लोहड़ी का त्यौहार यूं तो समस्त उत्तर भारत में हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है किन्तु पंजाब तथा हरियाणा में यह पंजाबी लोक महोत्सव मनाए जाने की बात ही निराली है। आपसी प्रेम और भाईचारे की मिसाल कायम करने वाला एक अनूठा पर्व है लोहड़ी, जिसे सभी एक साथ मिल-जुलकर नाच-गाकर खुशियां मनाकर मनाते हैं।
इस अवसर पर लोग अपनी सारी व्यस्तताएं भूलकर जोश और उल्लास के साथ इस पर्व का भरपूर आनंद लेते हैं। इस पर्व पर मौसम की कड़ाके की ठंड होती है और लोग लोहड़ी वाले दिन अपने घरों के बाहर अलाव जलाकर अग्नि की पूजा करते हैं ताकि उनके घरों से दरिद्रता का समूल नाश हो और घर में सुख-समृद्धि का साम्राज्य स्थापित हो सके। लोहड़ी से कई दिन पहले ही बाजार मूंगफली, रेवड़ी, तिल व गुड़ की गज्जक, चिड़वा इत्यादि से भर जाते हैं क्योंकि लोहड़ी पर लोग इन सब चीजों को न केवल अपने परिवार के खाने के लिए खरीदते हैं बल्कि ये सब चीजें दूसरों को भी भेंट करते हैं।
विशेषकर पंजाबी समुदाय में जिस घर में नई शादी हुई हो, शादी की पहली वर्षगांठ हो अथवा संतान का जन्म हुआ हो, वहां तो लोहड़ी का विशेष महत्व होता है। लोहड़ी के दिन कुंवारी लड़कियां रंग-बिरंगे नए-नए कपड़े पहनकर ऐसे घरों में पहुंच जाती हैं और लोहड़ी मांगती हैं। लोहड़ी के रूप में उन्हें कुछ रुपये, मूंगफली, रेवड़ी व मक्का की खील (पॉपकॉर्न) मिलती हैं। नवविवाहित लड़कों के साथ अठखेलियां करती हुई लड़कियां यह कहकर लोहड़ी मांगती हैं:-
लोहड़ी दो जी लोहड़ी,
जीवै तुहाडी जोड़ी।
लोहड़ी से कुछ दिन पहले ही गली-मौहल्ले के लड़के-लड़कियां घर-घर जाकर लोहड़ी के गीत गाकर लोहड़ी मांगने लगते हैं और लोहड़ी के दिन उत्सव के समय जलाई जाने वाली लकडि़यां व उपले मांगते समय भी बच्चे लोहड़ी के गीत गाते हैं:-
हिलणा वी हिलणा, लकड़ी लेकर हिलणा।
हिलणा वी हिलणा, पाथी लेकर हिलणा।
दे माई लोहड़ी, तेरी जिए जोड़ी।
जिस घर से लोहड़ी या लकडि़यां व उपले नहीं मिलते, वहां बच्चों की टोली इस प्रकार के गीत गाती हुई भी देखी जा सकती है:-
कोठे उते हुक्का, ये घर भुक्खा।
उड़दा-उड़दा चाकू आया, माई दे घर डाकू आया।
लड़कियां जब घर-घर जाकर लोहड़ी मांगती हैं और उन्हें लोहड़ी मिलने का इंतजार करते हुए कुछ समय बीत जाता है तो वे गीत गाते हुए कहती हैं:-
साडे पैरां हेठ सलाइयां, असी केहड़े वेले दीयां आइयां।
साडे पैरां हेठ रोड़, माई सानूं छेती छेती तोर।
इन गीतों के बाद भी जब उन्हें लगता है कि उस घर से उन्हें कोई जवाब नहीं मिल रहा है तो वे पुनः गीत गाते हुए कहती हैं:-
साडे पैरां हेठ दहीं, असी इथों हिलणा वी नहीं।
