हिमाचल से दक्षिण तक सेतु – जे. नंदकुमार

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प्रफुल्ल केतकर

पिछले दिनों साप्ताहिक ‘केसरी’ और ‘प्रज्ञा प्रवाह’ ने संयुक्त रूप से ब्रिजिंग साउथ नामक एक पूर्ण-दिवसीय सम्मेलन आयोजित किया। इसके पीछे क्या आशय था? हमें इस नई छेड़ी गई बहस को किस दृष्टि से देखना चाहिए? आर्गनाइजर के संपादक प्रफुल्ल केतकर ने उत्तर-दक्षिण विभेद उत्पन्न करने के प्रयासों पर प्रज्ञा प्रवाह के राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार के साथ बातचीत की। प्रस्तुत हैं इसके कुछ अंश-

पिछले कुछ दिनों से इस बात पर काफी चर्चा हो रही है कि भारत का दक्षिणी भाग राजनीतिक, आर्थिक और अन्य दृष्टि से उत्तरी भाग से अलग है या नहीं। हालांकि यह चर्चा नई नहीं है, लेकिन चुनाव के बाद इसमें नया मोड़ आया है। उससे ठीक पहले, केरल में कुछ कनाडाई संस्थानों के सहयोग से ‘कटिंग साउथनामक एक सम्मेलन हुआ था और तब से यूनाइटेड स्टेट्स आफ साउथ इंडिया के बारे में चर्चा हो रही है। दक्षिण भारत उत्तर भारत से कैसे अलग है?
जब हम ‘ब्रिजिंग साउथ’ की बात कर रहे हैं, तो मैं इसका अलग तरीके से अनुवाद करना चाहूंगा। जब हम आसेतु हिमाचल कहते हैं, तो इसका अर्थ ही है कि उत्तर को दक्षिण से जोड़ना। प्राचीन काल से भारत का वर्णन उस देश के रूप में किया जाता है, जो समुद्र से उत्तर में और बफीर्ले पहाड़ों के दक्षिण में स्थित है, क्योंकि वहां भरत के वंशज रहते हैं। हिमालय से हिंदू महासागर तक, यह भारत की दो सीमाएं हैं। ऐसा केवल भारत के उत्तरी भाग में रहने वाले किसी व्यक्ति ने ही नहीं, बल्कि संपूर्ण भाग, विशेषकर दक्षिण में रहने वाले ने ही बताया है। यह वर्णन मलयालम, तमिल, तेलुगु और कन्नड़ सभी प्राचीन ग्रंथों में है। लेकिन हम उन औपनिवेशिक आकाओं से भी अवगत हैं, विशेषकर अंग्रेजों से, जिन्होंने हम पर शासन किया और इस बात से भी अवगत हैं कि उन्होंने कैसे हमें उत्तर और दक्षिण के बीच विभाजित करने की कोशिश की। वे हमेशा फूट डालो और फिर राज करो में विश्वास करते थे। अंग्रेजों द्वारा की गई कुख्यात और विभाजनकारी जहरीली कार्रवाई को भारतीय सरकारों या राजनीतिक दलों द्वारा बेशर्मी से दोहराया जाता रहा है, जो भारत की सांस्कृतिक एकता और अखंडता में विश्वास नहीं करते हैं। कांग्रेस के कई नेता भी यही कर रहे हैं।

महात्मा गांधी, लोकमान्य तिलक और बाबा साहेब आंबेडकर, इन सभी का दृढ़ विश्वास था कि भारत एक है। बाबा साहेब आंबेडकर ने 1916 में कोलंबिया विश्वविद्यालय में भारत की अखंडता पर एक अद्भुत वक्तव्य दिया था। उन्होंने कहा था कि भारत केवल एक भौगोलिक एकता नहीं है। यह अंत से अंत तक एक निर्विवाद सांस्कृतिक एकता है, उत्तर और दक्षिण को पाटने के भगवान राम के प्रयास के बारे में, पूर्व को पश्चिम से जोड़ने के श्रीकृष्ण के प्रयास और कैसे भारत के कण-कण में शिव हैं। हमारे पास राजनीतिक एकता भी थी जैसा कि चोल राजवंश, मौर्य राजवंश, सम्राट अशोक और छत्रपति शिवाजी महाराज के राज्यकाल में देखा गया। अंतिम चीज हमेशा सांस्कृतिक एकता थी। लेकिन कांग्रेस सरकारें और कांग्रेस नेता, जो गांधीवादी सिद्धांतों या तिलक और लाल बहादुर शास्त्री के सिद्धांतों के खिलाफ हैं, इस सांस्कृतिक एकता में विश्वास नहीं करते हैं।

