हिमालयी देश नेपाल में राजनीतिक—सामाजिक माहौल में एक अलग सी सरगर्मी महसूस हो रही है। पिछले एक दशक से ज्यादा वक्त से राजनीतिक उथल—पुथल से गुजरते आ रहे इस पहाड़ी देश में तराई और पहाड़ में अनेक राजनीतिक प्रयोग किए गए लेकिन सब के सब एक एक करके असफल साबित होते रहे। कभी एकमात्र घोषित हिन्दू राष्ट्र के नाते जगत में विख्यात रहे इस देश पर लोकतांत्रिक सरकारों के दौर पटरी पर आने से पहले फिसलते देखे गए।
राजशाही के काल में अंतिम शासक रहे राजा ज्ञानेन्द्र की कार्यपद्धति को लेकर एक वर्ग में असंतोष उपजने के बाद, सत्ता में आए राजनीतिक दल दरअसल अपने हिमालयी देश को धीरे धीरे चीन के शिकंजे में जाते देखने को मजबूर होते गए। भारत से सदियों से रहे रोटी—बेटी के रिश्तों को सुनियोजित तरीके से ठेस पहुंचाई जाती रही। लेकिन अब एक बार फिर से वहां की बहुसंख्य हिन्दू आबादी में सुगबुगाहट है। क्या यह इस देश को फिर से हिन्दू राष्ट्र के नाते स्थापित करने की तैयारी है? क्या राजशाही की वापसी की मांग जोर पकड़ती जा रही है? ये कुछ सवाल नेपाल के संदर्भ में एक बार फिर से उभरते दिख रहे हैं।
नेपाल में पिछले कुछ दिनों से तेज हुई इस सुगबुगाहट और धरने प्रदर्शनों ने इन सवालों को हवा दी है। समाचार मिला है कि अभी दो दिन पहले कभी इस राष्ट्र के शासक रहे राजा ज्ञानेंद्र शाह देव ने अपने पुरखे स्वर्गीय राजा पृथ्वी नारायण शाह देव की एक मूर्ति लोकार्पित की है। यह मूर्ति झापा जिले में स्थित एक स्कूल में लगाई गई है। राजा ज्ञानेन्द्र इन दिनों सोशल मीडिया पर भी खूब दिख रहे हैं। दरबार और हिन्दू उत्सवों में लोगों के बीच जाकर विधि—विधान से पूजा—अर्चना करते दिख रहे हैं।
अभी तीन दिन पहले भी इस पूर्व हिन्दू राष्ट्र के राजा ज्ञानेन्द्र का समर्थन करने वाले हजारों लोग काठमांडू के मध्य तक पैदल मार्च निकालने की कोशिश में थे। लेकिन पुलिस ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए लाठीचार्ज और आंसू गैस का सहारा तक लिया। प्रदर्शनकारियों ने राजा ज्ञानेंद्र के समर्थन में नारों की गूंज से काठमांडू को हिला रखा था। राजतंत्र के वे समर्थक नारे लगा रहा थे कि ‘राजतंत्र वापस लाओ। गणतंत्र को हटाओ।’
काठमांडू में पिछले तीन—चार दिन से जो धरने प्रदर्शन किए जा रहे हैं, क्या वे राजतंत्र की वापसी की मांग को मुखर कर रहे हैं? नेपाल के राजनीतिक विश्लेषक इस सवाल पर का जवाब तलाशने में जुटे हैं। गत शनिवार को जब राजा ज्ञानेन्द्र स्व. राजा पृथ्वी नारायण शाह देव की मूर्ति को लोकार्पित करने झापा गए थे तब वहां भी उनके स्वागत के लंबे—चौड़े इंतजाम थे। हालांकि राजा ज्ञानेन्द्र ने मूर्ति लोकार्पण समारोह में कुछ बोला नहीं। वहां मीडिया भी मौजूद था, उससे भी उन्होंने कोई चर्चा—वार्ता नहीं की।
इधर यह कार्यक्रम चल रहा था तो उधर राजधानी काठमांडू में राजतंत्र के मुखर समर्थक वरिष्ठ नेता दुर्गा परसाई की उनके घर में चली आ रही नजरबंदी वापस ले ली गई। वहां पुलिसकर्मी तैनात थे, वे भी हटा लिए गए। लेकिन इसी काठमांडू के दूसरे हिस्से में राजतंत्र के समर्थकों पर पुलिस की सख्ती बनी रही। पुलिस ने प्रदर्शन करने वालों की सामूहिक गिरफ्तारी की। राजधानी में सत्तारूढ़ सरकार के विरुद्ध जनाक्रोश बढ़ता दिख रहा है। सरकार के कामकाज की खूब आलोचना की जा रही है। लोकतंत्र के समर्थकों और राजशाही के समर्थकों के साथ ही विभिन्न मानवाधिकारी गुट सत्ता पर उंगलियां उठा रहे हैं।
लेकिन सिर्फ आम लोग ही नहीं, राजनीतिक दलों के नेता भी सरकार पर छींटाकशी तेज किए हुए हैं। ताजा आरोप वहां कभी प्रधानमंत्री रहे केपी शर्मा ओली ने लगाया है कि प्रचंड सरकार अफरातफरी मचा रहे तत्वों के आगे घुटने टेक रही है।
राजतंत्र समर्थक लोगों और राजनीतिक दलों को शिकायत है कि सरकार संविधान विरोधी कामों में लगी है। उधर देश के मानवाधिकार आयोग तथा कई अन्य संगठन इस बात से नाराज हैं कि प्रचंड सरकार सभा अर्थात संसद के अधिकारों को दबा रही है। आरोप ये भी लगाए जा रहे हैं कि प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड अभी तक राजतंत्र समर्थकों और उनके धरने प्रदर्शनों को रोकने को लेकर चुप क्यों हैं, वे उन के विरुद्ध कोई कार्रवाई करेंगे भी कि नहीं? करेंगे तो वह क्या है?
अभी तीन दिन पहले भी इस पूर्व हिन्दू राष्ट्र के राजा ज्ञानेन्द्र का समर्थन करने वाले हजारों लोग काठमांडू के मध्य तक पैदल मार्च निकालने की कोशिश में थे। लेकिन पुलिस ने उन्हें ऐसा करने से रोकते हुए लाठीचार्ज और आंसू गैस का सहारा तक लिया। प्रदर्शनकारियों ने राजा ज्ञानेंद्र के समर्थन में नारों की गूंज से काठमांडू को हिला रखा था। राजतंत्र के वे समर्थक नारे लगा रहा थे कि ‘राजतंत्र वापस लाओ। गणतंत्र को हटाओ।’
संभवत: आने वाले कुछ दिनों के धुंधलाक छंट जाए और राजनीतिक परिदृश्य कुछ साफ हो। हालांकि यह बात भी तय है कि नेपाल को अपने शिकंजे में जकड़ने का मौका देखता आ रहा चीन नहीं चाहेगा कि नेपाल में राजतंत्र और वह भी हिन्दू तंत्र फिर से बहाल हो। बीजिंग के कम्युनिस्ट नीतिकार भारत के इस पड़ोसी और सांस्कृतिक रूप से एक सार राष्ट्र को हिन्दू मूल्यों से दूर करने को हर संभव प्रयास करते आ रहे हैं।
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