अमृतसर में 1 अप्रैल 1621 को माता नानकी की कोख से पैदा हुए गुरु तेग बहादुर का बचपन का नाम त्यागमल था, जिन्होंने धर्म और आदर्शों की रक्षा करते हुए बलिदान दिया था। मात्र 14 वर्ष की अल्पायु में ही उन्होंने अपने पिता के साथ मुगलों के हमले के खिलाफ हुए युद्ध में वीरता का परिचय दिया था और उनकी इस वीरता से प्रभावित होकर उनके पिता ने ही उनका नाम ‘तेग बहादुर’ (तलवार का धनी) रखा था। सिखों के 8वें गुरू हरिकृष्ण राय की अकाल मृत्यु हो जाने के बाद तेग बहादुर जी को नौवां गुरु बनाया गया था। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही यही था कि धर्म का मार्ग सत्य और विजय का मार्ग है।
श्री गुरु तेग बहादुर जी सदैव सच्चाई की राह पर चलने वाले लोगों के बीच रहा करते थे। उन्होंने न केवल धर्म की रक्षा की बल्कि देश में धार्मिक आजादी का मार्ग भी प्रशस्त किया। उन्होंने हिन्दुओं तथा कश्मीरी पंडितों की मदद कर धर्म की रक्षा करते हुए अपने प्राण गंवाए थे।
क्रूर मुगल शासक औरंगजेब ने उन्हें हिन्दुओं की मदद करने और इस्लाम नहीं अपनाने के कारण मौत की सजा सुनाई थी और उनका सिर कलम करा दिया था। उस आततायी और धर्मान्ध मुगल शासक की धर्मविरोधी तथा वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु तेग बहादुर का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांतों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर का स्थान अद्वितीय है और एक धर्म रक्षक के रूप में उनके महान् बलिदानों को समूचा विश्व कदापि नहीं भूल सकता।
उस समय हिन्दुस्थान में औरंगजेब का शासन था। वह ऐसा समय था, जब पूरी कट्टरता और निर्ममता के साथ इस्लाम का प्रचार-प्रसार किया जा रहा था, हर तरफ जुल्म का साम्राज्य था और खून की नदियां बहाकर लोगों को धर्म परिवर्तन करने के लिए विवश किया जा रहा था। औरंगजेब ने आदेश पारित किया कि राजकीय कार्यों में किसी भी उच्च पद पर किसी हिन्दू की नियुक्ति न की जाए और हिन्दुओं पर ‘जजिया’ (कर) लगा दिया जाए। उसके बाद हिन्दुओं पर हर तरफ अत्याचार का बोलबाला हो गया।
अनेक मंदिरों को तोड़कर वहां मस्जिदें बनवा दी गईं और मंदिरों के पुजारियों, साधु-संतों की हत्याएं की गईं। हिन्दुओं पर लगातार बढ़ते अत्याचारों और भारी-भरकम नए-नए कर लाद दिए जाने से भयभीत बहुत सारे हिन्दुओं ने उस दौर में धर्म परिवर्तन कराकर मजबूरन इस्लाम अपना लिया। औरंगजेब के अत्याचारों के उसी दौर में कश्मीर के कुछ पंडित मदद की आशा और विश्वास के साथ गुरु तेग बहादुर के पास पहुंचे और उन्हें अपने ऊपर हो रहे जुल्मों की दास्तान सुनाते हुए कहा कि उनके पास अब दो ही रास्ते बचे हैं कि या तो वे मुस्लिम बन जाएं या अपना सिर कटाएं। उनकी पीड़ा सुन गुरु जी ने गुरु नानक की पंक्तियां दोहराते हुए कहा:-
जे तउ प्रेम खेलण का चाउ। सिर धर तली गली मेरी आउ।।
इत मारग पैर धरो जै। सिर दीजै कणि न कीजै।।
उन्होंने कहा कि यह भय शासन का है, उसकी ताकत का है पर इस बाहरी भय से कहीं अधिक भय हमारे मन का है, हमारी आत्मिक शक्ति दुर्बल हो गई है, हमारा आत्मबल नष्ट हो गया है और इस बल को प्राप्त किए बिना यह समाज भयमुक्त नहीं होगा तथा बिना भयमुक्त हुए यह समाज अन्याय और अत्याचार का सामना नहीं कर सकेगा। उन्होंने कहा कि सदा हमारे साथ रहने वाला परमात्मा ही हमें वह शक्ति देगा कि हम निर्भय होकर अन्याय का सामना कर सकें। एक जीवन की आहुति अनेक जीवनों को इस रास्ते पर लाएगी। लोगों को ज्यादा समझ नहीं आया तो उन्होंने पूछा कि उन्हें इन परिस्थितियों में क्या करना चाहिए? तब गुरु जी ने मुस्कराते हुए कहा कि तुम लोग बादशाह से जाकर कहो कि हमारा पीर तेग बहादुर है, अगर वह मुसलमान हो जाए तो हम सभी इस्लाम स्वीकार कर लेंगे।
कश्मीरी पंडितों ने जब कश्मीर के सूबेदार शेर अफगन के मार्फत यह संदेश औरंगजेब तक पहुंचाया तो औरंगजेब बिफर उठा। उसने गुरु तेग बहादुर को दिल्ली बुलाकर उनके परम प्रिय शिष्यों मतिदास, दयालदास और सतीदास के साथ बंदी बना लिया और तीनों शिष्यों से कहा कि अगर तुम लोग इस्लाम कबूल नहीं करोगे तो कत्ल कर दिए जाओगे। भाई मतिदास ने उसे जवाब दिया कि शरीर तो नश्वर है और आत्मा का कभी कत्ल नहीं हो सकता। यह सुनकर औरंगजेब ने मतिदास को जिंदा ही आरे से चीर देने का हुक्म दिया। औरंगजेब के फरमान पर जल्लादों ने भाई मतिदास को दो तख्तों के बीच एक शिकंजे में बाधकर उनके सिर पर आरा रखकर आरे से चीर दिया और उनकी बोटी-बोटी काट दी, लेकिन जब भाई मतिदास को आरे से चीरा जाने लगा तब भी वे भयभीत हुए बिना ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे।
