो गए। थोड़ी दूर नगीन झील पर नावें इन आतंकवादियों का इंतजार कर रही थीं। पूरे घटनाक्रम में प्रशासन की सीधी संलिप्तता साफ देखी जा सकती थी। इतना ही नहीं, पाकिस्तानी रेडियो ने इन फरार आतंकवादियों के बारे में समाचार प्रसारित किया। क्या भागने वाले कैदियों के पास कभी भी खबर बनाने और दूसरे देश को भेजने का समय हो सकता था? लेकिन जम्मू-कश्मीर में यह भी हुआ।
1980 के दशक के अंत से शुरू होकर काफी लंबे समय तक घाटी के कई अस्पताल आतंकियों के लिए सुरक्षित पनाहगाह बन गए थे। सरकारी डॉक्टरों की मदद से आतंकी मरीज बनकर भर्ती हो जाते थे। वह अपने हथियारों और गोला-बारूद के साथ वहां आराम से रहते थे। श्री महाराजा हरि सिंह अस्पताल या एसएमएचएस अस्पताल के बाहर कुछ चुनिंदा स्थानों पर दीवारें टूट गई थीं और उन दरारों से होकर आबादी वाली गलियों में भागना बहुत आसान था।
जम्मू की कश्मीरी पंडित सभा ने तत्कालीन राज्यपाल जनरल के.वी. कृष्ण राव (सेवानिवृत्त) को एक ज्ञापन सौंपा और उस उथल-पुथल के बारे में, जिस गहरी पीड़ा और परेशानी से उन्हें गुजरना पड़ रहा था, वह सब बताया। जनवरी 1990 में, जब कश्मीर में आतंकवाद फिर से फैल गया, तो प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार को जगमोहन को फिर से राज्यपाल नियुक्त करना पड़ा….
उस दौर के आतंकवाद के बारे में किए गए अध्ययनों में पाया गया है कि मेडिकल संस्थानों के आसपास घटित अधिकांश आतंकी घटनाएं, जैसे खतरनाक आतंकवादियों यासीन मलिक और हामिद शेख को छुड़ाना और डॉ. रूबिया सईद अपहरण में निश्चित रूप से अस्पताल प्रशासन का छिपा हाथ था। इसका मुख्य सरगना था डॉ. ए.ए. गुरु, जो स्थानीय चिकित्सा समुदाय के बीच हीरो का दर्जा हासिल कर चुका था।
दुर्भाग्यपूर्ण है कि न्यायपालिका भी इस साजिश का शिकार थी। कानूनी जादूगर और बौद्धिक समाज भी तथाकथित इस्लामी विचारधारा और इस्लामी मूल्यों के आधार पर आतंकवादियों को ‘न्याय’ देने का प्रचार खुले आम करते थे। न्यायिक व्यवस्था आतंकवादियों के इशारों पर नाचती रही। गिरफ्तार आतंकवादियों को बिना किसी पूछताछ या आर्थिक जमानत के रिहा किया जाता था। उन्हें अग्रिम जमानत तुरंत दे दी जाती थी और उनके मामले अनिश्चित समय तक लटके रहते थे। कश्मीर घाटी के कुछ छोटे गांवों में ‘इस्लामिक अदालतें’ गठित की जा चुकी थीं, जिन्हें मुल्ला-मौलवियों, कट्टर मुसलमानों और जमात-ए-इस्लामी के नेताओं का पूरा संरक्षण प्राप्त था। आम नागरिकों को इन कंगारू अदालतों में जाकर अपने फैसले कराने को कहा जाता था।
आतंकवाद के दौर में कश्मीर के समाचार पत्रों ने अलगाववादी विचारों को फैलाने में पूरी सहायता दी थी। हिंदुओं को सदियों से अपनी मातृभूमि को त्यागने का आह्वान आतंकवादियों द्वारा जारी बयानों के रूप में इन समाचार पत्रों में लगातार प्रकाशित किया जाता था। समाचार पत्रों के माध्यम से ‘कर्फ्यू’ या ‘बंद’ की घोषणाएं भी की जाती थीं। ये समाचार विज्ञापन नहीं होते थे, बल्कि कश्मीर के समाचार पत्र इन्हें ‘नि:शुल्क’ प्रकाशित करते थे।
