‘हिन्दुओं की धर्म-दृष्टि वैश्विक धर्म-दृष्टि का निर्माण करेगी और तब बहुप्रतीक्षित धर्म-विजय प्राप्त की जा सकेगी। यह धर्म-विजय किसी के भी विरुद्ध नहीं होगी अपितु सभी के भले के लिए होगी।’ यहां प्रस्तुत हैं तीसरी वर्ल्ड हिन्दू कांग्रेस में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत द्वारा दिए गए उद्बोधन के संपादित अंश:
तीसरे विश्व हिन्दू सम्मेलन ने ‘जयस्य आयतनं धर्म:’ को अपना ध्येय वाक्य घोषित किया है। ‘आयतनम’ का अर्थ है ‘निवास’। ‘आयतनं’ का अर्थ ‘विकास’ भी होता है और ‘आधार’ भी। संस्कृत में इस शब्द के ये सभी अर्थ बताए गए हैं। अब जय की बात करें तो शब्दकोष के अनुसार ‘जय’ का अर्थ है- विजय। अब प्रश्न उठता है कि विजय क्या है? सनातन हिन्दू परंपरा के सिद्धान्त के अनुसार ‘जय’ का आशय ‘विजय’ नहीं है। इसका अर्थ विजय या पराभव से नहीं, विजेता या पराजित से भी नहीं है। वास्तव में ‘जय’ का आशय है, सबको जोड़ना।
‘विजय’ तीन प्रकार की होती है। पहली है ‘राक्षस विजय’, जिसकी प्रकृति ‘तामसिक’ है, जो केवल विनाश करती है। इसका उद्देश्य विध्वंस कर आसुरी आनंद प्राप्त करना है। हमारी परंपरा में ऐसी प्रकृति के विजय की अनुमति नहीं। विश्व में औपनिवेशिक प्रभुत्व स्थापित करना हमारा लक्ष्य नहीं। जब हम ‘जय’ या विजय कहते हैं तो हमारा आशय होता है ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ और ‘कृणवन्तो विश्वमार्यम’ अर्थात पूरा विश्व एक परिवार हो, जिसमें सभी सुसंस्कृत हों।
दूसरे प्रकार की विजय है-धन विजय। लोग आपस में लड़कर अपनी प्रभुता स्थापित करके भौतिक सुख के साधनों पर अपना वर्चस्व प्राप्त करते हैं। यह ‘राजसी’ प्रकृति की विजय है। संभव है कि इस प्रकार की विजय कुछ अच्छे फल भी दे दे, परन्तु इसकी अंतर्निहित मंशा उचित नहीं होती, क्योंकि यह व्यक्ति के स्वार्थ से प्रेरित होती है।
कोई ईश्वर को मानता है तो कोई अनीश्वरवादी है; कोई कहता है आत्मा है, कोई इसे नकारता है। इन वैचारिक मतभिन्नताओं में कई एक-दूसरे के सर्वथा विपरीत भी हैं। पर सभी अंतत: एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमें अपने आचरण में इन सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए:
हम इन दोनों प्रकार के विजय के साक्षी रहे हैं। हमने ‘आसुरी विजय’ के दृश्य देखे हैं, जब आक्रांता हमारे देश में पांच सौ वर्षों तक विनाश और विध्वंस मचाते रहे। हमने ‘धन विजय’ के कालखंड का भी अनुभव किया है, जब डेढ़ सौ सालों तक भारत में बुरी तरह लूट-पाट मचाई गई। किंतु इन दोनों से भिन्न जब हम ‘विजय’ कहते हैं, इसका आशय सदैव ‘धर्म विजय’ से होता है- वह विजय जो धर्म के नियमों का अनुसरण करके प्राप्त हुई हो।
सत्य और अहिंसा हमारी परंपराओं के दो आधारभूत सिद्धांत हैं। किंतु कई बार ऐसा होता है कि अहिंसा पर चलने वालों को इसकी रक्षा के लिए नहीं चाहते हुए भी युद्ध करना पड़ता है। यह युद्ध धर्म के लिए होता है। धर्म सभी को जोड़ता है। लोगों को एक साथ जोड़ना, सबका एक साथ रहना और मिल-जुलकर प्रगति करना धर्म है।
धारणात धर्म इत्याहु: धर्मों धारयति प्रजा।