अगली बारी थी भाई दयालदास की लेकिन उन्होंने भी जब दो टूक लहजे में इस्लाम कबूल करने से इन्कार कर दिया तो औरंगजेब ने उन्हें गर्म तेल के कड़ाह में डालकर उबालने का हुक्म दिया। सैनिकों ने उसके हुक्म पर उनके हाथ-पैर बांधकर उबलते हुए तेल के कड़ाह में डालकर उन्हें बड़ी दर्दनाक मौत दी, लेकिन भाई दयालदास भी अपने अंतिम श्वांस तक ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे। अगली बारी थी भाई सतीदास की लेकिन उन्होंने भी दृढ़ता से औरंगजेब का इस्लाम अपनाने का फरमान ठुकरा दिया तो उस आततायी क्रूर मुगल शासक ने दरिंदगी की सारी हदें पार करते हुए उन्हें कपास से लपेटकर जिंदा जला देने का हुक्म दिया। भाई सतीदास का शरीर धू-धूकर जलने लगा लेकिन वे भी निरंतर ‘श्री जपुजी साहिब’ का पाठ करते रहे।
22 नवम्बर 1675 को औरंगजेब के आदेश पर काजी ने गुरू तेग बहादुर से कहा कि हिन्दुओं के पीर! तुम्हारे सामने तीन ही रास्ते हैं, पहला, इस्लाम कबूल कर लो, दूसरा, करामात दिखाओ और तीसरा, मरने के लिए तैयार हो जाओ। इन तीनों में से तुम्हें कोई एक रास्ता चुनना है। अन्याय और अत्याचार के समक्ष झुके बिना धर्म और आदर्शों की रक्षा करते हुए गुरु तेग बहादुर ने तीसरे रास्ते का चयन किया। जालिम औरंगजेब को यह सब भला कहां बर्दाश्त होने वाला था। उसने गुरु तेग बहादुर का सिर कलम करने का हुक्म सुना दिया। 24 नवम्बर का दिन था, चांदनी चौक के खुले मैदान में एक विशाल वृक्ष के नीचे गुरु तेग बहादुर समाधि में लीन थे, वहीं औरंगजेब का जल्लाद जलालुद्दीन नंगी तलवार लेकर खड़ा था। अंततः काजी के इशारे पर जल्लाद ने गुरू तेग बहादुर का सिर धड़ से अलग कर दिया, जिसके बाद चारों ओर कोहराम मच गया। इस प्रकार अपने धर्म में अडिग रहने और दूसरों को मतांतरण से बचाने के लिए गुरु तेग बहादुर और उनके तीनों परम प्रिय शिष्यों ने हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहूति दे दी।
धन्य हैं भारत की पावन भूमि पर जन्म लेने वाले और दूसरों की सेवा के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले उदार चित्त, बहादुर व निर्भीक ऐसे महापुरुष। हिन्दुस्थान तथा हिन्दू धर्म की रक्षा करते हुए बलिदान हुए गुरू तेग बहादुर को उसके बाद से ही ‘हिन्द की चादर गुरु तेग बहादुर’ के नाम से जाना जाता है। उन्होंने हिन्दू धर्म की रक्षा के लिए अपनी कुर्बानी दी, इसीलिए उन्हें ‘हिन्द की चादर’ कहा जाता है।
शांति, क्षमा और सहनशीलता के विलक्षण गुणों वाले गुरु तेग बहादुर ने उनका अहित करने की कोशिश करने वालों को सदा अपने इन्हीं गुणों से परास्त किया और लोगों को सदैव प्रेम, एकता और भाईचारे का संदेश दिया। गुरु तेग बहादुर ने अपने धर्म की रक्षा के लिए अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया था। उनका जीवन हम सभी के लिए प्रेरणास्रोत है। उनका बलिदान दिवस उनके दिखाए मार्ग पर चलते हुए किसी भी जुल्म और अन्याय का डटकर मुकाबला करने की प्रेरणा देता है।
अपने पिता गुरु तेग बहादुर के बलिदान पर सिखों के दसवें गुरु, गुरु गोबिंद सिंह जी ने लिखा था:-
तिलक जंझू राखा प्रभु ताका। कीनो बडो कलू महि साका।।
साधनि हेति इति जिनि करी। सीसु दिया पर सी न उचरी।।
धर्म हेतु साका जिनि किया। सीसु दिया पर सिररु न दिया।।
तथा प्रकट भए गुरू तेग बहादुर। सगल स्रिस्ट पै ढापी चादर।।
दिल्ली में स्थित गुरुद्वारा शीश गंज साहिब और गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब उन स्थानों की याद दिलाते हैं, जहां गुरु तेग बहादुर की निर्मम हत्या की गई थी। जहां उन्होंने बलिदान दिया था , उसी जगह पर अब गुरुद्वारा शीशगंज साहिब है और जिस स्थान पर उनका अंतिम संस्कार हुआ था, वहां गुरुद्वारा रकाब गंज साहिब है।
(लेखक – योगेश कुमार गोयल, वरिष्ठ पत्रकार। पांचजन्य आर्काइव)
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