हाल ही में भारतीय नौसेना द्वारा समुद्र में की गई कार्रवाई, मालदीव की भारत विरोधी गतिविधियां, परदे के पीछे चीन की चाल, पड़ोसी देशों की लोकतांत्रिक स्थिति, वहां के जनमानस की सोच और उभरते भारत जैसे कई विषयों पर पाञ्चजन्य के संपादक हितेश शंकर ने पश्चिमी नौसेना कमान के पूर्व प्रमुख और वाइस एडमिरल शेखर सिन्हा के साथ विस्तार से बातचीत की। प्रस्तुत हैं उसके अंश-
भारतीय समुद्री सुरक्षा की दृष्टि से मालदीव महत्वपूर्ण है। लेकिन हाल के घटनाक्रम, खासकर सत्ता परिवर्तन के बाद मालदीव की नई सरकार रक्षा सहयोग को बाधित कर रही है या उससे कतरा रही है। इसे आप किस प्रकार देखते हैं?
आपका कहना बिल्कुल सही है। मालदीव के वर्तमान राष्ट्रपति मोहम्मद मोइज्जू पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल्ला यमीन के चुने हुए उम्मीदवार हैं, जो ‘इंडिया आउट’ नारे के सहारे जीत कर सत्ता में आए हैं। इसका मतलब है कि वहां हमारे जो लोग हैं, उनके जो भी योगदान हैं या ऐसी बहुत सारी चीजों से उन्हें लग रहा होगा कि मालदीव में भारत का प्रभाव कुछ ज्यादा दिखने लगा है। मैं मालदीव में भारत की उन सभी योजनाओं से पहले से जुड़ा हुआ हूं, जो वहां की जनता की भलाई, प्रगति और सुरक्षा के लिए हैं। मालदीव में बहुत से द्वीप हैं। वहां भारत का एक डोर्नियर विमान और दो हेलिकॉप्टर तैनात थे, जो आपात स्थिति में मालदीव के मरीजों को भारत द्वारा माले में निर्मित बड़े अस्पताल में पहुंचाते थे। इस तरह, बीते 5 वर्ष में वहां हमने 500 लोगों की जान बचाई। यानी विमान और हेलिकॉप्टर का पूरा लाभ वहां के लोगों को मिल रहा था। वहां भारतीय सेना के कुछ अधिकारी और जवान अपने विमानों के रखरखाव के लिए तैनात हैं, मालदीव से लड़ने के लिए नहीं। अभी वे इन्हें बाहर निकाल रहे हैं, लेकिन भविष्य में इससे किसका नुकसान होगा, हमें यह देखेना होगा। मालदीव के पूर्व राष्ट्रपति यमीन का भी झुकाव चीन की तरफ था। उस समय भी हमारे संबंध थोड़े तनावपूर्ण थे। चुनाव के बाद थोड़ी बाधाएं आती हैं, जिन्हें दूर करने के लिए बातचीत चल रही है। लेकिन मालदीव का भारतवर्ष से बिल्कुल अलग हो जाना संभव नहीं है। उसके हर दिन के खाने-पीने से लेकर दवा और इलाज तक, हर सुविधा भारतीय सहायता पर ही निर्भर है। जब तक चीन वहां आएगा और पूरा ढांचा स्थापित करेगा, उसमें काफी समय लग जाएगा। संभव है, उससे पहले वहां राजनीतिक उथल-पुथल हो जाए।
आपने चीन का जिक्र किया, जो भारत के इर्द-गिर्द स्ट्रिंग आफ पर्ल्स (छोटे-छोटे मोतियों की माला) तैयार कर रहा है। क्या आप इसे एक फंदे के तौर पर देखते हैं?
