गत नवंबर महीने में राष्ट्रीय बाल संरक्षण आयोग (एनसीपीसीआर) की टीम ने बेंगलुरु में दारूल उलूम देवबंद द्वारा संचालित एक अनाथालय का औचक निरीक्षण कर कई गड़बड़ियों को उजागर किया था। वहां बच्चों की स्थिति भी दयनीय थी। इसे लेकर आयोग ने राज्य के मुख्य सचिव को नोटिस जारी किया, तो अनाथालय पर कार्रवाई करने के बजाए राज्य सरकार ने आयोग के अध्यक्ष पर ही मुकदमा दर्ज करा दिया। राज्यों में बाल अधिकारों की स्थिति, कानून और इसे लागू करने में राज्य सरकारों की नीयत पर एनसीपीसीआर के अध्यक्ष प्रियंक कानूनगो से पाञ्चजन्य के समाचार संपादक नागार्जुन ने विस्तृत बात की। प्रस्तुत हैं बातचीत के अंश-
बीते दिनों आपने बेंगलुरु में ईसाई मिशनरी द्वारा संचालित बाल गृह और दारूल उलूम सैय्यदिया यतीमखाने में कुछ गड़बड़ियां पकड़ी थीं। इसके बारे विस्तार से बताइए।
भारत सरकार को ओपन शेल्टर के बारे में कई शिकायतें मिली हैं। उसी सिलसिले में हमने जगह-जगह निरीक्षण किया। कर्नाटक में हमने 24 आश्रय गृहों का निरीक्षण किया और तीन मामलों में प्राथमिकी दर्ज कराई। इसी क्रम में बेंगलुरु स्थित डॉनबॉस्को के आश्रय गृह और दारूल उलूम सैय्यदिया यतीमखाने का निरीक्षण किया था। मिशनरी के आश्रय गृह के फ्रिज में संदिग्ध मांस मिला था। हमने संचालक से पूछा तो उसने कुछ नहीं बताया। तलाशी के दौरान एनसीपीसीआर की टीम के सदस्य को कचरे के डिब्बे से बीफ का बिल मिला। इसी तरह, दारूल उलूम सैय्यदिया यतीमखाना एक मस्जिद के अंदर चल रहा है, जिसमें लगभग 200 बच्चों को रखा गया था। छोटे-छोटे 5 कमरों में 40 बच्चे थे, 16 बच्चे गलियारे में रह रहे थे। शेष 150 बच्चे मस्जिद के दो हॉल में रहते थे, जहां नमाज पढ़ी जाती है। उन्हें रात में कुछ ही घंटे सोने को मिलता था। फिर तड़के 3:30 बजे से ही उन्हें मदरसे की पढ़ाई में लगा दिया जाता था।
बच्चों की स्थिति बहुत दयनीय थी। उनके खाने, आराम करने, मनोरंजन आदि की भी कोई सुविधा नहीं थी। यहां तक कि बच्चों को स्कूल भी नहीं भेजा जाता था। बच्चों में खौफ इतना था कि मौलवी को आते देखकर वे आंखें बंद कर खड़े हो जाते थे। किशोर न्याय अधिनियम कानून कहता है कि जिन बच्चों के परिवार नहीं हैं, उन्हें परिवार दिया जाए, उन्हें गोद दिया जाए। लेकिन दारूल उलूम देवबंद द्वारा संचालित इस अनाथालय में मजहबी अंतर साफ दिखता है। देवबंद कहता है कि बच्चों को गोद नहीं दिया जा सकता, क्योंकि इस्लाम में गोद लिए गए व्यक्ति के साथ मुस्लिम लड़की का निकाह जायज नहीं माना जाता है। यह भारत के कानून के विरुद्ध तो है ही, बच्चों के अधिकारों का भी हनन है। यह बाल अधिकारों पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीआरसी) का भी उल्लंघन है।
कर्नाटक सरकार को अंतत: आपकी सिफारिश पर यतीमखाने के खिलाफ कार्रवाई करनी पड़ी। लेकिन जब आपने राज्य के मुख्य सचिव से इसकी शिकायत की थी, तब आप पर ही मुकदमा दर्ज कर लिया गया। क्या यह विरोधाभास नहीं है?
