साहित्य रचना बहुजन हिताय होनी चाहिए : डॉ. मोहन भागवत

- अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा आयोजित सर्वभाषा साहित्यकार सम्मान समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित आरएसएस के सरसंघचालक श्री मोहन भागवत जी ने भारत की विभिन्न भाषाओं के 14 प्रतिष्ठित साहित्यकारों का सम्मानित किया.

Published by
WEB DESK

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत जी ने कहा कि भाषा लोगों के दिलों के साथ-साथ समाज को जोड़ने का प्रमुख साधन है. साहित्य की रचना केवल स्वांत सुखाय ना होकर बहुजन हिताय होनी चाहिए. भाषा का सम्मान समुचित उपयोग प्रयोग से ही होता है. केवल पुरस्कार, सम्मान देने भर से भाषा आगे नहीं बढ़ती. भारतीय दर्शन संपूर्ण विश्व के हित में है. इसलिए वर्तमान में मार्गदर्शन के लिए समग्र विश्व भारत की ओर देख रहा है. धर्म को लेकर लोगों के मन में भ्रांत धारणाएं बनी हुई है. उपासना पद्धति धर्म नहीं होती. लोगों की उपासना पद्धति अलग-अलग हो सकती है, मगर धर्म एक है जो चिरंतन शाश्वत सत्य है.

अखिल भारतीय साहित्य परिषद द्वारा आयोजित सर्वभाषा साहित्यकार सम्मान समारोह में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित डॉ. मोहन भागवत जी ने भारत की विभिन्न भाषाओं के 14 प्रतिष्ठित साहित्यकारों का सम्मानित किया.

सरसंघचालक जी ने कहा कि मनुष्य और प्राणी में यही अंतर है कि प्राणी आहार, बिहार, निद्रा, मैथुन करता है और केवल अपने ही हित की बात सोचता है. जबकि मनुष्य अपना हित साधन करने के साथ-साथ समाज के हित का भी ध्यान रखता है. देश के अलग-अलग प्रांतों में प्रचलित भाषाओं पर कहा कि मातृभाषा के उपयोग पर जोर दिया जाना चाहिए. अपनी भाषा में जब तक हम संवाद और कामकाज नहीं करेंगे, तब तक हमारा हित नहीं होने वाला.

उन्होंने कहा कि वर्तमान में मनुष्य एक ऐसी स्थिति से गुजर रहा है, जिसमें वह केवल अपने ही हित की बात सोचता है. आत्महीनता में डूबा हुआ समाज कभी आगे नहीं बढ़ सकता. समाज को जागृत करने के लिए साहित्य को प्रयास करना चाहिए. अब समय अनुकूल चल रहा है, ऐसे में साहित्यकारों का उत्तरदायित्व और भी बढ़ जाता है कि वह भारतीय समाज, भारतीय संस्कृति की विशेषताओं को लेकर लोगों के भ्रम को दूर करें और समाज को एक सूत्र में बांधने में अपने महती भूमिका निभाएं.

भारत की विशिष्टता यही है कि हमारे देश में एकता की विविधता है. हमारे यहां एकता में विभिन्नता नहीं है, विविधता नहीं है, हमारी तो एकता की विविधता है. इस बात को समझने में लोग गलती कर बैठते हैं और अनेकता में एकता की बात करने लगते हैं. जबकि वास्तविकता यह है कि हमारे एकता की विविधता ही हमारी संस्कृति की पहचान है.

सरसंघचालक जी ने कहा कि भारत की अवधारणा धर्म को लेकर बिल्कुल साफ है. धर्म समाज और पर्यावरण सभी को जुड़े रहने की ताकत देता है जो बिखरने ना दे, वही धर्म है. भारत के इतर अन्य लोग धर्म को रिलिजन बताते हैं. जबकि रिलिजन उपासना पद्धति का ही नाम है. इसी गड़बड़ी के कारण लोग धर्म को लेकर संदेह में रहते हैं.

कार्यक्रम में धरणीधर नाथ सम्मानित अतिथि के तौर पर उपस्थित थे. अखिल भारतीय साहित्य परिषद के राष्ट्रीय अध्यक्ष सुशील चंद्र द्विवेदी ने धन्यवाद ज्ञापन किया.

 

Share
Leave a Comment