रामलला हम आ रहे हैं, मंदिर वहीं बन गया है। मंदिर के लिए बलिदान देने वाले कोटि-कोटि जन की आत्मा को शांति मिलने का क्षण आ गया है। लाखों कारसेवकों की तपस्या सिद्ध होने का समय आ गया है। कभी समर्पण लेने आए थे, अब निमंत्रण देने आ रहे है..।
इतिहास में 2024 को रामवर्ष के रूप में जाना जाएगा। इसका शुभारंभ सोम दिवस से हुआ है। ‘रा’ से राष्ट्र और ‘म’ से मंगल। 2024 का प्रारंभ ही इस भाव से हुआ है कि – सौगंध राम की खायी थी, और अब मंदिर वहीं बनाया है। राष्ट्र के मंगल का मंदिर।
दशकों तक यह नारा लगा था- रामलला हम आएंगे मंदिर वहीं बनाएंगे। ये छह शब्द लगभग 500 वर्षों से भारत के जनमानस में गूंज रहे थे। आज हम गर्व से कह सकते हैं- रामलला हम आ रहे हैं, मंदिर वहीं बन गया है। मंदिर के लिए बलिदान देने वाले कोटि-कोटि जन की आत्मा को शांति मिलने का क्षण आ गया है। लाखों कारसेवकों की तपस्या सिद्ध होने का समय आ गया है। कभी समर्पण लेने आए थे, अब निमंत्रण देने आ रहे है..।
भावनाओं को नियंत्रण में रखना कठिन है। कोटि-कोटि जन जिन राम से जुड़े हैं, रामजी उन कोटि-कोटि जन से जुड़ने जा रहे हैं। ऐसी दीपावली का क्षण, जो त्रेतायुग की दीपावली से कम नहीं होगी। क्या वानर, क्या गिलहरी- पूरे देश के साथ सब रामरंग में रंगे हुए हैं। राम का स्वभाव भी यही है। पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण, भारत का हर अंचल और हर व्यक्ति जुड़ा हुआ है रामजी से।
लंका से विदा होने से पहले भगवान श्रीराम ने समस्त लंकावासियों को भी अयोध्या आमंत्रित किया था। भगवान श्रीराम पूरे समाज स्वयं जुड़े और सबको परस्पर जुड़ने का संकल्प भी दिलाया। चूंकि दानवी शक्तियां सदैव समाज के बिखराव का लाभ उठाती हैं। उनका सामना केवल संगठन शक्ति से ही किया जा सकता है। यदि समाज संगठित रहेगा, सशक्त रहेगा तो आसुरी शक्तियां सभ्य सुसंस्कृत समाज को कभी कष्ट न दे सकेंगी।
भगवान श्रीराम का व्यक्तित्व और कृतित्व केवल अयोध्या या लंका विजय सीमित नहीं है। उनका जीवन समाज और राष्ट्रनिर्माण के लिए समर्पित भी रहा है और हमारे लिए संदेश भी है। वनवास यात्रा से पहले और राज्याभिषेक के बाद भी वे पूरे भारत को एक सूत्र में बांधने में सतत सक्रिय रहे। उन्होंने उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक पूरे भारत को एक सांस्कृतिक स्वरूप प्रदान किया। भगवान अब यही कार्य फिर करने जा रहे हैं। क्या यह कोई संदेश नहीं है?
भगवान श्रीराम ने अपने वनवास काल में अयोध्या से चित्रकूट और चित्रकूट से लंका तक यात्रा में लगभग प्रत्येक ऋषि आश्रम और प्रत्येक समाज से संपर्क किया था। भगवान स्वयं उनके बीच रहे, उनकी जीवन शैली समझी और लौटते समय लगभग हर समाज प्रमुख को पुष्पक विमान में अपने साथ अयोध्या लाये थे। ये सभी उनके राज्याभिषेक आयोजन में अतिथि थे। अब हमें उनके विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा के आयोजन का अवसर मिला है। आतिथेय भी हम, अतिथि भी हम। हमारे राम, राम के हम।
भगवान श्रीराम ने अपने वनवास जीवन से पहले भी दो बार वन यात्रा की थी । पहली बार अध्ययन के लिये महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में गए। इस आश्रम के दो स्थान माने जाते हैं। एक आज के जिला बाराबंकी के अंतर्गत और दूसरा उत्तराखंड में। तब ये दोनों क्षेत्र वन और पर्वतीय अंचल थे। दूसरा महर्षि विश्वामित्र के साथ अयोध्या से दंडकारण्य तक की यात्रा की थी और आसुरी शक्तियों का दमन कर सांस्कृतिक चेतना का वातावरण बनाया था।
स्वेच्छाचारी आसुरी शक्तियां सांस्कृतिक मूल्यों और मानवीय संवेदनाओं का हरण कर रहीं थीं। इनके कारण समाज और राष्ट्र दोनों में विघटन बढ़ने लगा था। इससे चिंतित महर्षि विश्वामित्र ने रामजी से सहायता मांगी और दंडकारण्य तक पूरा भारत एक सूत्र में बंधा। दंडकारण्य आज के छत्तीसगढ़ से उड़ीसा, आन्ध्र तथा महाराष्ट्र की सीमाओं तक छूता था।