विभाजनकारी नीति के आगे घुटने टेकने वाले लोगों का एक और समूह वामपंथी है। उन्होंने इस तरह का नैरेटिव शुरू किया, जिसका हाल ही में घिनौना चेहरा सामने आया है। जिसका आपने उल्लेख किया, उस सम्मेलन में यही हुआ। अजीब बात यह है कि इसका उद्घाटन मुख्यमंत्री ने किया था और मुख्य अतिथि विपक्ष के नेता थे। ये दोनों यह साबित करने के लिए एक साथ आ गए कि भारत का दक्षिणी भाग कभी भी भारत का हिस्सा नहीं था और यह कुछ अलग है। इसके साथ उन्होंने इस बारे में बहुत सारी फर्जी कहानियां प्रस्तुत कीं कि केंद्र द्वारा दक्षिण की उपेक्षा की जाती है। कैसे अधिकांश राजस्व दक्षिण से एकत्र किया जाता है और वहां कोई विकास नहीं हो रहा है। लेकिन अब इस जबरदस्ती थोपी गई झूठी कहानियों के कारण यह हमारा कर्तव्य या राष्ट्रीय कर्तव्य हो जाता है कि हम एक साथ आएं और दुनिया को बताएं कि भारत एक कैसे है, दक्षिण भारत से कैसे जुड़ा है, आद्य शंकराचार्य जैसे महानतम व्यक्तियों ने और अन्य सभी ने भारत की एकता के लिए कैसे प्रयास किया। यही कारण है कि प्रज्ञा प्रवाह ने नॉलेज पार्टनर केसरी दैनिक और अन्य के साथ ब्रिजिंग साउथ या सेतु हिमाचल नामक इस कॉन्क्लेव को आयोजित करने का निर्णय लिया।

राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार

किसी न किसी रूप में एक अंग्रेजी और दूसरी उर्दू, इन दो भाषाई प्रभावों के कारण हमारी भाषाओं की शुद्धता में मिलावट या हस्तक्षेप हुआ है। इस प्रकार का हस्तक्षेप औपनिवेशिक आकाओं ने शुरू से ही किया था

 जैसा कि आपने बताया, औपनिवेशिक काल के दौरान जब यह सब शुरू हुआ, तब यह मुख्यत: द्रविड़ भाषाओं और इंडो-आर्यन भाषाओं के बीच भाषाई भेदभाव के इर्द-गिर्द था। तमिलनाडु में मजबूत भाषाई राष्ट्रवाद रहा है। लेकिन अब 1960 के दशक की तरह राजनीतिक स्वार्थ के लिए भावनाएं भड़काई जा रही हैं। भले ही लोगों ने इसे अधिक महत्व नहीं दिया, पर यह कहीं अधिक जहरीला है, क्योंकि हम जानते हैं कि जनगणना के बाद परिसीमन और जीएसटी से जुड़े मुद्दे उठाए जाएंगे। इसलिए सहयोगात्मक संघवाद के विचार के इर्द-गिर्द चर्चा हो रही है। इसे हमें किस रूप में देखना चाहिए?
देखिए, हमारी विविधता परस्पर विरोधी कारकों से नहीं, बल्कि परस्पर पूरक कारकों से बनी है। इसी कारण हजारों वर्षों से इस महान भूमि में बहुस्तरीय संस्कृति रही है। यह बहुसांस्कृतिक नहीं, बहुस्तरीय संस्कृति है। यह है भारत की विशेषता। जो लोग पश्चिमी भौतिक विचार या विचारधारा में विश्वास करते हैं, वे भारत या भारत की संस्कृति की इस बहुस्तरीय प्रकृति को नहीं समझ सकते। वे बस यही कहते हैं कि यह बहुसांस्कृतिक है। उदाहरण के लिए, यहां अलग-अलग भाषाएं हैं। भारत की भाषाएं इतनी भिन्न कैसे हो सकती हैं? क्योंकि संपूर्ण भारत एक भाषा सातत्य है। कन्याकुमारी से कश्मीर तक, यदि आप भाषा विज्ञान का अध्ययन करें तो भाषाई मूलभूत परिभाषाओं की दृष्टि से सभी भाषाएं एक ही परिवार का हिस्सा हैं। जैसे- जब आप एक वाक्य बना रहे होते हैं, तो वहां एक विषय-वस्तु और एक क्रिया होती है। यह वही पैटर्न है, जो सभी भारतीय भाषाओं में समान है। इसके अलावा, मलयालम से लेकर हिंदी या कश्मीरी या अन्य भाषा के शब्दों में भी समानताएं हैं।