कई जगहों पर लोहड़ी को ‘तिलोड़ी’ के नाम से भी जाना जाता है। तिलोड़ी शब्द तिल और रोड़ी (गुड़) से मिलकर बना है और माना जाता है कि तिलोड़ी को ही कालांतर में लोहड़ी के नाम से जाना जाने लगा। यह भी माना जाता है कि संत कबीर की पत्नी के नाम लोही के नाम पर इस त्यौहार का नाम ‘लोहड़ी’ पड़ा। लोहड़ी को लेकर कुछ पौराणिक कथाएं भी प्रचलित हैं। ऐसी ही कथाओं के अनुसार भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा उनकी हत्या के लिए कंस द्वारा भेजी गई लोहिता नामक राक्षसी को श्रीकृष्ण द्वारा खेल-खेल में ही मार दिए जाने की खुशी में लोगों द्वारा लोहड़ी का त्यौहार मनाया गया।
लोहड़ी के मौके पर यह गीत आज भी जब वातावरण में गूंजता है तो दुल्ला-भट्टी के प्रति लोगों की अपार श्रद्धा का आभास स्वतः ही हो जाता है। समय के बदलाव के साथ-साथ हालांकि घर-घर से लकडि़यां व उपले मांगकर लाने की परम्परा समाप्त होती जा रही है लेकिन लोहड़ी के दिन सुबह से ही रात के उत्सव की तैयारियां आरंभ हो जाती हैं और रात के समय लोग अपने-अपने घरों के बाहर अलाव जलाकर उसकी परिक्रमा करते हुए उसमें तिल, गुड़, रेवड़ी, चिड़वा इत्यादि डालते हैं और माथा टेकते हैं। उसके बाद अलाव के चारों ओर बैठकर आग सेंकते हैं।
एक अन्य कथानुसार राजा दक्ष द्वारा अपनी पुत्री सती और दामाद भगवान शिव को अपने यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया तो सती इसका कारण जानने अपने पिता के पास गई लेकिन जब दक्ष द्वारा सती और उनके पति शिव के बारे में बहुत भला-बुरा कहा गया तो सती से पति का अपमान बर्दाश्त नहीं हुआ, जिसके बाद सती ने उसी यज्ञ में स्वयं को भस्म कर दिया। माना जाता है कि सती की याद में ही लोहड़ी पर्व पर अग्नि जलाई जाती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार यह भी माना जाता है कि लोहड़ी होलिका की बहन थी, जो होलिका के विपरीत धार्मिक प्रवृत्ति वाली थी। कहा जाता है कि उन्हीं के नाम पर यह त्यौहार मनाया जाता है।
लोहड़ी का संबंध सुन्दरी नामक एक कन्या तथा दुल्ला भट्टी नामक एक डाकू से जोड़ा जाता है। लोहड़ी के संबंध में प्रचलित ऐतिहासिक कथा के अनुसार, गंजीबार क्षेत्र में एक ब्राह्मण रहता था, जिसकी सुन्दरी नामक एक कन्या थी, जो अपने नाम की भांति ही बेहद सुंदर थी। वह इतनी रूपवान थी कि उसके रूप, यौवन व सौन्दर्य की चर्चा गली-गली में होने लगी थी और धीरे-धीरे उसकी सुन्दरता के चर्चे उड़ते-उड़ते गंजीबार के राजा तक भी पहुंचे। राजा उसकी सुन्दरता का बखान सुनकर सुन्दरी पर मोहित हो गया और उसने सुन्दरी को अपने हरम की शोभा बनाने का निश्चय किया।
गंजीबार के राजा ने सुन्दरी के पिता को संदेश भेजा कि वह अपनी बेटी सुन्दरी को उसके हरम में भेज दे, इसके बदले में उसे धन-दौलत से लाद दिया जाएगा। उसने उस ब्राह्मण को अपनी बेटी को उसके हरम में भेजने के लिए अनेक तरह के प्रलोभन दिए। राजा का संदेश मिलने पर बेचारा ब्राह्मण घबरा गया। वह अपनी लाड़ली बेटी सुन्दरी को उसके हरम में नहीं भेजना चाहता था। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? जब उसे कुछ नहीं सूझा तो उसे जंगल में रहने वाले राजपूत योद्दा दुल्ला-भट्टी का ख्याल आया, जो एक कुख्यात डाकू बन चुका था लेकिन गरीबों व शोषितों की मदद करने के कारण लोगों के दिलों में उसके प्रति अपार श्रद्धा थी।