जहां तुष्टीकरण होता है, वहां विरोधाभास तो होगा ही। तुष्टीकरण किसी न किसी के अधिकारों का हनन करेगा ही। ये केवल बच्चों के अधिकारों का ही हनन नहीं कर रहे हैं, बल्कि मेरे जैसे लोगों पर भी मुकदमा करके यह बता रहे हैं कि वे कितने कट्टर हैं। जब राज्य सरकारें बड़े पैमाने पर गड़बड़ियां करती हैं तो डरी रहती हैं। उन्हें लगता है कि आयोग के बार-बार आने से गड़बड़ियां उजागर हो जाएंगी। इसलिए मुझे रोकने के लिए मुझ पर मुकदमा किया गया ताकि मैं डर कर वहां जाना बंद कर दूं। सच यह है कि यतीमखाने में बच्चों को औरंगजेब के जमाने की तालिम दी जा रही थी, जिसमें यह पढ़ाया जाता है कि अनुशासन में रखने के लिए बच्चे को एक वक्त में तीन थप्पड़ मारना जायज है।
बच्चों को ऐसी खतरनाक परिस्थितियों में छोड़ना, राज्य की कानून-व्यवस्था पर एक बड़ा सवालिया निशान था। इसलिए 20 नवंबर को हमने राज्य के मुख्य सचिव को नोटिस भेजा। लेकिन यतीमखाने पर कानूनी कार्रवाई करने के बजाय कर्नाटक सरकार ने मुझ पर ही एफआईआर दर्ज कर लिया। बालअधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम-2005 के तहत एनसीपीसीआर का गठन हुआ। यह अधिनियम तय करता है कि अनाथ आश्रमों का संचालन किस प्रकार होना चाहिए। इस कानून की धारा 41 के अनुसार, हर अनाथ आश्रम पंजीकृत होना चाहिए। वहां बच्चे कैसे लाए जाएंगे, कैसे वहां से ले जाए जाएंगे, यह सब बाल कल्याण समिति की देखरेख में होगा। सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों ने भी कानून लागू करने व अनाथालयों के पंजीकरण की अनिवार्यता पर निर्णय दिए हैं। लेकिन बेंगलुरु स्थित दारूल उलूम सैय्यदिया यतीमखाना पंजीकृत नहीं था।
जब हम निरीक्षण करने गए तो यतीमखाने के प्रबंधक ने कहा कि ‘हम अल्पसंख्यक हैं और हमें छूट मिली हुई है’’, जबकि इस अधिनियम की धारा 13 के अनुसार, ऐसे किसी भी संस्थान का, जहां बच्चे रहते हों, निरीक्षण करना और इससे सरकार व संसद को अवगत कराना हमारा कर्तव्य है। यदि राज्य सरकार ही हम पर एफआईआर करेगी, तो इसका मतलब है कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों, संवैधानिक व्यवस्था और प्रशासनिक तंत्र को भूल चुकी है। यह तो एक तरह से शरियत के अनुसार सरकार चलाना हुआ। हमें पता चला है कि यतीमखाने के विरुद्ध जेजे अधिनियम की धारा 41 के उल्लंघन का मामला दर्ज किया गया है। असल में पूरे कर्नाटक को एनजीओ के हाथ में दे दिया गया है, जो अपने स्वार्थ के लिए काम कर रहे हैं। राज्य में बच्चों के संरक्षण की स्थिति खराब है।
क्या आपकी जानकारी में ऐसा कोई मामला आया है, जिससे पता चलता हो कि मदरसों में कन्वर्जन किया जाता है?
कुछ समय पहले उत्तर प्रदेश में देवबंद से सटे मुजफ्फरनगर में एक मदरसे की करतूत की सूचना मिली थी। उस मदरसे में 8 वर्ष पहले कथित तौर पर एक अनाथ बच्चे को लाया गया था, जो हिंदू था। जब वह 16-17 वर्ष का हुआ, तो अपना आधार कार्ड बनवाने गया। आधार कार्ड केंद्र पर उसे पता चला कि उसका आधार कार्ड पहले से बना हुआ है। उसमें उसका नाम विवेक था, लेकिन कन्वर्ट करके उसका नाम मोहम्मद उमर रख दिया गया था। दूसरी घटना कर्नाटक की है, जहां मदरसे में रहने वाले 200 अनाथ बच्चों के बारे में कुछ नहीं पता है कि वे कब, कैसे और कहां से आए? उन्हें कौन लाया? किस प्रकार लाया? जांच में पता चला कि इस मदरसे की कुल संपत्ति 1,500 करोड़ रुपये की है।
क्या ‘अल्पसंख्यक’ होने का मतलब यह है कि उस समुदाय को हर तरह की छूट है?