जो धारण करता है, एकत्र करता है, अलगाव को दूर करता है, उसे धर्म कहते हैं। ऐसा धर्म प्रजा को धारण करता है। धर्म का अर्थ संतुलन भी है। इसलिए धर्म सभी प्रकार की ‘अति’ का प्रतिकार करता है। तथागत ने जिस मध्यम मार्ग की बात की, वह धर्म ही है। धर्म सब कुछ और सबको स्वीकार करता है, क्योंकि धर्म न केवल ‘विविधता में एकता’ की बात करता है, बल्कि यह मानता है कि सभी प्रकार की ‘विविधता’ के उद्भव का स्रोत एकता है-अस्तित्व एक ही है। इसलिए धर्म में ‘हमारा’ और ‘उनका’ जैसा कुछ भी नहीं, यह प्राणियों को एक-दूसरे से जोड़ने की डोर है, जो समावेशी प्रगति का आधार है। यही है धर्म विजय जो ‘जयस्य’ में निहित है, जो धर्म की नींव पर खड़ी है और धर्म का सार प्रस्तुत करती है।
हम एक-एक हिंदू से संपर्क करें। फिर एकजुट हिन्दू विश्व के एक-एक व्यक्ति से संपर्क करें। वैश्विक स्तर पर परस्पर जुटने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हम देख सकते हैं कि हिन्दू ‘वसुधैव कुटुम्बकम ’ में अपनी भूमिका निभाने के लिए सक्रिय हो चुके हैं।
दर्शन के कई प्रकार हैं -कोई ईश्वर को मानता है तो कोई अनीश्वरवादी है; कोई कहता है आत्मा है, कोई इसे नकारता है। इन वैचारिक मतभिन्नताओं में कई एक-दूसरे के सर्वथा विपरीत भी हैं। पर सभी अंतत: एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि हमें अपने आचरण में इन सिद्धान्तों का पालन करना चाहिए:
‘दशलक्षणात्मक’ और अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरग्रहा: यमा: (अर्थात अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह) शौचसंतोषतप:स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा: (अर्थात शौच (पवित्रता), संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान)
यह चिंतन सभी भारतीय परंपरा के मूल में विद्यमान हैं। यहां तक कि जो ईश्वर को नहीं मानते, जो आत्मा को शाश्वत नहीं मानते, वे भी इसे मानते हैं। इसलिए तथागत कहते हैं:
सब्ब पापस्य अकरणं, कुसलस्य उपसम्पदा।
सचित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धान सासनं।।
अर्थात सभी प्रकार के पाप कर्म से दूर रहो। दूसरों के जीवन में बिना बाधा पहुंचाए जीओ, और ऐसा करते समय अपने हृदय को शुद्ध करते रहो। यही बुद्ध का अनुशासन है।
भारत के सभी संप्रदाय यही कहते हैं। इसलिए ‘जयस्य आयतनं धर्म:’ को तीसरे विश्व हिन्दू सम्मेलन का ध्येय वाक्य रखा गया। तो हमें क्या करना होगा? यदि ‘आयतनं’ आधार है तो हमें अपना आधार बढ़ाना होगा। अभी ऐसे हिन्दुओं की संख्या बहुत बड़ी है जिन तक हम नहीं पहुंच पाए हैं। हमें प्रत्येक हिंदू से संपर्क बनाना होगा। जरूरी नहीं कि सब हमारी, सभी बातों से सहमत हों। किंतु हमें इस प्रवाह से सभी को जोड़ना होगा।
कोरोना के बाद से जगत में एक बात पर सहमति बनती दिखती है कि यदि कोई रास्ता निकल सकता है तो उसका प्रणेता भारत ही होगा। भारत का इतिहास इस बात का द्योतक है कि विश्व का मार्गदर्शन करने की योग्यता भारत में ही है।
