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राममय भारत ! सर्वत्र राम ही राम

वर्तमान पीढ़ी बहुत भाग्यवान है। अपनी आँखों से हम अयोध्या में ‘श्रीराम मन्दिर’ भव्यता को साकार होते देख रहे हैं

by डॉ. लखेश्वर चन्द्रवंशी ‘लखेश’
Jan 16, 2024, 07:16 pm IST
in मत अभिमत
भगवान राम

भगवान राम

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मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की जन्मस्थली पर ‘रामलला’ की भव्य मन्दिर का निर्माण कराया जा रहा है। लगभग 500 वर्षों की दीर्घ प्रतीक्षा के बाद 22 जनवरी, 2024 को श्रीराम अपने जन्मस्थली के गर्भगृह में पुनः विराजमान होंगे। भारतीय इतिहास का यह स्वर्णिम दिन है। जिस क्षण रामलला गर्भगृह में पुनः विराजमान होंगे, वह क्षण निश्चय ही भारत सहित विश्वभर में निवास कर रहे करोड़ों भारतवंशियों को अत्यन्त भावुक और आनंद से विभोर करने वाला है।

वर्तमान पीढ़ी बहुत भाग्यवान है। अपनी आँखों से हम अयोध्या में ‘श्रीराम मन्दिर’ भव्यता को साकार होते देख रहे हैं। कई पीढ़ियों की अविरत भक्ति, संघर्ष और फिर विधि सम्मत न्याय के बाद यह अवसर आया है। देश के हर नगर-ग्राम में श्रीराम के आगमन के लिए सज रहे हैं। श्रीराम ध्वजा, श्रीराम के चित्र और मालाएं, लॉकेट, चाबी के छल्ले, अयोध्या की राजसभा के चित्र सर्वत्र दिखाई देने लगे हैं। इन्टरनेट जगत अर्थात सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से शरीर में श्रीराम के धनुष-बाण, नाम के टैटू तक का चलन बढ़ रहा है। ‘श्रीराम आएंगे’ जैसे मधुर रामगीतों से इंस्टाग्राम में वीडियोज चल रहे हैं। ऐसे में बहुत गहराई से सोचने की आवश्यकता है कि श्रीराम केवल हमारे प्रचार और उत्साह का ही विषय बनकर न रहे, वरन यह हमारे आत्मबोध और चरित्र-निर्माण का भी आधार बनें। समाज के प्रत्येक मनुष्य के प्रति जो आत्मीयता प्रभु श्रीराम के जीवन में दिखाई देता है, उसके प्रत्यक्ष अनुकरण का अंग प्रत्येक भारतवासी बने, यह संकल्प होना चाहिए। गोस्वामी तुलसीदास की प्रसिद्ध चौपाई है –

सीय राममय जब जग जानी। करउं प्रणाम जोरि जुग पानी॥

तुलसीदासजी कहते हैं कि सम्पूर्ण सृष्टि सीता-राम का ही स्वरूप है, अर्थात सबमें भगवान का वास है। अतः हाथ जोड़कर सबमें समाए सियाराम को प्रणाम करना चाहिए। ईश्वर को संसार के कण-कण में अनुभव करना, सचमुच कितनी उदात्त कल्पना है! इस भाव को जिन्होंने धारण किया वे संत और भक्त बन गए। उन्होंने ईश्वर की अनुभूति की और वे स्वयं ईश्वरमय हो गए। भारतीय संत परम्परा में इसके अनेक प्रमाण विद्यमान हैं।

देशवासियों के मन-मन्दिर में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम की छवि बसी है। क्योंकि श्रीराम ‘धर्म’ के मूर्त स्वरूप हैं। इसलिए रामायण के रचयिता महर्षि वाल्मीकि ने कहा, – “रामो विग्रहवान् धर्मः।” अतः श्रीराम, भारतीय जनमानस में आराध्य देव के रूप में ही नहीं, वरन ‘धर्म’ के साक्षात प्रतीक स्वरूप स्थापित हैं, और भारत के प्रत्येक जाति, मत, सम्प्रदाय के लोग श्रीराम की पूजा-आराधना करते हैं।

लक्ष्मण सुरि ने अपनी रचना ‘पौलस्त्य वध’ में श्रीराम का वर्णन करते हुए कहा है, “हाथ में दान, पैरों से तीर्थ-यात्रा, भुजाओं में विजयश्री, वचन में सत्यता, प्रसाद में लक्ष्मी, संघर्ष में शत्रु की मृत्यु – ये राम के स्वाभाविक गुण हैं।”