इस सनसनीखेज जानकारी के बारे में राज्य के तत्कालीन राज्यपाल जगमोहन ने लिखा है। उन्होंने उल्लेख किया कि स्थानीय समाचार पत्रों की भागीदारी तो एक वास्तविकता थी, लेकिन श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र की भागीदारी बेहद चौंकाने वाली थी। श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र अलगाववादियों का लगभग मुखपत्र बन गया था। अनंतनाग, बारामूला और सोपोर से मारे गए आतंकवादियों की ‘नमाज-ए-जनाजा’ का भी श्रीनगर दूरदर्शन केंद्र से प्रसारण किया गया था।
इस तरह के प्रचार ने लोगों को भड़काने का काम किया और उन लोगों को भी आतंकवाद का समर्थक बना डाला, जो अलगाववादी आंदोलन से ज्यादा सहमत नहीं थे। स्थिति यह हो गई कि जब पाकिस्तान समर्थक आतंकवादी शब्बीर शाह को गिरफ्तार किया गया, तो इस समाचार से जम्मू क्षेत्र के स्थानीय मुसलमान भड़क गए और उन्होंने गिरफ्तारी के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया। 14 अक्तूबर, 1989 को डोडा की मस्जिद में इस्लामिक झंडे फहराने के अलावा ‘अलग कश्मीर’ के समर्थन में जबरदस्त भाषणबाजी और नारेबाजी की गई। वहां उपस्थित मुस्लिम समुदाय ने इसका समर्थन भी किया।
वास्तव में उस दौर में राज्य में दिन-ब-दिन हालात बिगड़ते जा रहे थे। आतंकवादियों के फरमान आम कश्मीरियों की दिनचर्या पर हावी थे। लोगों को सरकारी बैंकों में कोई धन जमा न करने की सख्त हिदायत दी गई, उन्हें केंद्र सरकार को कर देने से रोका गया और अपने घरों के बाहर इस्लाम का झंडा फहराने के लिए मजबूर किया गया। मुस्लिम महिलाओं के लिए बुर्का पहनना अनिवार्य कर दिया गया। राज्य में बाहरी लोगों को अपने पासपोर्ट आतंकवादी संगठनों के पास जमा करने के लिए कहा गया था।
कश्मीरी हिंदुओं को लगातार धमकाने वाले संदेश मिलते रहे, जिसमें उन्हें जमीन छोड़ने के लिए धमकाया जाता था। हिन्दुओं को धमकाने वाले संदेश का एक उदाहरण इस प्रकार है-
‘हम जानते हैं कि आप लंबे समय से कश्मीर के निवासी हैं। आपके पास बाबरशाह में एक आटा चक्की और लालमंडी में एक घर है। आपको तुरंत कश्मीर खाली करना होगा, वरना हम आपकी फैक्ट्री और घर को उड़ा देंगे। हम दिल्ली में आपके घर और होटल का भी पता लगा लेंगे। हमारा सख्त आदेश है कि तुरंत कश्मीर छोड़ दो अन्यथा तुम्हारे बच्चों को नुक्सान होगा। वे कहां पढ़ते हैं, यह हमारी जानकारी में है। हमें यह भी जानकारी है कि आपकी एक बेटी की अभी-अभी शादी हुई है। अपना व्यवसाय बंद करो और यहां से चले जाओ। हम आपको नसीहत नहीं दे रहे हैं, लेकिन यह जमीन केवल मुसलमानों की है क्योंकि यह अल्लाह की जमीन है। यहां हिंदुओं को रहने की मनाही है। यदि आप सहमत होने से इनकार करते हैं, तो जैसा आपको ऊपर बताया गया है, हम शुरुआत आपके बच्चों से करेंगे। कश्मीर की आजादी जिंदाबाद।’