यह अपने आप में बहुत बड़ा सवाल है। इस मामले में कर्नाटक सरकार का रवैया बहुत उदासीन था। राज्य के अधिकारियों को मालूम ही नहीं था कि वहां कोई अनाथालय भी चल रहा है। दारूल उलूम देवबंद इस्लामी विचारधारा को मानने और प्रसारित करने वाली वाली संस्था है। उस पर यह गलतफहमी होना कि ‘अल्पसंख्यकों’ को छूट मिली हुई है, एक खतरनाक प्रवृत्ति है। इनको लगता है कि ये सरकारें चला रहे हैं।
तुष्टीकरण किसी न किसी के अधिकारों का हनन करेगा ही। ये केवल बच्चों के अधिकारों का ही हनन नहीं कर रहे हैं, बल्कि मेरे जैसे लोगों पर भी मुकदमा करके यह बता रहे हैं कि वे कितने कट्टर हैं।
कुछ समय पहले महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में मुस्लिम बच्चों को छुड़ाया गया था। इन्हें मदरसों में पढ़ाने के नाम पर बिहार से लाया गया था। मुस्लिम बच्चों को मदरसों में पढ़ाने पर क्यों जोर दिया जाता है?
देखिए, देश में करीब 1.20-1.30 करोड़ बच्चे उन मदरसों में पढ़ रहे हैं, जो किसी रिकॉर्ड में नहीं हैं। तकलीफ की बात यह है कि दारूल उलूम देवबंद जैसे संस्थान तय करते हैं कि बच्चे मदरसों में पढ़ें। इसलिए बिहार, पश्चिम बंगाल, ओडिशा, असम, उत्तर प्रदेश के गरीब मुस्लिम परिवारों के मुस्लिम बच्चों को लाकर इन मदरसों में रखा जाता है, जहां मौलिक शिक्षा नहीं दी जाती है। उन बच्चों से शिक्षा का अधिकार छीना जा रहा है। इस मामले में हम कई राज्य सरकारों के साथ अलग-अलग स्तर पर संघर्षरत हैं, ताकि बच्चों को संविधान प्रदत्त अधिकार दिए जा सकें।
आपने कहा कि मदरसों में औरंगजेब के जमाने का पाठ्यक्रम पढ़ाया जाता है। देवबंद का मदरसों और शिक्षा से क्या संबंध है?
दारूल उलूम देवबंद मुस्लिमों की एक शीर्ष संस्था है, जो देशभर में मजहबी संस्थाओं को नियंत्रित करती है। इसके द्वारा संचालित मदरसों में बच्चों को 18वीं सदी के पाठ्यक्रम पढ़ाए जाते हैं। इसमें प्रमुख है- दर्स-ए-निजामी, जिसे औरंगजेब ने तैयार करवाया था। देवबंद ने अपने तरीके से इतिहास लिखा है, जिसमें बच्चों को पढ़ाया जाता है कि स्वाधीनता की लड़ाई केवल देवबंद के मार्गदर्शन में लड़ी गई। स्वतंत्रता सेनानियों को क्या करना है, इसके निर्देश देवबंद से दिए जाते थे। असल में देवबंद भारत में खलीफाई आंदोलन कायम करने की मुहिम चला रहा था। बच्चों को यह भी बताते हैं कि उन्हें इस बात की तकलीफ है कि भारत की सत्ता मुसलमानों के हाथ में नहीं गई। सेकुलरिज्म में तो इनका विश्वास ही नहीं है।
दारूल उलूम देवबंद प्रोफेशनल कोर्स के नाम पर सिर्फ पत्रकारिता पढ़ाता है, जिसका उद्देश्य है बे्रन वाश करना, नैरेटिव गढ़ना और मुसलमानों को यह घुट्टी पिलाना कि भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था में वे खतरे में हैं। देवबंद ने मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड बनाया। तब्लीगी जमात, उलेमाओं से जुड़े संगठन भी इसी से संबद्ध हैं। इसलिए देश के लोगों के लिए यह जानना बहुत जरूरी है कि देवबंद हनफी विचारधारा को पूरी दुनिया में प्रसारित करता है। जब तालिबान ने अफगानिस्तान पर कब्जा किया था, तब इसने कहा था कि ‘हमें इस बात की खुशी है कि हम देवबंदी लोगों ने वहां से ईसाइयों को निकाल दिया।’ बच्चों को क्या सिखाया जा रहा है, इसकी न केवल जांच होनी चाहिए, बल्कि उन्हें स्कूलों में पहुंचाना भी जरूरी है। यह उनका अधिकार है।
