सूर्य नारायण सृष्टि में केवल प्रकाश ही नहीं फैलाते वरन एक नवजीवन–नयी चेतना का भी संचार करते हैं। सूर्योदय के साथ ही मानव को लेकर सभी छोटे–बड़े जीव–जन्तुओं के साथ ही वृक्ष–वनस्पतियों तक सभी में चेतनात्मक स्पंदन शुरू हो जाते हैं। इसलिये वेदों में सूर्य को विश्व की आत्मा कहा गया है। सूर्य के इन्हीं महान उपकारों के प्रत्युत्तर में वैदिक युग में हमारे वैदिक ऋषि–मनीषियों ने सूर्य उपासना की जिस परम्परा का शुभारम्भ किया था। सदियों बाद भी वह आज तक कायम है।
ऋषि कहते हैं कि हम सबको सूर्य की, सविता की आराधना इसलिए भी करनी चाहिए कि वह हम सभी के समस्त शुभ व अशुभ कर्मों के प्रत्यक्ष साक्षी हैं। उनसे हमारा कोई भी कार्य–व्यवहार छिप नहीं सकता। वे समूची प्रकृति का केन्द्र हैं। इसी लिए हम धरतीवासियों को समस्त शक्तियां सूर्य से ही प्राप्त होती हैं। संसार का संपूर्ण भौतिक विकास सूर्य की सत्ता पर निर्भर है। जिस तरह आत्मा के बिना शरीर का कोई अस्तित्व नहीं होता, ठीक उसी तरह जगत की सत्ता सूर्य पर टिकी हुई है। इसीलिए हमारी संस्कृति में सूर्य की उपासना आदिकाल से होती रही है।
आचार्य विनोबा भावे ने सूर्य को परमात्मा का सर्वश्रेष्ठ प्रतीक, सबसे अच्छा प्रेरणादायी मंदिर कहा है। गीता के चौथे अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं सूर्य सनातन ज्ञान का आदि विस्तारक हैं। इक्ष्वाकु कुल में अवतरित भगवान राम और उनके पूर्वज सूर्य के उपासक थे। हनुमान जी ने भी बचपन में सूर्य को ही गुरु मानकर सूर्य की उपासना की थी। शास्त्र कहते हैं कि महर्षि पतंजलि की मां ने सूर्य उपासना के फलस्वरूप ही उन्हें प्राप्त किया था। सूर्यदेव से आध्यात्मिक शक्तियों के साथ आरोग्य प्राप्ति के अनेकानेक उदाहरण हमारे आर्ष वांग्मय में भरे हुए हैं।
मकर संक्रान्ति सूर्योपासना का ऐसा ऋतु पर्व है जो हमारे लौकिक जीवन को देवजीवन की ओर मोड़ता है और हमारे भीतर शुभत्व व नवजीवन का बोध भरकर हमें चैतन्य, जागृत व जीवंत सक्रिय बनाता है। माघ मास में सूर्यदेव के उत्तरायण होने पर समूचा जन जीवन प्रसुप्ति से जागरण की ओर उन्मुख हो उठता है। पुराणकार कहते हैं कि जब दिवाकर मकरस्थ होते हैं तब सभी समय, प्रत्येक दिन एवं सभी स्थान शुभ हो जाते हैं। मकर संक्रान्ति के शुभ दिन से खरमास (पौष माह) में रुके हुए मंगल कार्य पुन: शुरू हो जाते हैं।
यह स्नान पर्व मूल रूप से ऋतु चक्र परिवर्तन और नयी कृषि उपज से जुड़ा है। इस समय तक धान, उरद व तिल आदि की नयी फसल तैयार हो चुकती है। वैदिक चिंतन कहता है कि इस अवसर पर जिस तरह सूर्यदेव की कृपा से हमारा अन्नदाता हमें नवान्न का उपहार देता है, उसी तरह यह आलोक पर्व हमें प्रबोधित करता है कि हम सब भी जड़ता व आलस्य त्याग कर नये सकारात्मक विचारों को ग्रहण करें। काम–क्रोध, मद–लोभ आदि दूषित विचारों से अपने अंतस को मुक्त कर नयी जीवन ऊर्जा से कर्मपथ पर गतिमान हों।