ब्राह्मण बहुत घबराया हुआ उसी रात जंगल में दुल्ला भट्टी के पास पहुंचा और उसे विस्तार से सारी बात बताई। दुल्ला भट्टी ने ब्राह्मण की व्यथा सुनकर उसे सांत्वना दी और रात के समय ही खुद एक सुयोग्य ब्राह्मण लड़के की खोज में निकल पड़ा। दुल्ला भट्टी ने उसी रात एक योग्य ब्राह्मण लड़के को तलाशकर सुन्दरी को अपनी ही बेटी मानकर अग्नि को साक्षी मानते हुए उसका कन्यादान अपने हाथों से किया और ब्राह्मण युवक के साथ सुन्दरी का रात में ही विवाह कर दिया। उस समय दुल्ला-भट्टी के पास बेटी सुन्दरी को देने के लिए कुछ भी नहीं था, अतः उसने तिल व शक्कर देकर ही ब्राह्मण युवक के हाथ में सुन्दरी का हाथ थमाकर सुन्दरी को उसकी ससुराल विदा किया। गंजीबार के राजा को जब इसकी सूचना मिली तो वह आग-बबूला हो उठा और उसने उसी समय अपनी सेना को गंजीबार इलाके पर हमला करने तथा दुल्ला भट्टी का खात्मा करने का आदेश दिया।
राजा का आदेश मिलते ही सेना दुल्ला भट्टी के ठिकाने की ओर बढ़ी लेकिन दुल्ला-भट्टी और उसके साथियों ने अपनी पूरी ताकत लगाकर राजा की सेना को बुरी तरह धूल चटा दी। दुल्ला भट्टी के हाथों शाही सेना की करारी शिकस्त होने की खुशी में गंजीबार में लोगों ने अलाव जलाए और दुल्ला-भट्टी की प्रशंसा में गीत गा-गाकर भंगड़ा डाला। कहा जाता है कि तभी से लोहड़ी के अवसर पर गाए जाने वाले गीतों में सुन्दरी और दुल्ला भट्टी को विशेष तौर पर याद किया जाने लगा।
सुंदर मुंदरीए हो
तेरा कौण विचारा हो
दुल्ला भट्टी वाला हो
दुल्ले धी ब्याही हो
सेर शक्कर पाई हो
कुड़ी दे मामे आए हो
मामे चूरी कुट्टी हो
जमींदारा लुट्टी हो
कुड़ी दा लाल दुपट्टा हो
दुल्ले धी ब्याही हो
दुल्ला भट्टी वाला हो
दुल्ला भट्टी वाला हो।
लोहड़ी के मौके पर यह गीत आज भी जब वातावरण में गूंजता है तो दुल्ला-भट्टी के प्रति लोगों की अपार श्रद्धा का आभास स्वतः ही हो जाता है। समय के बदलाव के साथ-साथ हालांकि घर-घर से लकडि़यां व उपले मांगकर लाने की परम्परा समाप्त होती जा रही है लेकिन लोहड़ी के दिन सुबह से ही रात के उत्सव की तैयारियां आरंभ हो जाती हैं और रात के समय लोग अपने-अपने घरों के बाहर अलाव जलाकर उसकी परिक्रमा करते हुए उसमें तिल, गुड़, रेवड़ी, चिड़वा इत्यादि डालते हैं और माथा टेकते हैं। उसके बाद अलाव के चारों ओर बैठकर आग सेंकते हैं।
तब शुरू होता है गिद्दा और भंगड़ा का मनोहारी कार्यक्रम, जो रात्रि को देर तक चलता है। लोहड़ी के दिन लकडि़यों व उपलों का जो अलाव जलाया जाता है, उसकी राख अगले दिन मोहल्ले के सभी लोग सूर्योदय से पूर्व ही अपने-अपने घर ले जाते हैं क्योंकि इस राख को ‘ईश्वर का उपहार’ माना जाता है।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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