श्रीराम का जीवन आदर्शों की गाथा 

यह सर्वविदित है कि घोर निराशा के युग में श्रीराम का जन्म हुआ। उनके जन्मकाल में आसुरी शक्तियां चरम पर थीं। संसार के समस्त जीव यहाँ तक कि देवतागण भी असुरों के अत्याचारों से आतंकित थे। ऐसी विपद काल में श्रीराम के संघर्षमय और उदात्त जीवन की गाथा को हम बचपन से सुनते आए हैं, और दूरदर्शन में उसकी झलक भी, चलचित्र के माध्यम से देश-विदेश के लोगों ने कोरोना काल में फिर एकबार देखा। आज ‘रामायण’ और ‘रामचरितमानस’ ग्रंथ एक महान थाती के रूप में अपने पास है।

श्रीराम का सम्पूर्ण जीवन आदर्शों की महान गाथा है। ‘रामचरितमानस’ में बालक राम के नामकरण के समय गुरु वशिष्ट, राजा दशरथ से कहते हैं :-

जो आनंद सिंधु सुखरासी। सीकर तें त्रैलोक सुपासी॥

सो सुखधाम राम अस नामा। अखिल लोक दायक बिश्रामा॥

आपका यह बालक आनंद का समुद्र और सुख की राशि है। जिस (आनंदसिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उनका (आपके सबसे बड़े पुत्र) नाम ‘राम’ है। यह राम सुख का भवन और सम्पूर्ण लोकों को शान्ति देनेवाला है।

श्रीराम बचपन से ही वीर, धीर, शीलवान और गम्भीर थे। प्रातः उठाकर अपने माता, पिता और गुरु को वे प्रणाम करते हैं।

प्रातकाल उठि कै रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा॥

श्रीराम, अपने पिता की आज्ञा से राज-काज में उनका साथ देते हैं। लोक-कल्याण के लिए महर्षि विश्वामित्र के साथ जाकर राक्षसी ताड़का और असुर सुबाहु का वध किया। मारीच को बिना फर के बाण से उन्होंने दूर समुद्र में फेंक दिया। महर्षि से उन्होंने सम्पूर्ण दिव्यास्त्रों की शिक्षा प्राप्त की और फिर राजा जनक के स्वयंवर यज्ञ में शिव-धनुष को तोड़ा। सीताजी से विवाह किया। श्रीराम  की राज्याभिषेक की घोषणा हुई और अगले ही दिन माता कैकेयी ने उन्हें वनवास की आज्ञा दी। सामान्य मनुष्य के लिए राजा बनना और वनवास के लिए जाना, बहुत विपरीत बात है; एक ओर वैभव और सुख है, जबकि दूसरी ओर संघर्षमय जीवन। पर मर्यादापुरुषोत्तम के लिए दोनों एक समान है। प्रसन्नतापूर्वक उन्होंने वनवास को अपनाया। वनवास के दौरान उन्होंने महान तपस्वी ऋषियों के दर्शन किये और ऋषि आश्रमों को आसुरी शक्तियों से मुक्ति दिलाई। जिस कार्य के लिए प्रभु ने इस धरती पर जन्म लिया था, वह कार्य उन्होंने प्रारम्भ कर दिया था।

श्रीराम मंदिर, अयोध्या

 

श्रीराम एक कुशल योजक व संगठक     

वनवास से लेकर रामराज्य की स्थापना तक का श्रीराम का संघर्षमय जीवन भारतवर्ष को बहुत कुछ सिखाता है। वे समाज में लोकप्रिय हैं ही, साथ ही एक कुशल योजक, संगठक के रूप में दिखाई देते हैं। श्रीराम का हृदय करुणासागर है। धीर-गम्भीर और वीरता से युक्त उनका तेजस्वी व्यक्तित्व है।