वनवास काल में भगवान श्रीराम दंडकारण्य से आगे बढ़े और श्रीलंका तक गए। श्रीलंका तक जाना माता सीता की खोज मान सकते हैं लेकिन जिस प्रकार लौटते समय वे प्रत्येक स्थान पर गए, सभी समाजों से मिले और सभी समाज प्रमुखों को अपने साथ अयोध्या लेकर आए, वह रामराज्य का आधार बिन्दु था। रावण वध के बाद पुष्पक विमान से भगवान श्रीराम कुछ ही घंटों में ही लंका से अयोध्या आ सकते थे। लेकिन भगवान श्रीराम पुष्पक विमान में बैठकर सीधे अयोध्या नहीं आए। अपितु वे उन सभी वन्य ग्रामों और ऋषि आश्रमों में गए जहां अपनी वनवास यात्रा में सीताहरण से पहले गए थे।
भगवान श्रीराम सभी समाजों से मिले और समाज प्रमुखों को अयोध्या आने का आमंत्रण दिया। वास्तव में इस कार्य में ही उन्हें सत्रह दिन लगे। लंका से विदा होने से पहले भगवान श्रीराम ने समस्त लंकावासियों को भी अयोध्या आमंत्रित किया था। भगवान श्रीराम पूरे समाज स्वयं जुड़े और सबको परस्पर जुड़ने का संकल्प भी दिलाया। चूंकि दानवी शक्तियां सदैव समाज के बिखराव का लाभ उठाती हैं। उनका सामना केवल संगठन शक्ति से ही किया जा सकता है। यदि समाज संगठित रहेगा, सशक्त रहेगा तो आसुरी शक्तियां सभ्य सुसंस्कृत समाज को कभी कष्ट न दे सकेंगी।
रामराज्य का सूत्रपात
अपने राज्याभिषेक के बाद भी भगवान श्रीराम का यह अभियान यथावत रहा । उन्होंने लक्ष्मण, शत्रुघ्न और हनुमान जी को विभिन्न दिशाओं में भेजा और पूरे भारत को एक सूत्र में पिरोया।
अपनी पसंद, रुचि या क्षेत्र विशेष की प्रकृति के अनुरूप जीवन शैली में विविधता एक बात है और सांस्कृतिक विविधता दूसरी बात। भारत प्रकृति की विविधता से भरा देश है। यहां यदि बर्फ से ढका हिमालय है तो राजस्थान में रेगिस्तान भी है। तीन ओर से समुद्र से घिरी सीमाएं भी हैं। इसके कारण रहन सहन में भेद है। लेकिन यह केवल बाह्य रूप है। आंतरिक रूप से भारत राष्ट्र का सांस्कृतिक स्वरूप एक ही है। इसी सिद्धांत को जीवन में उतारने का काम प्रभु श्रीराम ने किया था।
भारतीय संस्कृति समूची वसुन्धरा के निवासियों को कुटुम्ब मानती है। संसार का एक-एक प्राणी उसके कुटुम्ब का अंग हैं। सभी समाज, वर्ग और क्षेत्र जन परस्पर प्रीति करें, एक दूसरे का पूरक बनें, यह संदेश रामजी की प्रत्येक यात्रा और अभियान में रहा। किसी में कोई भेद न हो, न नगरवासी में, न ग्रामवासी में और न कोई वन के निवासी में। भगवान श्रीराम ने एक एक व्यक्ति, वर्ग और क्षेत्र को राजमहल से जोड़ा। उनकी वनवास यात्रा के विवरण से स्वमेव स्पष्ट है कि रामजी ने वनवासियों को तंग करने वाले और उनका शोषण करने वाले संगठित समूहों का अंत किया।
आसुरी प्रवृत्तियां वनों में ही सर्वाधिक सक्रिय थीं। जिससे ऋषिगण और वनवासी समाज आक्रांत हुआ। रामजी महर्षि विश्वामित्र के साथ गए हों या अपनी वनवास यात्रा में। उन्होंने उन सभी राक्षसों का अंत किया जो शांतिप्रिय नागरिकों को, उनके समूहों को तंग करते थे। जिस प्रकार एक ही वृक्ष की शाखाएं अलग-अलग दिशाओं में फैलती हैं या उसके पके हुए फल से निकला बीज किसी दूसरे स्थान पर पनपकर नया वृक्ष बन जाता है और उसी से समाज का विस्तार होता है। विश्व की संपूर्ण मानवता का केन्द्रीभूत बिन्दु एक ही है। रामजी का आचरण इसी भाव का था और यही संदेश उन्होंने समाज को दिया।
भारत के आध्यात्मिक एकत्व स्वरूप को आराध्य प्रतीकों से भी समझा जा सकता है। नारायण महासागर में निवास करते हैं और शिव कैलाश पर। अर्थात एक सिरे से दूसरे सिरे तक भारत एक है। यदि संबंधों की व्यापकता को देखें तो (एक मान्यतानुसार) रावण की पत्नी मंदोदरी मध्यप्रदेश के मंदसौर जिले की मानी जाती हैं, तो राम की माता देवी कौशल्या छत्तीसगढ़ की। श्रीलंका में रावण के अनुज विभीषण की पत्नी सरमा कैकेय प्रदेश की थीं, जहां की राजकुमारी कैकेयी राजा दशरथ की पत्नि थीं। मैसूर में, तमिलनाडु में, बंगाल में, असम में कितनी लोककथाओं के नायक राम हैं। कितने स्थलों के नामों में राम शब्द आता है। यह सब भगवान राम के व्यक्तित्व की व्यापकता का सूचक है।
इसके दो ही अर्थ संभव हैं। एक तो राम स्वयं वहां गए हों अथवा कोई और उनका संदेश लेकर वहां गया हो । दोनों अर्थों का उद्देश्य केवल एक है- पूरे भारत राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोना। जय श्रीराम।
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