आज विश्व लड़खड़ा रहा है। सुख, संपन्नता और शांति के लिए पिछले दो हजार वर्षों में अनेक प्रयोग हुए। उन्होंने भौतिकतावाद, साम्यवाद से लेकर पूंजीवाद और विभिन्न प्रकार के मत-पंथ आजमाएं। उन्हें भौतिक सुख तो मिल गया लेकिन संतोष नहीं मिला। हमने जितनी भौतिक प्रगति की, उतना ही हमारे आसपास का वातावरण, पर्यावरण दूषित हुआ। इसलिए न संतोष मिला, न शांति। विशेष रूप से कोरोना के बाद से जगत में एक बात पर सहमति बनती दिखती है कि यदि कोई रास्ता निकल सकता है तो उसका प्रणेता भारत ही होगा। भारत का इतिहास इस बात का द्योतक है कि विश्व का मार्गदर्शन करने की योग्यता भारत में ही है।
अगर हम ईसा-पूर्व और इस्लाम-पूर्व की परंपराओं का अध्ययन करें तो देखते हैं कि उनकी विश्व दृष्टि और मत, जीवन, वैयक्तिक आचरण इत्यादि हमारे सनातन सिद्धांतों पर ही आधारित थीं आज वे विश्व में प्रताड़ित हो रहे हैं, लेकिन जब वे भारत आते हैं तो कहते हैं कि यहां उन्हें शांति मिलती है। यह एक तरह का जुड़ाव ही है जिसे हमने बेशक भुला दिया हो, लेकिन उसकी अनुभूति कर सकते हैं। कुछ माह पहले विश्व मुस्लिम परिषद के महासचिव भारत आए और उन्होंने अपने भाषण में कहा कि विश्व में शांति के प्रयास में भारत की भागीदारी अत्यावश्यक है। यही सनातन परंपरा की विशेषता है।
हमारा जन्म ही इस उद्देश्य के लिए हुआ है। इसमें मत-पंथ, पूजा पद्धति, नियम, दर्शन अलग हो सकते हैं, लेकिन आरंभिक बिंदु और लक्ष्य एक हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति तक पहुंचना हमारा दायित्व है। पहले चरण में हम एक-एक हिंदू से संपर्क करें। फिर एकजुट हिन्दू विश्व के एक-एक व्यक्ति से संपर्क करें। वैश्विक स्तर पर परस्पर जुटने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। हम देख सकते हैं कि हिन्दू ‘वसुधैव कुटुम्बकम ’ में अपनी भूमिका निभाने के लिए सक्रिय हो चुके हैं।
हमें फिर साथ आना होगा और इसके लिए हमें ‘कुरल’ (तमिल काव्यग्रंथ) का यह उपदेश याद रखना होगा कि क्रोध, घृणा, वासना और आपत्तिजनक तथा घृणा फैलाने वाले बोल लोगों को जोड़ने में बाधक हैं। मैं इनमें दो और कारक जोड़ना चाहूंगा- ईर्ष्या और अहम। ये सब समाज को तोड़ते हैं। हम अपनी सेवा से लोगों को जोड़ें। नि:स्वार्थ सेवा हमारे रक्त में है। इसलिए लोगों के दिलों को जीतें। हमें गुणों का लेन-देन करना है। हमें हर किसी से सीखना है और अपने भी उदाहरणों से सीखना है। चूंकि हमने दो हजार साल पहले चलना छोड़ दिया तो हम काफी पीछे छूट गए। इसलिए हमें आधुनिक विश्व से भी बहुत कुछ सीखना है।
एक बात ध्यान में रखें, हिन्दुओं की धर्म-दृष्टि वैश्विक धर्म-दृष्टि का निर्माण करेगी और तब बहुप्रतीक्षित धर्म-विजय प्राप्त की जा सकेगी। यह धर्म-विजय किसी के भी विरुद्ध नहीं होगी अपितु सभी के भले के लिए होगी। संपूर्ण विश्व भारत को आशा भरी नजर से देख रहा है। हमें किसी को पराजित नहीं करना है, बल्कि सबको साथ लेकर चलना है। हमारेसबसे बड़े दुश्मन काम, क्रोध, मद, लोभ और अज्ञानता हैं। हमारा राष्ट्रीय लक्ष्य लोगों को भौतिक दुनिया से आध्यात्मिकता की दुनिया तक ले जाना है। इसीलिए भारत का उदय हो रहा है, यह उदय सनातन धर्म के अभ्युदय के लिए है।
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