आतंकवादियों के खूंखार तौर-तरीकों में महिलाओं या बच्चों के लिए कोई रियायत नहीं थी। उनका काफिर होना ही काफी होता था। आतंकवादियों ने आतंक का तंत्र पैदा करने के अपने मिशन में कुछ निर्दोष मुसलमानों को भी निशाना बनाया था।
27 अक्तूबर, 1988. श्रीनगर के लाल चौक पर एक मारुति वैन खड़ी थी। वैन खड़ी करने के कुछ देर बाद ही उसमें बम रखा गया था। विस्फोट में 11 राहगीर गंभीर रूप से घायल हो गए, जिसमें एक युवा मुस्लिम महिला वकील भी शामिल थी, जिसने अपना पैर खो दिया। लेकिन इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि इस प्रक्रिया में मुस्लिम महिला गंभीर रूप से घायल हुई, क्योंकि उनका एकमात्र ‘मकसद’ गहरा आतंक पैदा करना था।
श्रीनगर का जेल प्रशासन आंखें मूंदे बैठा हुआ था। श्रीनगर जेल प्रशासन की मदद से बारह खूंखार आतंकवादी जेल से भागने में सफल रहे थे। उन्हें दीवार पर चढ़ने के लिए रस्सी और कपड़ा तथा दीवार तोड़ने के लिए उपकरण जेल प्रशासन ने उपलब्ध कराए। बिल्कुल तय समय पर बिजली गुल हो गई और ड्यूटी पर तैनात सुरक्षा गार्ड नियत स्थान से ‘फरार’ हो गए। थोड़ी दूर नगीन झील पर नावें इन आतंकवादियों का इंतजार कर रही थीं। पूरे घटनाक्रम में प्रशासन की सीधी संलिप्तता साफ देखी जा सकती थी। इतना ही नहीं, पाकिस्तानी रेडियो ने इन फरार आतंकवादियों के बारे में समाचार प्रसारित किया। क्या भागने वाले कैदियों के पास कभी भी खबर बनाने और दूसरे देश को भेजने का समय हो सकता था? लेकिन जम्मू-कश्मीर में यह भी हुआ।
अब अगस्त,1968 की बात करें। नीलकंठ गंजू (जिन्हें एन. के. गंजू के नाम से जाना जाता है) ने श्रीनगर की सत्र अदालत में पुलिस इंस्पेक्टर अमर चंद की हत्या के मामले में मकबूल बट के मुकदमे के पीठासीन न्यायाधीश थे। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने 1982 में फैसले की पुष्टि कर दी। फरवरी 1984 में मकबूल बट को फांसी पर लटका दिया गया।
तब तक नीलकंठ गंजू उच्च न्यायालय के जज बन चुके थे। लेकिन, पांच साल बाद भी गुस्से से भरा जहर ठंडा नहीं हुआ था। 4 नवंबर 1989 को जब वह श्रीनगर के हरि सिंह स्ट्रीट मार्केट में थे, तो तीन आतंकवादियों ने उन्हें घेर लिया और गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
इस बीच दिल्ली में राजनीतिक परिदृश्य बदल चुका था और 1989 के अंत में, राजीव गांधी सरकार सत्ता से बाहर हो गई थी। किसी भी एक गैर-कांग्रेसी और गैर-भाजपा राजनीतिक दल को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने के कारण विभिन्न राजनीतिक संगठनों के गठजोड़ ने वी. पी. सिंह के नेतृत्व में बागडोर संभाल ली थी। जम्मू-कश्मीर के मुफ्ती मुहम्मद सईद, जो मूल रूप से कांग्रेसी थे, ने दल बदल लिया था और संयुक्त मोर्चा (तीसरे मोर्चे) सरकार में शामिल हो गए थे और उन्हें भारत के गृह मंत्री के रूप में एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी सौंपी गई थी।