मैं कहना चाहूंगा कि किसी न किसी रूप में एक अंग्रेजी और दूसरी उर्दू, इन दो भाषाई प्रभावों के कारण हमारी भाषाओं की शुद्धता में मिलावट या हस्तक्षेप हुआ है। इस प्रकार का हस्तक्षेप औपनिवेशिक आकाओं ने शुरू से ही किया था। जब वे विभाजन पैदा करना चाहते थे, तो उन्हें कुछ आधार चाहिए था। इसलिए उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया कि ये भाषा परिवार इस आधार पर भिन्न हैं। उन्होंने आर्य-द्रविड़ में विभाजन पैदा कराया और इसे पुष्ट करने के लिए वे और अधिक विभाजन कराना चाहते हैं। आज हम उन पार्टियों या विचारधाराओं द्वारा औपनिवेशिक ब्रिटिश आकाओं के विभाजनकारी उपायों को दोहराते हुए देख रहे हैं, जो भारत की प्राचीन प्रकृति, सांस्कृतिक एकता और सांस्कृतिक अखंडता में विश्वास नहीं करती हैं।

वे यह जानते हैं कि संयुक्त भारत पर शासन नहीं कर सकते, इसे समग्र रूप से समझ ही नहीं सकते। इसलिए वे यह विभेद पैदा करना चाहते हैं। वे सोचते हैं कि अगर ‘नागालैंड मांगे आजादी’, ‘केरल मांगे आजादी’, ‘केरल नागालैंड से अलग है’ और भारत की तथाकथित मुख्य भूमि अलग है, जैसी बातें करेंगे, तो वे इस पर हमेशा के लिए शासन कर सकते हैं और इस भूमि के चक्रवर्ती बन सकते हैं, लेकिन वे मूर्खों के स्वर्ग में हैं। हाल ही में उन्होंने एक नया खेल शुरू किया है, जातिगत जनगणना। हालांकि मैं कोई राजनीतिक विशेषज्ञ नहीं हूं, लेकिन एक बात निश्चित है कि हाल के पांच विधानसभा चुनावों ने इन ‘कहानियों’ को झटक दिया है। लेकिन जैसा कि मार्टिन लूथर किंग जूनियर ने कहा था कि वह अल्पमत में इसलिए नहीं हैं, क्योंकि बुरे लोगों की संख्या अधिक है, बल्कि इसलिए हैं कि वे अधिक शोर मचाते हैं और अच्छे लोग चुप रहते हैं।

राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार

केरल में कोई नया उद्योग नहीं लगा है। केरल का मुख्य खाद्यान्न चावल है और राज्य में उसकी खेती नहीं की जा रही। केरलवासी आंध्र के लोगों द्वारा उगाए जाने वाले चावल एवं फूलों के लिए तमिलों पर निर्भर हैं

जो युवा वर्तमान व्यवस्था में शिक्षित हुए हैं और अपनी जड़ों से गहराई से नहीं जुड़े हैं, उन्हें यही लगता है कि भारत के उत्तरी हिस्से से दक्षिणी हिस्से की ओर बहुत अधिक प्रवास हो रहा है। हमें अर्थशास्त्र और प्रवासन विकास से संबंधित वास्तविकता, तथाकथित विकास मापदंडों को कैसे समझाना चाहिए और एकीकरण के दृष्टिकोण से युवाओं को किस प्रकार जोड़ना चाहिए?