इसमें कोई शक नहीं कि मालदीव में अब चीन का प्रभाव बढ़ेगा। एक समय था, जब श्रीलंका में भी चीन का प्रभाव ज्यादा दिखाई दे रहा था। लेकिन हमने उसे आर्थिक सहायता दी, जिससे वह संतुलन बनाए रखेगा, ऐसी आशा की जाती है। बाकी छोटे-छोटे मोतियों की माला है, जैसे-म्यांमार। वहां चीन ने सब कुछ स्थापित कर लिया है, लेकिन वे परिचालन में नहीं हैं। लेकिन इस पर तेजी से काम चल रहा है। वहीं, बांग्लादेश में ऐसा कुछ तो नहीं है, लेकिन वहां पनडुब्बियों की मरम्मत आदि के लिए चीनी नौसैनिकों की तैनाती थोड़ा गंभीर विषय है। पता नहीं, चीन भविष्य में उसका कैसे इस्तेमाल करेगा। इसके अलावा, चीन ने वहां बड़े पैमाने पर निवेश किया है, जिसमें रिफाइनरी की स्थापना भी शामिल है, जो बांग्लादेश की तेल जरूरतों को पूरा करेगी। लेकिन चीन कोई भी काम एक मतलब से नहीं करता है। किसी भी देश के साथ चीन का समझौता बहुत अपारदर्शी होता है। इसमें परियोजनाओं के रखरखाव का समझौता जरूर शामिल होता है। इस बहाने से वह उनका अपने हित में इस्तेमाल भी कर सकता है। उधर, सेशेल्स में भी उथल-पुथल मची हुई है। वहां प्रजातंत्र है, लेकिन वहां एक पार्टी चीन के प्रति संवेदनशील है, तो दूसरी भारत के प्रति। सेशेल्स में भारत बड़े पैमाने पर विकास कार्य कर रहा है। वहां जब चीन समर्थक पार्टी की सरकार आई तो उसने यह कहते हुए सब कुछ बंद करा दिया कि हमारे देश में भारतवर्ष के लोग जमते जा रहे हैं। सच्चाई यह है कि उसने इसलिए समझौता किया है कि हम उसके विकास में सहयोग करें। हम सेशेल्स के लिए पोत और बंदरगाह बनाने में सहयोग कर रहे हैं, लेकिन यह सब वहीं की कंपनी बना रही है। भारत केवल निगरानी कर रहा है। चीन के साथ समझौता जिस तरह से बाध्यकारी होता है, वैसा भारतवर्ष के साथ नहीं है।
चाहे नेपाल हो, श्रीलंका हो, म्यांमार या मालदीव हो, इन सबमें कुछ कसमसाहट की आवाज आनी शुरू हुई है। इस कसमसाहट का वास्तविक कारण क्या है?
आपका आकलन सही है। देखिए, अंतरराष्ट्रीय संबंध का एक सिद्धांत है कि जब कोई छोटा देश बहुत ही समर्थ देश या दो बड़ी शक्तियों के बीच में पड़ जाता है, तब उसका झुकाव कभी इधर, कभी उधर होता रहता है। यह इस बात पर निर्भर करता है कि वहां कैसी सरकार है। नेपाल में जब से कम्युनिस्ट पार्टी की सरकार आई है, उसका झुकाव चीन की तरफ ज्यादा हो गया है। लेकिन मुझे लगता है कि अभी भी वह शायद पूरी तरह से उसके साथ न जाए। अभी हाल में ही हमारे विदेश मंत्री नेपाल गए थे। इस दौरान बहुत-सी परियोजनाओं पर हस्ताक्षर भी हुए हैं। आज नेपाल में भारत से पाइपलाइन के जरिए डीजल-पेट्रोल की आपूर्ति हो रही है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि नेपाल अपने नक्शे में भारत के कुछ हिस्से को अपना बताता है, जो न तो राजनीतिक दृष्टि से सही है और न ही ऐतिहासिक दृष्टि से। आजादी के समय अंग्रेजों ने हमें जो नक्शा दिया, हम उसी को मानते हैं। चाहे वह पाकिस्तान से जुड़ा हो या तिब्बत से। कानूनी दृष्टि से इसके लिए हम अपनी चीज की मांग करेंगे। उसे साफ-साफ कह दिया गया है कि वह सुरक्षा की दृष्टि से हमारे लिए खतरा नहीं बनेगा, यानी सीमा पर सैन्य शक्ति का प्रयोग नहीं करेगा। यदि ऐसा हुआ तो भारत के लिए उसकी देखरेख करना मुश्किल हो जाएगा। हालांकि सरकार में नेपाली गठबंधन के शामिल होने के बाद परिस्थितियां थोड़ी बदली हैं। वैसे भी छोटे देशों को जिधर से ज्यादा फायदा दिखेगा, वे उधर ही झुकेंगे। श्रीलंका अभी नियंत्रण में है। लेकिन मालदीव, म्यांमार के साथ समस्या है, क्योंकि वह अभी तक समझ नहीं पाया है कि उसे किस तरफ ज्यादा झुकना चाहिए। म्यांमार के अपने समकक्ष सैन्य अधिकारियों के हावभाव के आधार पर मेरा व्यक्तिगत अनुभव तो यही कहता है कि वे लोग चीन के साथ पूरे दिल से काम नहीं करते हैं। उन्हें लगता है कि चीन का प्रभाव अधिक हुआ तो उनके लिए अच्छा नहीं होगा। सीमा के पास बसे