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के जीवन के अनेक पहलू हैं। श्रीराम ने जहाँ एक ओर केवट, शबरी और जटायु को आत्मीयता से स्वीकार किया, उनपर स्नेह की वर्षा की; वहीं दूसरी ओर उन्होंने वानरों, भालुओं तथा वनवासियों को एकत्रित किया। उन्होंने वानर सेना को अधर्म के विनाश के लिए तैयार किया। उन्होंने रावण सहित समस्त असुरों को समाप्त कर धर्म की पताका को अभ्रस्पर्शी बनाया। इतना ही नहीं तो श्रीराम का जीवन तप, क्षमा, शील, नीतिमान, सेवा, भक्ति, मर्यादा, वीरता और न जाने कितने महान गुणों से युक्त था। इसलिए वे भारतीय समाज के जीवन में बड़ी गहराई से बस गए हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने “गोस्वामी तुलसीदास” नामक अपनी पुस्तक में कहा है, “राम के बिना हिन्दू जीवन नीरस है – फीका है। यही रामरस उसका स्वाद बनाए रहा और बनाए रहेगा। राम ही का मुख देख हिन्दू जनता का इतना बड़ा भाग अपने धर्म और जाति के घेरे में पड़ा रहा। न उसे तलवार काट सकी, न धन-मान का लोभ, न उपदेशों की तड़क-भड़क।”

श्रीराम की ही तरह, माता सीता का महान आदर्श हमारे सामने है। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न जैसा भाई; महावीर हनुमान और शबरी जैसी भक्ति; अंगद जैसा आत्मविश्वासी तरुण, भला और कहाँ दिखाई देता है! रामायण के प्रमुख पात्रों में जटायु, सुग्रीव, जाम्बवन्त, नल-नील, विभीषण जैसे नायक लक्ष्यपूर्ति के लिए प्रतिबद्ध हैं। वहीं रावण, कुम्भकर्ण, इन्द्रजीत मेघनाथ जैसे पराक्रमी असुरों का वर्णन भी विकराल है, जिनपर श्रीराम और उनके सहयोगी सैनिकों द्वारा विजय प्राप्त करना सचमुच अद्भुत है।

रामायण में सीता स्वयंवर, राम-वनवास, सीता-हरण, जटायु का रावण से संघर्ष, हनुमान द्वारा सीता की खोज, लंका-दहन, समुद्र में सेतु-निर्माण, इन्द्रजीत-कुम्भकर्ण-रावण वध, लंका विजय के बाद विभीषण को लंकापति बनाना, श्रीराम का अयोध्या आगमन, राम-भरत मिलन आदि सबकुछ अद्भुत और अद्वितीय प्रसंग है। इस सम्बन्ध में स्वामी विवेकानन्द ने 31 जनवरी, सन 1900 को, अमेरिका के पैसाडेना (कैलिफोर्निया) में ‘रामायण’ विषय पर बोलते हुए अपने व्याख्यान में कहा था, “राम ईश्वर के अवतार थे, अन्यथा वे ये सब दुष्कर कार्य कैसे कर सकते थे? हिन्दू उन्हें भगवान अवतार मानकर पूजते हैं। भारतीयों के मतानुसार वे ईश्वर के सातवे अवतार हैं।…..राम और सीता भारतीय राष्ट्र के आदर्श हैं।” स्वामीजी इसी व्याख्यान में रामायण को भारत का आदिकाव्य कहकर उसकी प्रशंसा करते हैं।

अधर्म पर धर्म, असत्य पर सत्य तथा अनीति पर नीति का विजय का प्रतीक रामायण भारतीय इतिहास की गौरवमय थाती है। रामायण का हर पात्र अपनेआप में श्रेष्ठ हैं, किन्तु श्रीराम के साथ ही माता सीता, महावीर हनुमान, लक्ष्मण और भरत का चरित्र पाठक के मनःपटल को आलोकित करता है।

विश्व के अनेक भाषाओं में रामकथा :

श्रीराम भारतीय जनमानस में आराध्य देव के रूप में स्थापित हैं और भारत के प्रत्येक जाति, मत, सम्प्रदाय के लोग श्रीराम की पूजा-आराधना करते हैं। कोई भी घर ऐसा नहीं होगा, जिसमें रामकथा से सम्बन्धित किसी न किसी प्रकार का साहित्य न हो क्योंकि भारत की प्रत्येक भाषा में रामकथा पर आधारित साहित्य उपलब्ध है। भारत के बाहर, विश्व के अनेक देश ऐसे हैं जहाँ के लोक-जीवन और संस्कृति में श्रीराम इस तरह समाहित हो गए हैं कि वे अपनी मातृभूमि को श्रीराम की लीलाभूमि एवं अपने को उनका वंशज मानने लगे हैं। यही कारण है कि विश्व के अनेक देश ऐसे हैं जहाँ की भाषा में रामकथा का विस्तार से वर्णन मिलता है।