देखिए, यह एक सच्चाई है कि उत्तर से, विशेष रूप से बिहार और भारत के पूर्वी हिस्से से नौकरी चाहने वाले लोग दक्षिण, विशेष रूप से केरल में आ रहे हैं। लेकिन यही बात भारत के कई महानगरों (दिल्ली, मुंबई, अमदाबाद) के लिए भी सच है। ये महानगर दक्षिण के लोगों से भरे हुए हैं। खाड़ी देशों में बहुत साधारण नौकरियां करने वाले लोगों में सबसे ज्यादा लोग केरल से हैं। यह एक तथ्य है कि इस प्रकार का पारस्परिक प्रवासन होता है और ट्रेड यूनियन के पहलू और दैनिक वेतन में वृद्धि के कारण बहुत अधिक श्रमिक केरल की ओर आकर्षित होते हैं। यही कारण है कि कृषि और उद्योग में इस प्रकार के ट्रेड यूनियनवाद ने केरल को बुरी तरह प्रभावित किया है।
यदि आप अर्थशास्त्र की दृष्टि से इसका विश्लेषण करें तो केरल में कोई नया उद्योग नहीं लगा है। केरल का मुख्य खाद्यान्न चावल है और राज्य में उसकी खेती नहीं की जा रही है। केरलवासी आंध्र के लोगों द्वारा उगाए जाने वाले चावल पर निर्भर हैं। केरल के लोग उत्सवों में फूलों का प्रयोग फूलों की खेती करने वाले तमिलों के बूते कर रहे हैं।

ऐसा क्यों हो रहा है? ऐसा इन कम्युनिस्ट लोगों द्वारा या उनके नेतृत्व में चलाए गए उग्र ट्रेड यूनियनवाद के कारण है। केरल के ट्रेड यूनियनवादी बेशर्मी से इसका अनुसरण कर रहे हैं। और इस एक चीज के कारण केरल में कोई नया उद्योग नहीं आ रहा है। राज्य में खेती बर्बाद हो गई है। वहां सिर्फ एक फैक्ट्री है। बाकी उद्योग या निर्माण कार्य के लिए सभी दैनिक श्रमिकों का शुल्क या वेतन अधिक है। चाहे बिहार के लोग हों या बंगाल के, सब देख रहे हैं कि केरल उनको प्रिय है, क्योंकि वहां उन्हें अधिक वेतन मिल रहा है। लेकिन केरल के स्थानीय लोगों की मानसिकता अलग है। वे इस प्रकार के काम करने के लिए तैयार नहीं हैं। हालांकि वही काम वे खाड़ी में करते हैं, वही काम वे गुजरात में करते हैं। दूसरी बात, तथाकथित विश्लेषक उत्तर या अन्य क्षेत्र या वामपंथ के बारे में क्या कहेंगे? हाल ही में मैंने एक कथित महान वामपंथी पत्रकार का विश्लेषण पढ़ा, जिसमें केरल में प्रति व्यक्ति आय और बिहार में प्रति व्यक्ति आय की तुलना की गई थी। मेरा प्रश्न है कि आप यही तुलना हरियाणा या गुजरात से क्यों नहीं करते? तब जाकर युवाओं के सामने सही तस्वीर रखी जा सकेगी।

