देवनागरी में रोमन शब्दावली के घालमेल पर व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया माध्यमों पर पहले आपत्ति की जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे यह घालमेल अपनी जगह मजबूत करता जा रहा
आज की हिंदी के जो दो रूप मुझ जैसे लोगों को परेशान करते हैं, वे हैं- हिंग्लिश (हिंदी तथा अंग्रेजी का मिश्रण) और कोलोकियल हिंदी (बेहद अनौपचारिक किस्म की हिंदी तथा सरल अंग्रेजी की खिचड़ी जिसे प्राय: रोमन लिपि में लिखा जाता है), लेकिन जिन्हें पसंद करने वालों की संख्या कम नहीं है। अंग्रेजी के अनेक शब्द हिंदी में आए हैं, जिन्हें मैं उतना बुरा नहीं समझता और इंटनरेटीय भाषा का हिंदी अनुवाद भी देखने को मिलता है (जैसे चिट्ठा और चटका), जिन्हें स्वीकार किया जा सकता है। बहरहाल, भाषाओं से जुड़े और भी पहलू हैं, जो हिंदी तक ही सीमित नहीं हैं।
अंग्रेजी भाषाविदों में आजकल यह चिंता आम है कि सोशल मीडिया पर होने वाले अटपटे-चटपटे भाषायी प्रयोगों तथा प्रचलनों से पारंपरिक व्याकरणिक परंपरा का अवमूल्यन हो रहा है और वहां छिन्न-भिन्न, अव्यवस्थित, असंगठित, अनुशासन-मुक्त और अनौपचारिक भाषायी परिवेश निर्मित हो रहा है। थोड़ा गहराई में जाएं तो फ्रांसीसी भाषा की परेशानी यह है कि सोशल मीडिया इस भाषा का अतिशय सरलीकरण करने पर आमादा है, जिससे उसकी शाब्दिक-साहित्यिक समृद्धि और प्रांजल प्रकृति खतरे में पड़ गई है।
जापान में इंटरनेट की टपोरी भाषा (स्लैंग) और शब्द-संक्षेपीकरण पर नाराजगी है। इस बढ़ती प्रवृत्ति के कारण ऐसा माना जा रहा है कि युवा पीढ़ी में संचार का वैसा कौशल नहीं रह गया है, जैसा पहले हुआ करता था। परिमाणत: जापानी भाषा का पारंपरिक सौंदर्य, उसकी परिशुद्धता और सुस्पष्ट प्रकृति संकट में है।
क्या यही सब चिंताएं हम हिंदीभाषियों की नहीं हैं? किंतु इन परिवर्तनों में भी कुछ अच्छा हो रहा है। भाषा नए वर्गों तक पहुंच रही है, शब्द संपदा समृद्ध हो रही है, भाषायी विविधता का विस्तार हुआ है और सांस्कृतिक दूरियां सिमट रही हैं। आज हम पिछली पीढ़ी की तुलना में संभवत: दूसरी भाषाओं तथा संस्कृतियों के शब्दों से अधिक परिचित हैं।
आजकल यह चिंता आम है कि सोशल मीडिया पर होने वाले अटपटे-चटपटे भाषायी प्रयोगों तथा प्रचलनों से पारंपरिक व्याकरणिक परंपरा का अवमूल्यन हो रहा है और वहां छिन्न-भिन्न, अव्यवस्थित, असंगठित, अनुशासन-मुक्त और अनौपचारिक भाषायी परिवेश निर्मित हो रहा है। थोड़ा गहराई में जाएं तो फ्रांसीसी भाषा की परेशानी यह है कि सोशल मीडिया इस भाषा का अतिशय सरलीकरण करने पर आमादा है, जिससे उसकी शाब्दिक-साहित्यिक समृद्धि और प्रांजल प्रकृति खतरे में पड़ गई है।
इंटरनेट के प्रभाव से हिंदी में आए बदलावों को शायद आपने नोट किया होगा। अंग्रेजी के कई शब्द संक्षेप, जैसे LOL (लाफ आउट लाउड यानी ठहाका), BRB (बी राइट बैक यानी अभी लौटता हूं), BTW (बाई द वे यानी प्रसंगवश) और TBH (टू बी आनेस्ट यानी ईमानदारी से कहूं तो..) हिंदी में भी चल निकले हैं। ऐसे शब्द संक्षेप अक्सर रोमन लिपि में ही लिख दिए जाते हैं, जो हिंदी की लिपि को भी प्रभावित कर रहे हैं। देवनागरी में रोमन शब्दावली का घालमेल होने पर व्हाट्सएप, फेसबुक और दूसरे सोशल मीडिया माध्यमों पर पहले आपत्ति की जाती थी, लेकिन धीरे-धीरे यह घालमेल अपनी जगह मजबूत करता जा रहा है।
लिखित संवादों में स्माइली, इमोजी और जिफ (चित्रों) का प्रयोग भी होने लगा है। लिखित संवाद में दृश्यात्मकता और चित्रात्मकता हिंदी के लिए नई चीज है। हालांकि जापानी जैसी भाषाओं में यह पहले से मौजूद रही है। ट्विटर ने हमारी भाषा को हैशटैग (#) जैसी चीजें दी हैं। हालांकि इस तरह के चिह्नों के लिए हमारी लिपि में कोई व्यवस्था नहीं है।
तीन दशक से अधिक की अवधि में हुआ नए मीडिया का विकास और इंटरनेट के अपरिमित प्रयोक्ता इस मीडिया को अनगिनत चुनौतियों तथा अवसरों की कसौटियों पर कस चुके हैं। नतीजतन आज वह हमारे समाज की परिपक्व तथा जीवंत वास्तविकता है। आज विभिन्न कोणों से उसके अध्ययन, शोध, विश्लेषण, मंथन तथा दस्तावेजीकरण का समय है। हिंदी तथा अन्य सभी भारतीय भाषाओं में ऐसे बदलाव बहुतायत में दिखाई दे रहे हैं, किंतु खेद का विषय है कि पश्चिमी भाषाओं की तुलना में हमारे यहां इन पर गंभीर, सुदीर्घ तथा परिपक्व अध्ययनों का अभाव है।
(लेखक माइक्रोसॉफ्ट एशिया में डेवलपर मार्केटिंग के प्रमुख हैं)
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