अमेरिका की संसद की एक कमेटी में तिब्बत को लेकर गहमागहमी है। वहां चीन द्वारा बहुत समय पहले पैदा किए गए विवाद को हल करने के प्रति गंभीरता झलक रही है। कमेटी ने इस संबंध में अभी एक विधेयक पारित किया है। इसमें कहा गया है कि चीन तिब्बत को लेकर जो भी वार्ता करे उसमें दलाई लामा जी के प्रतिनिधियों को अवश्य शामिल करे। उनकी मौजूदगी के बिना तिब्बत का हल नहीं निकाला जा सकता।
कमेटी के एक वरिष्ठ सदस्य ने खुलकर कहा है कि अमेरिका कभी नहीं मान सकता प्राचीन काल से ही तिब्बत चीन का एक हिस्सा रहा है। अमेरिका की नीति है कि तिब्बत की अपनी विशिष्ट भाषा, रहन—सहन और धर्म है, उसे स्वीकारा जाना चाहिए। दलाई लामा जी के प्रति वहां जो आस्था है अमेरिका उसका सम्मान करता है। जबकि चीन दलाई लामा जी को बस एक धार्मिक नेता ही मानता है। अमेरिकी संसदीय कमेटी के इस विधेयक के अनुसार, तिब्बत के लोग लोकत्रंत चाहते हैं।
अमेरिका की कोशिश रही है कि चीन दलाई लामा जी के महत्व को मान्य करते हुए तिब्बत से जुड़े हर फैंसले में उनकी राय जरूर ले। इसी संबंध में चीन और तिब्बत के बीच जो ऐतिहासिक विवाद रहा है, उसे सुलझाने पर जोर देते हुए कमेटी ने जो महत्वपूर्ण विधेयक पारित किया है उसमें चीन का आह्वान किया गया है कि दलाई लामा जी के प्रतिनिधियों से वार्ता के बिना वह इस दृष्टि से कोई निर्णय न ले।
अमेरिका तिब्बत को लेकर जिस प्रकार का दुष्प्रचार चीन के कम्युनिस्ट करते आ रहे हैं, उसका भी विरोधी रहा है। चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का अपना एक सुनियोजित दुष्प्रचार तंत्र है जिसने दलाई लामा जी, बौद्ध धर्म और लामाओं के बारे में मनगढ़ंत दुष्प्रचार किया है। इसी तंत्र ने ऐसा जताने की कोशिश की है कि बहुत पुराने जमाने से ही तिब्बत चीन का हिस्सा रहा है।
अक्तूबर 1950 में चीनी फौज ने ल्हासा के पटोला पैलेस पर धावा बोलकर दलाई लामा जी को वहां से निकलकर भारत में शरण लेने को मजबूर कर दिया गया था। लेकिन उसके बाद से तिब्बत को चीनी हानों से पाटकर चीन ने वहां की जनसांख्यिकी को बदलने के षड्यंत्र रचे। आज तिब्बत सिर्फ नाम के लिए तिब्बत जैसा है। उसे उसका पुराना गौरव वापस दिलाने के लिए लाया गया उक्त विधेयक गत वर्ष सीनेटर जिम मैकगवर्न, माइकल मैककौल, जेफ मार्ककले तथा टाड यंग ने संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया था।
अमेरिकी संसद की उपरोक्त कमेटी विदेश मामलों को देखती है। इसके अध्यक्ष हैं माइकल मैककौल। उनका कहना है कि तिब्बत के संदर्भ में पारित उक्त विधेयक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी तथा लोकतांत्रिक पद्धति से चुने हुए तिब्बत के नेताओं के मध्य हर तरह के विवाद को दूर करने के लिए वार्ता होनी जरूरी है। आखिर तिब्बत के लोग भी लोकत्रंत के प्रति श्रद्धा रखते हैं।तिब्बत के लोग तो चाहते ही हैं कि अमेरिका वालों जैसे ही तिब्बत के लोगों को भी आजादी हो कि वे अपने धर्म तथा आस्था को अंगीकार करके जी सकें।
उल्लेखनीय है कि एक बड़े षड्यंत्र के तहत विस्तारवादी कम्युनिस्ट चीन ने अपनी सेना के माध्यम से 1950 की शुरुआत से ही तिब्बत पर दमन करना शुरू किया था। बौद्धों को मारा जाता था, चीन की सेना के लिए तमाम सहूलियतें उपलब्ध कराने को कहा जाता था, अनेक तिब्बती गांवों को खाली करने के फरमान दिए गए थे, तिब्बती महिलाओं का शील भंग किया जाता था, बौद्ध मठों को उनकी दैनिक पूजा—अर्चना करने से रोका जाता था, तिब्बती आस्थावानों के मन में दलाई लामा जी के प्रति गलत भाव भरने का प्रयास किया जाता था।
आखिरकार अक्तूबर 1950 में चीनी फौज ने ल्हासा के पटोला पैलेस पर धावा बोलकर दलाई लामा जी को वहां से निकलकर भारत में शरण लेने को मजबूर कर दिया गया था। लेकिन उसके बाद से तिब्बत को चीनी हानों से पाटकर चीन ने वहां की जनसांख्यिकी को बदलने के षड्यंत्र रचे। आज तिब्बत सिर्फ नाम के लिए तिब्बत जैसा है। उसे उसका पुराना गौरव वापस दिलाने के लिए लाया गया उक्त विधेयक गत वर्ष सीनेटर जिम मैकगवर्न, माइकल मैककौल, जेफ मार्ककले तथा टाड यंग ने संयुक्त रूप से प्रस्तुत किया था।
यह विधेयक 2010 से ही तिब्बत के संदर्भ में चल रही वार्ता में आए व्यवधान को हटाने के लिए एक प्रकार से चीन की जिनपिंग सरकार पर दबाव डालता है। मैककौल कहते हैं कि अमेरिका यह बात मानने को तैयार नहीं कि तिब्बत शुरू से ही चीन का हिस्सा है।
लेकिन इधर चीन ने तो दलाई लामा जी जैसे पद की परंपरा तक को न मानने की घोषणा की हुई है। चीनी कम्युनिस्टों का कहना है कि ‘दलाई लामा जी का पद संभालने वाले अगले संत चीन की रजामंदी के बिना न चुने जाएं।’ बौद्ध मतावलंबी चीन की शरारतों को खूब जानते हैं। वे आज भी सपना संजोए हैं कि एक दिन अपनी जमीन पर लौटेंगे, तिब्बत के मठों में फिर से बौद्ध प्रार्थनाएं गूंजेंगी और एक बार फिर से पटोला पैलेस में बैठ दलाई लामा जी तिब्बतियों को प्रवचन देंगे।
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