अचानक कुछ नक्शे, कुछ सिद्धांत प्रस्तुत किए जा रहे हैं। यूरोपीय शिक्षा जगत में बैठे कुछ लोग तथाकथित यूनाइटेड स्टेट्स आॅफ साउथ इंडिया के विचार पर काम कर रहे हैं। मतलब बात सिर्फ कार्यक्रमों की नहीं है। एक शक्तिशाली शैक्षिक जगत और मीडिया इस तरह के आख्यानों का समर्थन कर रहा है, जो इस तरह के विभाजन को जन्म देता है। क्या इस एकीकरण के दृष्टिकोण से अनुसंधान और अकादमिक कार्य करने की कोई योजना है कि हम सांस्कृतिक रूप से एक जैसे कैसे हैं?
उसकी भी आवश्यकता है। यह समय की मांग है। हाल के चुनावों के बाद विश्लेषण करें, तो भले ही हम किसी ठोस निष्कर्ष पर नहीं पहुंच सकते, लेकिन यह भारत की एकता के विरोधी दलों की ओर से घबराहट भरी तीखी प्रतिक्रिया है। इसलिए वह इस तरह के फर्जी आख्यान बनाने की कोशिश कर रहे हैं। दूसरा पहलू यह है कि खासकर पिछले 9-10 वर्षों से एकजुट भारत, जो आर्थिक क्षेत्र में और जो रामजन्मभूमि आदि के माध्यम से सांस्कृतिक क्षेत्र में भी प्रगति कर रहा है, वह कुछ लोगों को परेशान कर रहा है। कई राष्ट्र भारत को अपना संभावित नेता मान रहे हैं। ऐसे में चीन सहित तथाकथित विकसित राष्ट्र भारत में हो रही इस प्रकार की प्रगति और विकास से बहुत भयभीत हैं और वे भारत को विभाजित करके कमजोर बनाना चाहते हैं। इसलिए इस लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए, वे इस प्रकार की कहानियां बना रहे हैं या फैला रहे हैं और जॉर्ज सोरोस जैसे लोग इसे वित्त पोषित कर रहे हैं। प्रज्ञा प्रवाह इसे गंभीरता से ले रहा है, न केवल भारत के अंदर, बल्कि अब हम आने वाले समय में पूरे विश्व में, विश्वविद्यालयों में भी एक माहौल बनाने का प्रयास कर रहे हैं। समुचित अध्ययन कर एक विशाल आउटरीच कार्यक्रम की भी योजना बनाई गई है। साथ ही, भारतीय ज्ञान प्रणाली पहलू को भी काफी महत्व दिया जा रहा है। हमें उचित कठोर अनुसंधान, सामग्री निर्माण और आउटरीच कार्यक्रमों के साथ-साथ ऐसे और भी कार्यक्रम तैयार करने होंगे।

क्या लगता है कि इस विमर्श में एक और आयाम जुड़ गया है, जो राजनीतिक रूप से बहुत महत्वपूर्ण है, जो दक्षिण भारत को हिंदुत्व से मुक्त और सनातन विरोधी के रूप में देखता है?
आप भारत के इतिहास को देखिए। औपनिवेशिक आक्रमण भारत के दक्षिणी भाग में सबसे पहले हुआ, लेकिन बाद में दक्षिण को कभी भी इतने बड़े हमले का सामना नहीं करना पड़ा, जितना कि भारत के पूर्वी हिस्से को झेलना पड़ा। इस्लामी आक्रमण उत्तर में भी हुआ, विशेषकर उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र में और बाद में उत्तर के पूरे भाग पर। मुझे लगता है कि हिंदुत्व का धार्मिक पहलू भारत में और विशेषकर दक्षिण में बहुत सुदृढ़ है। इसीलिए सबरीमला या तिरुपति में बहुत सारे लोग एक साथ जुटते हैं। लेकिन मेरा अनुमान या निष्कर्ष यह है कि निरंतर हमलों के कारण उत्तर में हिंदुत्व के राष्ट्रवादी पहलू का जोरदार विकास हुआ है। पीछे मुड़कर देखें, तो हमने कभी भी तानाशाही का समर्थन नहीं किया, लेकिन भारत में 1975 से 77 तक तानाशाही रही।