जनजातीय क्षेत्र पर म्यांमार का नियंत्रण नहीं है। चीन जनजातीय समुदाय को अस्त्र-शस्त्र देता है जिनका प्रयोग वे म्यांमार के खिलाफ करते हैं। जब भारतीय सेना घुसपैठियों को रोकने के लिए खिलाफ कोई उनके कार्रवाई करती है, तो म्यांमार की फौज खुश होती है। म्यांमार हमेशा चीन को संदिग्ध दृष्टि से देखता रहेगा। इसलिए शायद पूरी तरह चीन के प्रति नहीं झुके। लेकिन मालदीप में जब से नए राष्ट्रपति आए हैं, यह पहली बार हुआ है कि वहां के नए राष्ट्रपति पहले भारत न आकर तुर्की और अब चीन गए हैं। हालांकि तुर्की के साथ हमारे संबंध खराब नहीं हैं, लेकिन बहुत अच्छे भी नहीं हैं। कारण, जम्मू-कश्मीर को लेकर तुर्की का झुकाव पाकिस्तान की तरफ है। तुर्की, मलेशिया जैसे दो-तीन देश हैं, जो संयुक्त राष्ट्र में भारत के खिलाफ मतदान करते रहे हैं।
बहरहाल, इन सब के बीच तरोताजा होने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी केरल और लक्षद्वीप गए। वहां का वातावरण उन्हें अच्छा लगा। इसकी तस्वीरें भी आईं। उन्होंने लोगों से यह कहते हुए लक्षद्वीप घूमने का आग्रह किया कि यहां देखने और घूमने लायक अच्छी जगहें हैं। उन्होंने यह नहीं कहा कि मालदीव मत जाओ। लेकिन मालदीव में नए राष्ट्रपति के आने के बाद चीन से बढ़ती निकटता और वहां के राजनीतिक घटनाक्रम से भारत के लोग वाकिफ हैं। भारत के लोगों का राजनीतिक ज्ञान बहुत है। लोगों ने प्रधानमंत्री की बात को गंभीरता से लिया और कहने लगे कि जब प्रधानमंत्री लक्षद्वीप के लिए कह रहे हैं तो हम मालदीप क्यों जाएं? हालांकि प्रधानमंत्री ने ऐसा कुछ नहीं कहा है।
प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीरों का मखौल उड़ाना और उन पर अभद्र टिप्पणी करना मोइज्जू सरकार के चार मंत्रियों पर भारी पड़ गया। सरकार को तीन मंत्रियों को निलंबित करना पड़ा। हाल ही में विदेश मंत्रालय ने मालदीव के राजदूत को बुला कर कड़ा संदेश दिया है। इसे आप कैसे देखते हैं?
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है, क्योंकि हमने मालदीव की जितनी मदद की है, उसे जितना बताया जाए, वह कम है। 1987 से लेकर अब तक, जब भी उस पर कोई खतरा मंडराया है, भारत ने उसे पूरी तरह से सुरक्षित रखा है। चाहे मिशनरी हमला हो, पानी की किल्लत हो या सूखा पड़ा हो। जब भाड़े के सैनिकों ने वहां कब्जा करना चाहा, तब भी हमारे नौसैनिक पोत और जहाजों ने उन्हें भगाया। इसके अलावा, और भी कई छोटे-बड़े संकट आए, चाहे मरीजों को अस्पताल पहुंचाना हो या इलाज के लिए भारत लाना, उसमें भारत ने ही मदद की है।
लोकतंत्र में पार्टी-पॉलिटिक्स एक तरफ और जनभावनाएं दूसरी तरफ दिखाई देती हैं। चाहे आसपास के द्वीपीय देश हों, म्यामांर हो या नेपाल, भारत के प्रति इन देशों के लोगों का स्वाभाविक रूझान कुछ और ही कहानी कहता है।
आप बिल्कुल ठीक कह रहे हैं। हालांकि नेपाल की सेना का भारत की सेना के प्रति बहुत अच्छा सद्भाव है। वहां के आधे से अधिक अधिकारी भारत में प्रशिक्षण लेते हैं। हमारे सैन्य अधिकारी वहां के सेना प्रमुख बने हैं। मालदीव के साथ हमारी इतनी निकटता नहीं है। लेकिन वहां की सेना अच्छी तरह से प्रशिक्षित है और प्रतिकूल परिस्थितियों में वह यही कहेगी कि हम अपने संविधान की रक्षा करेंगे। आपको याद होगा, जब यमीन साहब चुनाव लगभग हारने वाले थे, तब उन्होंने सेना को सर्वोच्च न्यायालय के उस जज को गिरफ्तार करने का आदेश दिया, जिसने उनके खिलाफ फैसला दिया था। लेकिन सेना प्रमुख ने आदेश मानने से इनकार करते हुए कहा कि हम अपने संविधान की सुरक्षा करेंगे। मतलब आपकी सुरक्षा नहीं करेंगे। मालदीव के लोग सही और गलत को समझने में सक्षम हैं। इसलिए थोपी गई चीजों से रिश्ते प्रभावित नहीं होंगे।
श्रीलंका में गोटाबाया राजपक्षे हों या मालदीव में मोइज्जू या ऐसी समस्याएं पैदा करने वाला कोई और हो, उनके समाधान के लिए भारत कितना आगे तक जा सकता है?
