मार्गशीर्ष माह के शुक्ल पक्ष की मोक्षदा एकादशी को गीता जयंती मनाई जाती है। कुरुक्षेत्र के रण क्षेत्र में भगवान श्रीकृष्ण ने इसी दिन अर्जुन के माध्यम से जगत को गीता का उपदेश दिया था
भगवान श्रीकृष्ण ने जिस दिन अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था, उसे ही ‘गीता जयंती’ के रूप में मनाया जाता है। श्रीकृष्ण ने गीता के रूप में पूरी दुनिया को अपनी विशेष कृपा प्रदान की है। गीता प्रत्येक मनुष्य को जीवन सही मायनों में जीने की शिक्षा देती है। पुराणों के अनुसार जिस घर में नियमित रूप से गीता का पाठ किया जाता है, वहां खुशहाली बनी रहती है। वैसे गीता दुनिया का इकलौता ऐसा ग्रंथ है, जिसकी जयंती मनाई जाती है। श्रीमद्भगवद्गीता को बेहद पवित्र ग्रंथ माना गया है, जिसमें श्रीकृष्ण ने जन्म-मरण के रहस्य के बारे में विस्तार से बताया है। इस पवित्र ग्रंथ में व्यक्ति की हर परेशानी का समाधान छिपा है। कहा जाता है कि इसका पाठ करने से मोक्ष मिलता है। गीता को एक ऐसे महासागर की संज्ञा भी दी जाती है, जिसमें डुबकी लगाने वाले को कुछ न कुछ प्राप्ति अवश्य होंती है।
गीता दर्शन की प्रस्तुति कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में हुई थी, जो वैदिक युग से ही पवित्र तीर्थस्थल रहा है। गीता की सबसे बड़ी विशेषता यही है कि इसका प्रवचन भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा मानव जाति के पथ-प्रदर्शन हेतु तब किया गया था, जब वे स्वयं इस लोक में उपस्थित थे। माना जाता है कि निजी स्वार्थ से प्रेरित हुए बिना यदि उसी गुरु-परंपरा से किसी को भगवद्गीता समझने का सौभाग्य प्राप्त हो तो वह समस्त वैदिक ज्ञान तथा विश्व के समस्त शास्त्रों के अध्ययन को पीछे छोड़ देता है। धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में तो प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय गीता जयंती महोत्सव का आयोजन किया जाता है। इस वर्ष अंतरराष्ट्रीय गीता जयंती महोत्सव 7 से 24 दिसंबर तक मनाया जा रहा है। गीता विश्व के लिए भारत का ऐसा आध्यात्मिक उपहार है, जिसमें व्यावहारिक जीवन तथा अध्यात्म की सभी शंकाओं के समाधान सरलता से मिल जाते हैं। जिस प्रकार योग पूरे विश्व समुदाय को भारत की सौगात है, उसी प्रकार योग-शास्त्र गीता भी पूरी मानवता को भारत का आध्यात्मिक उपहार है।
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं-
व्यक्ति को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध में व्यक्ति अपना नियंत्रण खो देता है, आवेग में उसके द्वारा अनैतिक कर्म भी हो जाता है। क्रोध से दूर रहने के लिए व्यक्ति को प्रेम, ज्ञान और अध्यात्म की शरण में जाना चाहिए। आज के युग में मनुष्य जिस प्रकार भौतिक सुख साधनों और मोह- माया के जाल में जकड़ा हुआ है, ऐसे में गीता के उपदेश मनुष्य को मोह माया के इस जाल से मुक्त कराने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं।
गीता जयंती को गीता उत्सव, मोक्षदा एकादशी, मत्स्या द्वादशी इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। हिंदू धर्म में मान्यता है कि प्रतिदिन गीता के श्लोकों का अनुसरण करने वाला व्यक्ति बड़ी से बड़ी मुश्किलों को आसानी से पार कर लेता है। वैसे तो गीता पाठ कभी भी किया जा सकता है, लेकिन माना जाता है कि यदि किसी ने इसका कोई अध्याय शुरू किया है तो उसे समाप्त करके ही आसन से उठना चाहिए। गीता का पाठ शुरू करने से पहले भगवान गणेश तथा श्रीकृष्ण का स्मरण करना चाहिए। श्रीमद्भगद्गीता में कुल 18 अध्याय तथा 700 श्लोक हैं।
गीता के ये 18 अध्याय हैं- अर्जुनविषादयोग (कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में सैन्य निरीक्षण), सांख्ययोग (गीता का सार), कर्मयोग, ज्ञानकर्मसंन्यासयोग (दिव्य ज्ञान), कर्मसंन्यासयोग (कर्मयोग-कृष्णभावनाभावित कर्म), आत्मसंयमयोग (ध्यान योग), ज्ञानविज्ञानयोग (भगवद्ज्ञान), अक्षरब्रह्मयोग (भगवत्प्राप्ति), राजविद्याराजगुह्ययोग (परम गुह्य ज्ञान), विभूतियोग (श्री भगवान् का ऐश्वर्य), विश्वरूपदर्शनयोग (विराट रूप), भक्तियोग, क्षेत्रक्षेत्रज्ञविभागयोग (प्रकृति, पुरुष तथा चेतना), गुणत्रयविभागयोग (प्रकृति के तीन गुण), पुरुषोत्तमयोग, देवासुरसम्पद्विभागयोग (दैवी तथा आसुरी स्वभाव), श्रद्धात्रयविभागयोग (श्रद्धा के विभाग) और मोक्षसंन्यासयोग (उपसंहार-संन्यास की सिद्धि)। इन 18 अध्यायों को यदि तीन भागों में बांटा जाए तो इसमें मुख्य रूप से तीन योग— कर्म योग, ज्ञान योग और भक्ति-योग हैं।