देवबंद प्रोफेशनल कोर्स के नाम पर सिर्फ पत्रकारिता पढ़ाता है, जिसका उद्देश्य है बे्रन वाश करना, नैरेटिव गढ़ना व मुसलमानों को यह घुट्टी पिलाना कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में वे खतरे में हैं।
बाल अधिकारों को लेकर राज्य सरकारें कितनी सजग हैं? किस राज्य में आपका अनुभव सबसे खराब रहा?
एक महीना बीतने के बाद भी कर्नाटक सरकार बच्चों के बारे में पता नहीं लगा सकी है, जबकि यह पता लगाना जरूरी है कि ये बच्चे कौन हैं और कहां से आए हैं। लेकिन वे इसके लिए भी राजी नहीं हैं। कई राज्यों में इस प्रकार के संघर्ष चलते हैं। ओडिशा के एक मामले के बारे में बताना चाहूंगा। 2018-19 में हमें पता चला कि एक मुस्लिम व्यक्ति कन्वर्ट होकर ईसाई बन गया और ओडिशा, पश्चिम बंगाल व छत्तीसगढ़ में कई अनाथालय खोल कर कन्वर्जन का रैकेट चलाने लगा। हमने टीम भेज कर 56 बाल गृहों का निरीक्षण कराया और राज्य सरकार से उन्हें बंद करने को कहा। राज्य सरकार ने बताया कि किशोर न्याय अधिनियम तहत कार्रवाई की गई है, तो हमने भी मान लिया। दो महीने पहले मुझे ओडिशा में ऐसा बाल गृह चलता दिखा। यानी सरकारें झूठ भी बोल रही हैं और तुष्टीकरण के लिए बच्चों के अधिकारों का हनन करने को उतारू हैं। इस मामले में सबसे खराब स्थिति पश्चिम बंगाल की है। वहां तो थाने में मुझ पर हमला किया गया। राज्य की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ऐसी किसी आवाज को नहीं सुनना चाहती हैं, जो उनकी बातों और विचारों से सहमत न हो। इसलिए वह हमले करवाती हैं, पिटवाती हैं और मुकदमे भी करती हैं।
पश्चिम बंगाल में घर-घर में देसी बम बनाए जाते हैं। इसलिए बम विस्फोट में बड़ी संख्या में बच्चों की मौत होती है या वे घायल होते हैं। सीमावर्ती इलाकों में ऐसी घटनाएं अधिक होती हैं, जहां सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) तैनात है। इसलिए हमने बीएसएफ से पूछा कि ऐसे मामलों में वह क्या कदम उठाती है। हमें बताया गया कि एक समन्वय समिति है, जिसका काम ऐसे मुद्दों पर बैठक कर समाधान निकालना है। इस समिति में राज्य के मुख्य सचिव और बीएसएफ के कुछ अधिकारी हैं। लेकिन दुर्भाग्य यह है कि राज्य सरकार कोई बैठक ही नहीं होने दे रही है। इस बाबत हमने राज्य के मुख्य सचिव को कई बार पत्र लिखा। लेकिन हर बार राज्य सरकार का रवैया नकारात्मक रहा। इसी प्रकार राज्य में बडे पैमाने पर मानव तस्करी होती है, लेकिन राज्य सरकार सीबीआई की मानव तस्करी विरोधी इकाई को भी काम नहीं करने दे रही है। केंद्रीय एजेंसी के प्रति राज्य सरकार के दुराग्रहों का खामियाजा बच्चे भुगत रहे हैं, चाहे बम विस्फोट के मामले हों या मानव तस्करी या इस तरह के अन्य मामले हों।
आपके काम में जो चुनौती आई, क्या उसे अलग खांचे में रख कर देखा जाना चाहिए?