चीनी भाषा में राम साहित्य पर तीन पुस्तकें प्राप्त होती हैं जिनके नाम “लिऊ तऊत्व”, “त्वपाओ” एवं “लंका सिहा” है जिनका रचनाकाल क्रमशः 251ई., 472ई. तथा 7वीं शती है। इनमें से दो रचयिता क्रमशः किंग तथा त्वांगकिंग हैं, जबकि तीसरे ग्रंथ के रचयिता का नाम अज्ञात है।

तुर्किस्तान में तुर्की भाषा में “खेतानी रामायण” नामक ग्रंथ 9वीं शती में लिखा गया जबकि तिब्बत के तिब्बती भाषा में “तिब्बती रामायण” की रचना तीसरी शती में की गई। 10वीं शती में मंगोलियाई भाषा में “मंगोलिया की रामकथा” लिखी गई जबकि इसी सदी में जापानी भाषा में साम्बो ए कोतोबा ने “जापान की रामकथा” नामक ग्रंथ की रचना की। इसके बाद १२वीं शती में होबुत्सु ने भी “जापान की रामकथा” नामक ग्रंथ की रचना की। इसी तरह इंडोनेशिया में हरिश्रय, रामपुराण, अर्जुन विजय, राम विजय, विरातत्व, कपिपर्व, चरित्र रामायण, ककविन रामायण, जावी रामायण एवं मिसासुर रामकथा नामक ग्रन्थ लिखे गए। थाईलैंड में “केचक रामकथा”, लाओस में ‘फालक रामकथा’ और ‘पोम्मचाक’, मलेशिया में “हकायत श्रीराम, कम्बोडिया में “रामकीर्ति” और फिलीपिन्स में ‘महरादिया लावना’ नामक ग्रंथ की रचना की गई।

श्रीलंका में महर्षि कालिदास के समकालीन लंकपति कुमारदास ने “जानकी हरणम्” साहित्य लिखा। बर्मा में राम-साहित्य की 9 ग्रंथों की खोज की जा चुकी है। ये ग्रन्थ हैं – रामवस्तु, महाराज, रमतोन्मयो, रामताज्यी राम यग्रान, अंलोगराम तात्वी, थिरीराम पोंतवराम और पौन्तव राम लखन।

रूस में तुलसीकृत रामचरितमानस का रूसी भाषा में अनुवाद बारौत्रिकोव ने 10 वर्षों के अथक परिश्रम से किया, जिसे सोवियत संघ की विज्ञान अकादमी ने सन 1948 में प्रकाशित किया। उपर्युक्त देशों की भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, उर्दू, फारसी, पश्तों आदि भाषाओं में भी राम साहित्य की रचना की गई। कहने का तात्पर्य है कि भगवान राम सर्वव्यापक तो हैं ही, साथ ही उनपर लिखे गए साहित्य की व्यापकता भी विश्व की अनेक भाषाओं में उपलब्ध है। यह श्रीराम-चरित्र की विश्व लोकप्रियता को प्रतिबिम्बित करता है।

लोक-जीवन में श्रीराम 

हम श्रीराम को पढ़ते हैं, पूजते हैं। उनके जीवन, विचार, संवाद और प्रसंगों को पढ़ते-पढ़ते भावविभोर हो जाते हैं। उनका नाम लेते ही हमारा हृदय श्रद्धा और भक्तिभाव से सराबोर हो जाता है। यहाँ तक कि भारत के करोड़ों लोग अपने नाम के आगे अथवा पीछे ‘राम’ शब्द का प्रयोग बड़े गर्व से करते हैं; जैसे – रामलाल, रामप्रकाश, सीताराम, रामप्रसाद, गंगाराम, संतराम, सुखराम आदि। विवाह-गीत, सोहर, लोकगीत, होलीगीत, लोकोक्तियां आदि सभी लोक संस्कृति में श्रीराम और माता जानकी का नाम बड़े आदर से लिया जाता है। इस तरह लोकजीवन में राम दिखाई देते हैं।

अपने भारत देश में जप के लिए “श्रीराम जय राम जय जय राम”, अभिवादन के लिए राम-राम, खेद प्रकट करने के लिए राम-राम-राम और अंत समय “राम नाम सत्य है” कहने का प्रचलन है। यानी जन्म से अंत तक राम का ही नाम अपने समाज में रच-बस गया है। भारत में सर्वत्र राम ही राम है।

(लेखक केन्द्र भारती, विवेकानन्द केन्द्र हिन्दी प्रकाशन विभाग में कार्यकारी सम्पादक हैं।) 

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