देश में व्याप्त अराजकता के बीच एक घटना ने पूरे देश को झकझोर कर रख दिया। मुफ़्ती मुहम्मद सईद की बेटी डॉ. रुबिया सईद श्रीनगर के लाल-देड अस्पताल में डॉक्टर के रूप में सेवारत थी। आठ दिसंबर की दोपहर वह घर जाने के लिए मिनी बस में चढ़ी। साथ में गुलाम हसन, मुश्ताक कोन, इकबाल गंदरू, मेहराजुद्दीन मुस्तफा और सलीम उर्फ ‘नानाजी’ भी उसी बस में चढ़े। जैसे ही नोगाम में अंतिम पड़ाव नजदीक आया, इन लोगों ने बस का अपहरण कर लिया और चालक को इसे नातीपुरा में एक एकांत स्थान पर ले जाने के लिए मजबूर कर दिया। डॉ. रुबैया सईद को बस से उतारकर नीली मारुति कार में ले जाया गया। जेकेएलएफ के आतंकवादी यासीन मलिक, अशफाक माजिद वानी और गुलाम हसन उस कार में बैठे, जिसे सिडको का तकनीकी अधिकारी अली मोहम्मद मीर चला रहा था। कार को सोपोर में एक अन्य सरकारी कर्मचारी, जूनियर इंजीनियर जावेद इकबाल के घर ले जाया गया।
वहां डॉ. रुबैया को एक दिन के लिए रखा गया। अगले दिन, 9 दिसम्बर को, उसे दो अन्य उद्योगपतियों, जमन मीर और अब्दुल्ला के साथ सोपोर के एक अन्य उद्योगपति मोहम्मद याकूब के घर में स्थानांतरित कर दिया गया। 14 दिसंबर तक रुबैया को वहां नजरबंद रखा गया। घर की रखवाली इकबाल गांदरू और इकबाल हसन करते थे।
यासीन मलिक और अशफाक माजिद वानी बिचौलियों के माध्यम से राज्य सरकार के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत करते हुए श्रीनगर में रहे।
यासीन मलिक के रसूखदार राजनीतिज्ञों से संबंध थे। वह कांग्रेस के मंत्री गुलाम रसूल कार के बेटे एजाज कार का मित्र था। इस संबंध का उपयोग करते हुए, वह एक शीर्ष व्यवसायी के घर तक आसानी से पहुंच जाता था और वहां से टेलीफोन पर बातचीत करता था।
राज्य सरकार नख-दंतहीन थी और प्रशासन पर उसका कोई नियंत्रण नहीं था। रीढ़विहीन अवस्था में फारूख अब्दुल्ला की सरकार कब्जा करने वालों की हर मांग के सामने घुटनों के बल झुक गई थी। आखिरकार, उन्होंने डॉ. रुबैया की रिहाई सुनिश्चित करने के लिए शीर्ष पांच आतंकवादियों को रिहा कर दिया।
इस घटनाक्रम ने कुछ महत्वपूर्ण पक्षों को सामने रखा है। यह इस बात का एक स्पष्ट उदाहरण था कि कितनी सरलता से साजिशें रची जा सकती थीं, कैसे सत्ता का डर खत्म हो गया था और कैसे आतंकवाद में सरकारी अधिकारी और व्यापारी शामिल हो चुके थे, और कम से कम राष्ट्र-विरोधी तो हो ही गए थे।
उस दौर के दिन-ब-दिन बिगड़ते माहौल ने कश्मीरी हिंदुओं (पंडितों) को अत्यधिक भय में डाल दिया था। समुदाय को वैसा ही उत्पीड़न महसूस होने लगा था जैसा उनके पूर्वजों को अठारहवीं शताब्दी में अफगानों के हाथों झेलना पड़ा था। जम्मू की कश्मीरी पंडित सभा ने तत्कालीन राज्यपाल जनरल के.वी. कृष्ण राव (सेवानिवृत्त) को एक ज्ञापन सौंपा और उस उथल-पुथल के बारे में, जिस गहरी पीड़ा और परेशानी से उन्हें गुजरना पड़ रहा था, वह सब बताया। जनवरी 1990 में, जब कश्मीर में आतंकवाद फिर से फैल गया, तो प्रधानमंत्री वी. पी. सिंह के नेतृत्व वाली जनता दल सरकार को जगमोहन को फिर से राज्यपाल नियुक्त करना पड़ा….
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