हमारी आस्था को पोषण देने के साथ इस पर्व का लौकिक और वैज्ञानिक आधार भी खासा मजबूत है। यह पर्व मूल रूप ऋतु चक्र परिवर्तन और नयी कृषि उपज से जुड़ा है। सूर्यदेव की कृपा से धरतीमाता अपनी कोख से नवान्न का उपहार देती है। नया साठी धान, नयी उरद की दाल, गन्ना व उससे निर्मित नया गुड़, तिल व सरसों के साथ ज्वार, बजारा व मक्के की नयी फसलों की पैदावार पर किसानों के चेहरों की खुशी देखते ही बनती है।
श्रद्धालुजन इस दिन संगम स्नान व सूर्य को अर्ध्य देकर सुपात्रों व गरीबों को खिचड़ी, तिल व ऊनी वस्त्र दान देते हैं और खिचड़ी का भोग प्रसाद ग्रहण करते हैं।
कल्पवास का अनूठा आध्यात्मिक समागम
तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना व सरस्वती के संगम पर लगने वाले एक माह के माघ मेले की शुरुआत मकर संक्रान्ति से ही होती है। इस दिन से प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर शुरू होने वाला कल्पवास का आध्यात्मिक समागम जन मन के भीतर उमड़ने वाले सात्विक भावों को पोषित कर देश की सांस्कृतिक चेतना व सामाजिक संघबद्धता को मजबूत करता है। जानकार कहते हैं कि इस पर्व पर विशिष्ट आकाशीय तरंगों का व्यक्ति के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है इसीलिए इस दिन तीर्थराज प्रयाग एवं गंगासागर में स्नान को महास्नान की संज्ञा दी गयी है। प्रयाग के त्रिवेणी संगम पर इस पर्व के साथ शुरू होने वाले माघ मेले में कल्पवासियों की आस्था और धर्म–विज्ञान, विचार और कर्म, संन्यासी और गृहस्थ तथा धर्मसत्ता, राजसत्ता और समाज सत्ता का समागम देखते ही बनता है। इस पर्व की महत्ता के बारे में मानसकार तुलसीदास लिखते हैं, “माघ मकर गति जब रवि होई। तीरथपति आवहू सब कोई।।“
बाबा गोरखनाथ ने शुरू की थी खिचड़ी भोज की परम्परा
कहते हैं कि मकर संक्रान्ति के दिन खिचड़ी बनाने की परम्परा बाबा गोरखनाथ ने उत्तर प्रदेश के गोरखनाथ मंदिर से शुरू की थी। मोहम्मद खिलजी के आक्रमण के समय नाथपंथियों को युद्ध के दौरान भोजन बनाने का समय न मिलने से अक्सर भूखे रहना पड़ता था। तब इस समस्या का हल निकालने के लिए एक दिन बाबा गोरखनाथ ने दाल, चावल और सब्जी को एक साथ पकाने की सलाह दी। झटपट बन जाने वाला यह व्यंजन काफी पौष्टिक और स्वादिष्ट था। तब से गोरखपुर स्थित बाबा गोरखनाथ धाम में मकर संक्रान्ति के दिन खिचड़ी भोज की परम्परा शुरू हो गयी।
घुघुतिया : उत्तराखण्ड में न्यौते जाते हैं कौवे
इस पर्व को उत्तराखण्ड में उत्तरायणी के नाम से मनाया जाता है। पर्वतीय अंचल में इस पर्व के प्रति गहरी जनआस्था जुड़ी हुई है। 14 जनवरी 1921 को उत्तरायणी के दिन कुमाऊंवासियों ने क्रूर गोरखा शासन और अंग्रेजी राज की दमनकारी कुली बेगार प्रथा के काले कानून के खिलाफ क्रांति का बिगुल बजा कर हमेशा के लिए दासत्व से मुक्ति पायी थी। पर्वतीय समाज में यह पर्व “घुघुतिया” के रूप में भी मनाया जाता है जिसमें गुड़ व आटे के एक विशेष प्रकार के व्यंजन बनाकर कौवे न्यौते जाते हैं। इस मौके पर बागेश्वर और उत्तरकाशी में लगने वाले माघ मेले पूरे देश विख्यात हैं।
