डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी का महाबलिदान और जम्मू-कश्मीर

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अर्जुन आनंद

देश जब स्वतंत्रता के हर्ष में झूम रहा था। उसी समय पाकिस्तानी सेना व मुजाहिदों ने जम्मू-कश्मीर पर जिहाद छेड़ दिया। मुजफ्फराबाद, मीरपुर, कोटली जैसे नगरों में हजारों लाखों हिंदुओं का नरसंहार हुआ। असंख्य बलात्कार हुए। जिहादियों ने नृशंसता की सारी सीमाए लांघ दीं। इस पर जब महाराजा हरी सिंह जी ने भारत से सहायता मांगी तो नेहरू जी ने इस शर्त पर सहायता करने की बात की कि सत्ता शेख अब्दुल्ला को सौंपनी पड़ेगी। दुर्भाग्यपूर्ण है कि ऐसी विकट परिस्थिति में भी कुछ नेता दलगत राजनीति से ऊपर नहीं उठ सके। बलात्कार व हत्याओं का सिलसिला जारी रहा।

खैर, महाराजा ने हिंदू नरसंहार रोकने व जम्मू-कश्मीर को बचाने हेतु सभी शर्तें मान शेख अब्दुल्ला को राज्य की बागडोर सौंपना स्वीकार किया। भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम सशर्त अधिमिलन की अनुमति नहीं देता था। अतः 26 अक्तूबर 1947 में जम्मू-कश्मीर का भारतीय गणराज्य से अधिमिलन पूर्ण हुआ। सेना को श्रीनगर उतारा गया। जवाबी कार्रवाई शुरू हुई। सैकड़ों वीर सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। परंतु सोचने का विषय है कि जब भारतीय सेना के साहसी सैनिक मैदान में लड़ने-मरने के बाद जीत की ओर बढ़ ही रही थी। पाकिस्तानी सैनिक जम्मू-कश्मीर से खदेड़े जा रहे थे। उस समय प्रधानमंत्री जी ने सेना वापस बुला ली। एवं पाकिस्तान को ‘शांति’ से जम्मू-कश्मीर से बाहर निकालने का प्रस्ताव ले नेहरू जी यूएन पहुंचे। यूएन ने जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में 3 सुझाव दिए, जिनमें से पहला पाकिस्तानी सेना को वापस हटने का सुझाव था, जो कि कभी नहीं हुआ। पर हम सभी जानते हैं कि सेना को रोककर जो ‘शांतिप्रिय’ रवैया अपनाया गया उससे आज तक जम्मू-कश्मीर में कितनी अशांती फैली है।

इसके पश्चात मामला यूएन में होने के कारण भारतीय संविधान को लागू करने हेतु अनुच्छेद 370 को संविधान में नेहरू जी के बोलने पर शामिल किया गया। इस अस्थाई अनुच्छेद में वैसे कुछ खास था नहीं पर इसकी आड़ में नेहरू जी के चहेते शेख अब्दुल्ला राज्य के एकछत्र राजा सा बन गए। इसी ‘अस्थाई’ अनुच्छेद को आधार बना आज तक अलगाववादी ताकतें बड़े-बड़े झूठे नैरेटिव गढ़ते रहे। अब्दुल्ला राज में जम्मू-कश्मीर में जाने के लिए परमिट का नियम लाया गया जैसे ये देश का हिस्सा ही न हो। तिरंगा लहराने पर वीर मेला राम जैसे युवकों पर गोली चला दी जाती थी। यह सब स्वतंत्र भारत में चल रहा था। और आगे चलकर इस राजनीति ने जो स्वरूप लिया वो देश आज तक झेल रहा है। नेहरू जी की देखरेख में यह सब हो रहा था। इसी कारण लगभग सभी बड़े नेताओं ने इस विषय पर चुप्पी साधी।

इस पूरे प्रकरण में एक बगावती स्वर राष्ट्र विरोध में लिए गए ऐसे हर निर्णय पर संविधान सभा/संसद में सदा बुलंद रहा। भारत मां के उस कर्मठ पुत्र का नाम था डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी। जब श्यामा प्रसाद जी ने संसद का ध्यान जम्मू-कश्मीर में शेख अब्दुल्ला की तानाशाही की ओर आकृष्ट करने का प्रयास किया तब जवाहरलाल नेहरू जी ने बड़ा ही अटपटा बयान दिया। वह कहते हैं कि संविधान से अधिक महत्वपूर्ण जम्मू-कश्मीर के लोगों की राय है। ध्यान रहे कि नेहरू के लिए प्रदेश की ‘राय’ का अर्थ शेख की राय से था। और शेख का तो जम्मू व लद्दाख में कोई आधार ही नहीं था। इन्हीं भारत विरोधी नीतियों के कारण डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने केंद्रीय मंत्रीपद तक को ठोकर मारकर 1951 में भारतीय जन संघ की नींव रखी। जम्मू-कश्मीर पर एक के बाद एक बुरे निर्णय का कड़ा विरोध करते हुए उन्होंने एक राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा किया, जिसमें लाखों गिरफ्तारियां दी गईं। कई लोगों ने आत्म-बलिदान दिया। फिर भी भारत सरकार के कानों में जूं तक न रेंगी। रामचंद्र गुहा (‘India After Gandhi’) भी इसकी पुष्टि करते हैं, ‘एक समय जहां अब्दुल्लाह कश्मीर में नेहरू के व्यक्ति थे। वहीं, 1952 की गीष्म ऋतु आते-आते, नेहरू भारत में अब्दुल्लाह के व्यक्ति हो चुके थे।’

डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने यह नारा बुलंद किया कि ‘एक देश में दो विधान, दो निशान, दो प्रधान नहीं चलेंगे।’ प. प्रेमनाथ डोगरा जी की अगुवाई में प्रजा परिषद् के रूप में एक राष्ट्रवादी आंदोलन जम्मू-कश्मीर में आंधी की तरह छा गया। शेखशाही ने प्रदर्शनकारियों को खूब यातनाएं दी। इस पर मुखर्जी जी ने जम्मू जाने का निर्णय लिया। उनके परमिट के आवेदन को रद्द कर दिया गया। जिसके बाद परमिट का नियम तोड़ते हुए उन्होंने हजारों प्रदर्शनकारियों के साथ 11 मई 1953 को जम्मू-कश्मीर में प्रवेश करने का निर्णय किया। उन्हें जम्मू में घुसते ही गिरफ्तार कर लिया गया। उनका स्वास्थ्य खराब होने के बावजूद उनके निजी डॉक्टर को उनके साथ नहीं आने दिया गया। 23 जून 1953 को कानूनी हिरासत में ही रहस्यात्मक ढंग से कश्मीर में उनकी मृत्यु हो गई। उनके महाबलिदान ने हर भारतीय में प्रेरणा का ऐसा बीज बोया जो 5 अगस्त 2019 को अनुच्छेद 370 के निष्क्रिय होने तथा अनुच्छेद 35-अ के हटने के साथ फलीभूत हुआ। उन्हीं के अथक परिश्रम व अतुलनीय बलिदान के कारण अंततः भारत देश में एक विधान, एक निशान एवं एक प्रधान का शासन लागू हुआ।

(लेखक- शोध विद्यार्थी (राजनीति शास्त्र), जेएनयू, जम्मू-कश्मीर व सभ्यतागत विषयों में रुचि)

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