राजनीतिक तौर पर उसके खिलाफ सभी ने लड़ाई लड़ी, लेकिन केरल, जिसे राजनीतिक तौर पर सबसे जागरूक और उदारवादी समाज के तौर पर पेश किया जा रहा है, उसने आपातकाल के बाद उस तानाशाह को सबसे ज्यादा वोट दिए। मेरा कहना है कि व्यक्तिगत स्तर पर या धार्मिक ढांचे के स्तर पर धर्म दक्षिण में बहुत मजबूत है, लेकिन जहां तक राष्ट्रवादी भावना का सवाल है, वह भारत के उत्तर में अधिक प्रबल है। रामजन्म भूमि आंदोलन के दौरान धार्मिक उत्साह होने के बावजूद उत्तर ने श्रीराम को एक राष्ट्रवादी प्रतीक के रूप में देखा और आंदोलन को राम बनाम एक दुष्ट विदेशी आक्रमणकारी बाबर के रूप में देखा। कोई यह नहीं कह सकता कि उत्तर अधिक भगवा होता जा रहा है और दक्षिण कम हो रहा है। यह पहलू भी सही नहीं है। यह सब बदलता रहता है। परिवर्तन हो रहा है। दक्षिण के लोग भी हिंदुत्व के व्यापक अर्थ को समझ रहे हैं।

राष्ट्रीय संयोजक जे. नंदकुमार

भारत का ‘स्व’ केवल उचित अध्ययन, उचित साहित्य, उचित शिक्षा और अनुसंधान के माध्यम से ही उठाया जा सकता है। यद्यपि स्व तत्व नष्ट नहीं हुआ है, परंतु कोई संगठित योजनाबद्ध प्रयास से इसे कमजोर करने का प्रयास कर रहा है।

क्या यह अंतत: ‘स्व’ का प्रश्न है? हम कौन हैं, इस बारे में समझ की कमी है? क्या यह बौद्धिक और राजनीतिक भ्रम मुख्य रूप से इसी मुद्दे के कारण है?
हां, मैं भी इसे ऐसा ही मानता हूं, इसलिए यह मेरा प्रिय विषय है। न केवल मेरे लिए, बल्कि पूरा संघ संगठन इस विशेष शब्द-भारत की ‘स्व’ भावना पर काम कर रहा है। यही कारण है कि सरसंघचालक जी के विजयदशमी भाषणों का हम इतनी गहराई से अध्ययन करते हैं। हम जिन समस्याओं का सामना कर रहे हैं, उन्हें हल करने के लिए वह विशेष पहलू आवश्यक है।

इसके साथ ही, भारत की ‘स्व’ भावना को सभी को स्पष्ट रूप से समझना चाहिए, क्योंकि राजनीतिक प्रभाव के कारण, शिक्षा, इतिहास की पुस्तकों और हर चीज के माध्यम से यह सांप्रदायिक तत्व भारत के दक्षिणी हिस्से पर शासन कर रहा है। बहुत सारे उदाहरण हैं। एक प्राचीन मलयालम पुस्तक में यह उल्लेख किया गया है कि पहले वीर राजा केरल वर्मा एक अयोध्यापति के अनुयायी थे, जो अयोध्या से आए थे और उन्होंने केरल की शुरुआत या स्थापना की थी। यह पुस्तक लगभग 1200 वर्ष पहले लिखी गई थी। इसी पुस्तक में हिमालय के बारे में बताया गया है कि हिमालय में उमा के पिता रहते थे और हिमालय के दक्षिण में भारत नाम की एक अद्भुत भूमि है। भारत को 18 खंडों में विभाजित किया गया है। लेकिन एक पुस्तक के तौर पर इसे वहां छात्रों को पढ़ाए जाने पर विचार नहीं किया जा रहा है।
इसलिए जब हम भारत की ‘स्व’ सामग्री के बारे में बात कर रहे हैं, तो इसे केवल उचित अध्ययन, उचित साहित्य, उचित शिक्षा और अनुसंधान के माध्यम से ही उठाया जा सकता है। यद्यपि स्व तत्व नष्ट नहीं हुआ है, परंतु कोई संगठित योजनाबद्ध प्रयास से इसे कमजोर करने का प्रयास कर रहा है। जनता में वह भावना विकसित करना हमारा महान पवित्र कर्तव्य है। वह आत्मज्ञान बहुत आवश्यक है। मुझे लगता है इस राष्ट्रीय शिक्षा नीति के माध्यम से और उसके आधार पर जो पाठ्यक्रम बनाया जा रहा है और आगे चलकर जो पाठ्यक्रम बनाया जाएगा, उसमें निश्चित रूप से इस पर बल दिया जाएगा।

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