ऐसा नहीं है कि ऐसी चुनौती पहली बार सामने आई है। कई जगह राज्य सरकारों से ज्यादा इस तरह के संस्था वाले जिद्दी होते हैं। एक बार मैं प्रयागराज में स्वराज भवन के पास जवाहरलाल नेहरू द्वारा स्थापित कराए गए एक बाल गृह का निरीक्षण करने गया था। बताया जाता है कि गांधी-नेहरू परिवार को इस बाल गृह की चिंता है। राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा अक्सर वहां जाते हैं। लेकिन मुझे निरीक्षण नहीं करने दिया गया। लिहाजा मुझे स्थानीय थाने से पुलिस बुलानी पड़ी। बाल गृह में 29 बच्चियां थीं, लेकिन न तो कभी उनके परिवार का पता लगाने की कोशिश की गई और न ही किसी को गोद दिया गया। यहां तक कि उनके बाथरूम और शौचालयों में दरवाजे भी नहीं थे। हमारी सूचना पर उत्तर प्रदेश सरकार ने तत्काल प्राथमिकी दर्ज की। इस तरह की चुनौतियां हैं, जिनसे हमें लड़ना होता है।
कर्नाटक में जैसे उलटा आप पर मुकदमा दर्ज कराया गया, वैसे ही अभी केरल में एनआईए के एक अधिकारी पर कार्रवाई की गई थी। इस पर क्या कहेंगे?
देखिए, जो राज्य सरकारें अपने पाप कर्म को छुपाना चाहती हैं, वह हर उस व्यक्ति पर एफआईआर दर्ज करवाएंगी जो उनके गंदे कारनामों का खुलासा करेगा। देश में कानून का राज कायम रहे, इसके लिए हमने अपनी मर्जी से यह काम चुना है। इसलिए परेशानियों का सामना तो करना पड़ेगा, उन्हें भी और हमें भी।
स्कूल में क्या पढ़ाया जाएगा, यह शिक्षा का अधिकार कानून धारा 29 तय करती है। बच्चों को स्कूल भेजना नितांत आवश्यक है। यदि स्कूल के अलावा उन्हें कहीं और भेजा जा रहा है तो यह कानून का उल्लंघन है।
क्या कारण है कि सरकार द्वारा कदम उठाए जाने के बावजूद बच्चों के खिलाफ अपराध लगातार बढ़ रहे हैं?
कई राज्य सरकारें बच्चों के प्रति जीरो टॉलरेंस की नीति अपनाती हैं। मध्य प्रदेश ऐसा राज्य है, जो बच्चों से यौन हिंसा के मामले में तत्काल एफआईआर दर्ज करता है। इसलिए एनसीआरबी के डेटा में वहां के मामले अधिक दिखते हैं। लेकिन बिहार में ऐसे मामलों में एफआईआर दर्ज करवाने में परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसलिए वहां के आंकड़े कम होते हैं। हम इस प्रयास में हैं कि ऐसे सभी मामलों की रिपोर्टिंग हो और उन्हें दर्ज भी किया जाए। इसलिए बच्चों के साथ होने वाले अपराधों की रिपोर्टिंग अगर बढ़ रही है, तो मैं उसे सकारात्मक रूप से देखता हूं।
असम के मुख्यमंत्री कहते हैं कि न तो मदरसे की आवश्यकता है और न ही इसमें बच्चों को भेजने की जरूरत है। इस बारे में कानून क्या कहता है?
संविधान 6-14 वर्ष के बच्चों को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार देता है। देश में 10-15 लाख स्कूल हैं। स्कूल में क्या पढ़ाया जाएगा, यह शिक्षा का अधिकार कानून धारा 29 तय करती है। कुल मिलाकर कानून कहता है कि बच्चों को स्कूल भेजना नितांत आवश्यक है। यदि स्कूल के अलावा उन्हें कहीं और भेजा जा रहा है तो यह कानून का उल्लंघन है।
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