पूरा देश उन्हें 1971 में पाकिस्तान के साथ हुई जंग में भारतीय थलसेना का कुशल नेतृत्व करने वाले एक सेनाध्यक्ष के रूप में कृतज्ञ भाव से याद करता है।
अभी हाल ही में एक फिल्म आई है—सैम बहादुर। यह फिल्म फील्ड मार्शल सैम हॉरमुसजी फ्रामजी जमशेदजी मानेकशॉ के जीवन पर आधारित है। पूरा देश उन्हें 1971 में पाकिस्तान के साथ हुई जंग में भारतीय थलसेना का कुशल नेतृत्व करने वाले एक सेनाध्यक्ष के रूप में कृतज्ञ भाव से याद करता है। वे फील्ड मार्शल का पद हासिल करने वाले पहले भारतीय सैन्य अधिकारी थे। सेना में उन्हें प्यार और आदर से ‘सैम बहादुर’ पुकारा जाता रहा है। वे 1969 में भारत के सेनाध्यक्ष बने थे। इससे पहले उन्होंने दूसरे विश्व युद्ध के साथ-साथ भारत की चीन और पाकिस्तान के साथ हुई तमाम जंगों में अहम भूमिका निभाई थी। सैम मानेकशॉ समर नीति के गहरे जानकार थे।
रणभूमि के वीरों का अपना विशेष महत्व होता है। जब 1971 की जंग के नायकों की बात होगी तो अनेक नायक सामने आएंगे। इस संदर्भ में ले. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और जनरल जे.एफ.आर. जैकब से लेकर सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल तक को याद किया जाएगा। 1971 की जंग से जुड़ी एक यादगार फोटो को देखकर भारत की कई पीढ़ियां बड़ी हुई हैं। उस फोटो को देखकर हर भारतीय का सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है। इसमें भारतीय सेना के लेफ्टिनेंट जनरल जे.एस. अरोड़ा के साथ पाकिस्तानी सेना के लेफ्टिनेंट जनरल अमीर अब्दुल्ला खां नियाजी बैठे हैं। नियाजी अपनी सेना के आत्मसमर्पण करने संबंधी दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कर रहे हैं। इस चित्र में भारतीय सेना के कुछ आला अफसर प्रसन्न मुद्रा में खड़े हैं। उनमें लेफ्टिनेंट जनरल जे.एफ.आर जैकब भी हैं।
युद्ध संवाददाता के रूप में मैंने जनरल जैकब के साथ काम किया है और देखा है कि वे कितने जांबाज सेना नायक थे। 1971 के युद्ध में उनकी रणनीति के तहत भारतीय सेना को अभूतपूर्व कामयाबी मिली थी। वे यहूदी थे और समर नीति बनाने में महारत रखते थे। पाकिस्तान सेना को रणभूमि में परास्त करने के बाद उन्होंने नियाजी से अपनी फौज को आत्मसमर्पण करने का आदेश देने को कहा था। जैकब के युद्ध कौशल का ही परिणाम था कि 90,000 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों ने अपने हथियारों समेत भारत की सेना के समक्ष घुटने टेके।
जनरल अरोड़ा की बात करें तो उन्होंने 1971 की जंग में भारतीय सेना को छोटी-छोटी टुकड़ियों में बांटकर पूर्वी पाकिस्तान में घुसने के आदेश दिए थे। उनकी इस रणनीति की वजह से ही हमारी सेना देखते ही देखते ढाका पहुंच गई थी।
बहरहाल, सैम मानेकशॉ को प्यार से सैम बहादुर इसलिए कहा जाता था, क्योंकि उनका संबंध गोरखा रेजिमेंट से था। वे जब सेनाध्यक्ष थे तब आर्मी हाउस की देखभाल गोरखा रेजीमेंट के जवान ही किया करते थे।
1971 के युद्ध में उनकी रणनीति के तहत भारतीय सेना को अभूतपूर्व कामयाबी मिली थी। वे यहूदी थे और समर नीति बनाने में महारत रखते थे। पाकिस्तान सेना को रणभूमि में परास्त करने के बाद उन्होंने नियाजी से अपनी फौज को आत्मसमर्पण करने का आदेश देने को कहा था। जैकब के युद्ध कौशल का ही परिणाम था कि 90,000 से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों ने अपने हथियारों समेत भारत की सेना के समक्ष घुटने टेके।
राजधानी में 4, राजाजी मार्ग के बंगले को आर्मी हाउस कहा जाता है। इसी में सेनाध्यक्ष रहते हैं। इसी में जनरल के.एम.करियप्पा, जनरल के. सुंदरजी, एन.सी. विज जैसे महान सेनाध्यक्ष रहे हैं। सैम मानेकशॉ भी भारतीय सेनाध्यक्ष के पद पर रहते हुए 4, राजाजी मार्ग के आर्मी हाउस में ही रहा करते थे। कहते हैं कि वे सुबह अपने बंगले के बाहर सैर करने के लिए निकल जाया करते थे। उनके साथ उनकी पत्नी भी हुआ करती थीं। वहां पर अगर कोई शख्स सड़क पर चलते हुए उन्हें नमस्कार करता तो वे उसका आदरपूर्वक उत्तर भी देते थे। उनमें पद की ठसक कभी नहीं रही थी।
खैर, सैम मानेकशॉ के जीवन पर बनी फिल्म से देश की युवा पीढ़ी को उनके बारे में और जानकारी मिलेगी। सरकार ने उन्हें फील्ड मार्शल के पद पर भी पदोन्नत कर दिया था। हालांकि, वे 1975 के आस-पास दिल्ली से चले गए थे। उसके बाद उनका दिल्ली आना-जाना कम ही होता था। मानेकशॉ की 94 वर्ष की आयु में 27 जून, 2008 की सुबह 12:30 बजे वेलिंग्टन सैन्य अस्पताल में मृत्यु हुई थी। फिर वहीं उनकी सादगी से अंत्येष्टि कर दी गई थी।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)
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