लोहड़ी : नयी फसल का उत्सव
पंजाब, हरियाणा व हिमाचल में मकर संक्रान्ति की पूर्व संध्या पर लोहड़ी का त्योहार नयी फसल के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। पंजाबियों में नववधू और बच्चे की पहली लोहड़ी बहुत विशेष होती है। लोहड़ी की रात खुले स्थान में पवित्र अग्नि जलाते हैं और परिवार व आस–पड़ोस के लोग लोकगीत गाते हुए नये धान के लावे के साथ खील, मक्की, गुड़, रेवड़ी, मूंगफली आदि उस पवित्र अग्नि को अर्पित कर परिक्रमा करते हैं। इस त्योहार के पीछे एक दुल्लाभट्टी का रोचक ऐतिहासिक कथानक भी जुड़ा है।
पोंगल : नये साल का शुभारम्भ
तमिलनाडु में इस पर्व को पोंगल के रूप में मनाया जाता है। चार दिवसीय इस पर्व के साथ तमिलनाडुवासियों के नये साल का आगाज होता है। पोंगल का शाब्दिक अर्थ है मिट्टी के चूल्हे पर पकाना। पहले दिन लोग सूर्योदय से पहले उठकर घर की साफ–सफाई कर सर्वप्रथम मिट्टी के बर्तन में नये धान और गन्ने के रस या गुड से एक खास खीर ‘’पोंगल“ बनाकर पहला भोग इंद्रदेवता को , दूसरा भोग सूर्य को तीसरी पोंगल मट्टू बैल (भगवान शंकर के वाहन) और चौथी पोंगल को कन्या को अर्पित करते हैं। इस नववर्ष के उत्सव पर घर को आम्र पल्लव व नारियलपत्रों से सजाया जाता है और मुख्य द्वार पर रंगोली बनायी जाती है। लोग नये कपड़े पहनते हैं और दोस्तों व रिश्तेदारों के यहां मिठाई और पोंगल बना कर भेजते हैं और नये साल की खुशियां मनाते हैं। कृषक वर्ग इस दिन से नयी फसल की कटाई शुरू कर देता है।
भगवान अयप्पा की सबरीमाला तीर्थयात्रा का समापन
ज्ञात हो कि केरल में भगवान अयप्पा की सबरीमाला की वार्षिक तीर्थयात्रा की अवधि मकर संक्रान्ति के दिन ही समाप्त होती है। कर्नाटक में मकर–सक्रांति त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। इस मौके पर बैलों और गायों को सुसज्जित कर उनकी शोभायात्रा निकाली जाती है। नये परिधान में सजे लोग, ईख, सूखा नारियल और भुने चने के साथ एक दूसरे को नववर्ष की शुभकामनाएं देते हैं।
बंगाल का विश्वविख्यात गंगासागर मेला
मकर संक्रांति पर लगने वाला बंगाल का गंगासागर मेला समूचे विश्व में विख्यात है। इस दिन गंगासागर में स्नान–दान के लिये लाखों लोगों की भीड़ होती है। स्नान के पश्चात यहां तिल दान करने की परम्परा है। कहा जाता है कि यहीं पर गंगा जी भगीरथ के पीछे–पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा मिली थीं। मोक्ष प्राप्ति की विशेष मान्यता के कारण कहा जाता है “सारे तीरथ बार बार, गंगासागर एक बार।“
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