जैसा कि मैंने पहले कहा कि छोटे देशों का झुकाव इधर-उधर होता रहता है। भारत को अपने संबंध इन देशों में सत्तारूढ़ दल से ही नहीं, बल्कि विपक्ष से भी बनाए रखने चाहिए, क्योंकि हमें नहीं पता कि कौन दल चुनाव जीत कर सत्ता में आ जाएगा। अभी मालदीव का प्रजातंत्र शैशबावस्था में है। जब लोकतंत्र परिपक्व हो जाएगा, तब वहां के लोग किसी देश का आकलन करते समय देखेंगे कि किस देश ने उनके लिए क्या किया। अभी लोग 4 वर्ष पहले की बात ही याद नहीं रखते हैं। हालांकि मौजूदा घटनाक्रम पर अभी भी मालदीव के वरिष्ठ लोगों ने सरकार को रोका था। यहां तक कि प्रदर्शन हुए और राष्ट्रपति मोइज्जू से तीनों कैबिनेट मंत्रियों को सरकार से बाहर करने को कहा गया। फिलहाल सरकार ने उन्हें निलंबित किया है, सरकार से हटाया नहीं है। इसलिए बहुत धैर्य से काम करना होगा। हमारी ओर से ऐसी कोई प्रतिक्रिया न हो, जिससे लगे कि भारत बड़ा देश है, इसलिए हावी हो रहा है। इससे दुनिया का नजरिया हमारे विरुद्ध हो जाएगा। जो लोग जितने सक्षम और बड़े होते हैं, उतना ही झुक कर चलते हैं। लेकिन ऐसा भी नहीं है कि हम सब कुछ सहन कर लेंगे। अभी उनके राजदूत को बुलाकर कड़े शब्दों में स्पष्ट रूप से बता दिया गया है कि हमारे प्रधानमंत्री के खिलाफ अभद्र शब्दों का प्रयोग स्वीकार्य नहीं है।
… लेकिन कनाडा छोटा देश नहीं है। उसने आंखें दिखाई थीं, जिसका भारत ने प्रतिकार किया। हमारे विदेश मंत्री की टिप्पणी भी आई थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि अब भारत एक गाल पर चांटा खाकर दूसरा गाल बढ़ाने वाला देश नहीं है। इसे आप किस तरह देखते हैं?
नया भारत आत्मविश्वास से भरा हुआ है। उसे अपनी आर्थिक, सामरिक, जन शक्ति यानी प्रजातंत्र की ताकत का पता है। हमें यह अहसास हो गया है कि हम एक सक्षम देश हैं। हम किसी से या किसी तरह की अवहेलना या नीचा दिखाना बर्दाश्त नहीं करेंगे। बाद में कनाडा के प्रधानमंत्री ने संसद में भारतवर्ष का नाम लिया और अभी तक इसका कोई सबूत नहीं दे पाए। इसलिए भारतवर्ष की प्रतिक्रिया बिल्कुल ठीक थी। भले ही कनाडा बड़ा देश हो, लेकिन उसकी अर्थव्यवस्था हमसे छोटी है। हमारे विद्यार्थी कनाडा जाकर पढ़ते हैं, जिससे उसे सालाना 3-4 अरब डॉलर का फायदा होता है। अभी तक भारत की छवि ऐसी थी कि हालात प्रतिकूल हो, तब भी वह तिजोरी भरने का काम करता है, लेकिन नई व्यवस्था में तरफ आंखें तरेरने या भ्रम पैदा करने वाले लंबी दूरी तक साथ नहीं चल सकते।
मालदीव प्रकरण में भारतीय जनता ने तीखी प्रतिक्रिया दी। इसे आप कैसे देखते हैं? जनता की प्रतिक्रिया कैसी होनी चाहिए थी?
यह तो बहुत अच्छी बात है। इससे अधिक सुखद समाचार और कुछ नहीं हो सकता। इससे एक और बात पता चली कि हमारी जनता का विश्वास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति खुलकर सामने आया है। कनाडा के विषय में उन्होंने सिर्फ एक शब्द कहा था और सारा देश एक साथ खड़ा हो गया। खालिस्तानी फोर्स एक आतंकवादी संगठन है और कनाडा उसका पोषण कर रहा है। कनाडा सोचता है कि पंजाब, भारत से अलग है, जबकि पूरा भारत उस प्रतिक्रिया के एक साथ था। साथ ही, वैश्विक जनसमर्थन भी मिला था।
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