भगवद्गीता में न केवल अन्य शास्त्रों की सभी बातें मिलती हैं, बल्कि ऐसी बातें भी मिलती हैं, जो अन्यत्र कहीं उपलब्ध नहीं हैं और यही इसका विशिष्ट मानदंड है। श्रीकृष्ण के मुख से निकले इस ज्ञान को एक काल, एक संस्कृति अथवा एक धर्म का नहीं, बल्कि आदिकाल, सर्व संस्कृति और सर्व-धर्म के लिए दिया गया मानस-शास्त्र माना गया है। स्वयं श्रीकृष्ण द्वारा साक्षात् उच्चरित होने के कारण ही इसे पूर्ण आस्तिक विज्ञान माना गया है।
भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं-
मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे उसी के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है, इसलिए जीवन में अच्छे कर्म करने को ही महत्व देना चाहिए। वे आगे कहते हैं कि मनुष्य जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है, बस जरूरत होती है तो इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए लगन के साथ कार्य करने की और ऐसा करके व्यक्ति को सफलता अवश्य मिलती है।
द्वापर युग में महाभारत युद्ध शुरू होने से पहले अर्जुन में जब मोह और संशय उत्पन्न हुआ, तब श्रीकृष्ण ने मोक्षदा एकादशी के दिन आज से करीब 5,560 वर्ष पूर्व श्रीमद्भगवद्गीता का महान और सार्वकालिक उपदेश दिया था। कुरुक्षेत्र शहर से करीब 8 किलोमीटर आगे पेहवा रोड पर स्थित ज्योतिसर नामक स्थान पर महाभारत के युद्ध से पहले श्रीकृष्ण ने अर्जुन को गीता के 18 अध्याय सुनाने के बाद ही युद्ध के लिए तैयार किया था। गीता वास्तव में चरित्र निर्माण का सबसे बड़ा और उत्तम शास्त्र है और इसका प्रमुख उद्देश्य परमात्मा के ज्ञान, आत्मा के ज्ञान और सृष्टि विधान के ज्ञान को स्पष्ट करना है। गीता एक ऐसा अमृत है, जिसे आत्मा से पिया जाता है।
गीता में कर्त्तव्य को ही धर्म कहा गया है। श्रीकृष्ण ने गीता के माध्यम से कहा है कि चरित्र कमल पुष्प समान संसार में रहकर श्रेष्ठ कर्मों से बनेगा, न कि घर-बार छोड़ने और कर्म संन्यास क्रियाएं करने से। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि मनुष्य जैसा कर्म करता है, उसे उसी के अनुरूप फल की प्राप्ति होती है, इसलिए जीवन में अच्छे कर्म करने को ही महत्व देना चाहिए। वे आगे कहते हैं कि मनुष्य जो चाहे वह प्राप्त कर सकता है, बस जरूरत होती है तो इच्छित वस्तु को प्राप्त करने के लिए लगन के साथ कार्य करने की और ऐसा करके व्यक्ति को सफलता अवश्य मिलती है।
गीता में मनुष्य के मन को 11वीं इन्द्रिय माना गया है, जो ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों के बीच नियामक का काम करता है और संसार की सबसे अशांत चीज है। ये इन्द्रियां और मन हमारे ज्ञान और कर्म के साधन मात्र न होकर इस संसार को भोगने के भी साधन हैं। मन संसार का सुख भोगने में विचार और कल्पना के द्वारा भी सहायता करता है। भगवद्गीता के अनुसार संसार के दुखों का प्रमुख कारण आत्मा के स्वरूप के विषय में हमारा अज्ञान है। हम अपने स्वजन की मृत्यु की आशंका से ही भयभीत हो जाते हैं। हमने जो भी अर्जित किया या पाया है, उसकी हानि की शंका हमारी चेतना को कभी पूर्णतया स्वच्छंद नहीं होने देती।
श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं कि व्यक्ति को कभी क्रोध नहीं करना चाहिए। क्रोध में व्यक्ति अपना नियंत्रण खो देता है, आवेग में उसके द्वारा अनैतिक कर्म भी हो जाता है। क्रोध से दूर रहने के लिए व्यक्ति को प्रेम, ज्ञान और अध्यात्म की शरण में जाना चाहिए। आज के युग में मनुष्य जिस प्रकार भौतिक सुख साधनों और मोह- माया के जाल में जकड़ा हुआ है, ऐसे में गीता के उपदेश मनुष्य को मोह माया के इस जाल से मुक्त कराने में कारगर सिद्ध हो सकते हैं। (लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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