‘’उत्तिष्ठ गोविन्द त्यज निद्रां जगत्पतये। त्वयि सुप्ते जगन्नाथ जगत्सुप्तं भवेदिदम्॥’’ अर्थात -हे गोविंद! अब आप जग जाइए। निद्रा का त्याग कर आप उठ जाइए जगन्नाथ क्यूंकि आपके सोते रहने से यह सम्पूर्ण जगत सोता रहेगा। वैदिक मनीषा कहती है कि ऋषियों की यह प्रार्थना सुनकर जगतपालक श्रीहरि अपनी चातुर्मास कालीन योगनिद्रा को त्याग कर जागरण करते हैं। चूंकि सनातन धर्म में श्रीहरि को सम्पूर्ण जगत का आधार और पालनहार माना जाता है; इस कारण उनके जागृत होते ही वर्षाकाल की प्रसुप्त देव शक्तियां भी सक्रिय होकर सृष्टि संचालन में पुनः सक्रिय हो जाती हैं। चूंकि लक्ष्मी स्वरूपा तुलसी श्री हरि को प्राणप्रिय हैं, इसलिए अपने पालनहार के जगते ही उनकी प्रसन्नता के लिए सनातन हिन्दू धर्मावलम्बी सर्वप्रथम शालिग्राम स्वरूप श्रीहरि और लक्ष्मी स्वरूपा माँ तुलसी के मंगल परिणय का आयोजन करते हैं। इस तुलसी विवाह के साथ ही सनातन धर्मावलम्बियों के चौमासे में रुके मांगलिक आयोजन भी पुनः शुरू हो जाते हैं।
श्रीमद्भागवत में श्री हरि व तुलसी के इस अनूठे विवाह का अत्यंत रोचक पौराणिक प्रसंग वर्णित है। शास्त्र कहता है कि प्राचीनकाल में जलंधर नाम का एक महाशक्तिशाली असुर था। उसे वरदान प्राप्त था कि जब तक उसकी पत्नी वृंदा उसके मंगल की प्रार्थना करती रहेगी, कोई भी उसका अनिष्ट नहीं कर सकेगा। श्री हरि की परमभक्त पत्नी वृंदा के तपबल की शक्ति के कारण अजेय जलंधर के आतंक के समूचा देवलोक त्रस्त हो उठा था। तब सभी देवों ने श्रीहरि भगवान विष्णु से असुर जलंधर के आतंक से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। तब लोकमंगल के लिए श्रीहरि जलंधर का वेश बनाकर उस समय वृंदा के समक्ष प्रकट हो गये, जब वह युद्ध भूमि में देवों से युद्ध कर रहा था। अचानक पति को सामने खड़ा देख वृंदा का ध्यान जप-पूजन से भंग हो गया और वृंदा की पूजा टूटते ही युद्धभूमि में जलंधर मारा गया। जब वृंदा को वास्तविकता ज्ञात हुई उसने क्रोधित हो अपने आराध्य को ही पाषाण हो जाने का शाप दे दिया और स्वयं प्राण त्यागने को प्रस्तुत हो उठी। तब श्रीहरि ने वृंदा को उसके पति के अत्याचारों से अवगत कराते हुए उसे उसकी भूल का बोध कराते हुए बताया कि किस तरह वह भी अपरोक्ष रूप से अपने पति के अत्याचारों की सहभागी बनी है। पूरी बात सुनकर वृंदा को अपनी गलती का अहसास हुआ और उसने श्री हरि के चरणों में शीश नवाते हुए कहा कि इस पतित देह के साथ अब वह क्षणभर भी जीना नहीं चाहती। इस पर श्रीहरि ने उसे अपनी अनन्य भक्ति का वरदान देते हुए कहा हे वृंदा तुम मुझे प्राणप्रिय हो। इसलिए तुम्हारा शाप भी मुझे शिरोधार्य है। मेरे आशीर्वाद से अपनी चिता की रख से तुम सृष्टि की सर्वाधिक हितकारी औषधि ‘तुलसी’ के रूप में विकसित होगी और मेरे पाषाण स्वरूप ‘शालिग्राम’ से तुम्हारा मंगल परिणय संसारवासियों के आह्लाद का निमित्त बनेगा।
मगन भई तुलसी राम गुन गाइके
कहा जाता है कि तभी से सनातन धर्म में प्रति वर्ष इस मांगलिक आयोजन की परम्परा शुरू हो गयी। इस मांगलिक अवसर पर सनातन धर्मावलम्बी घर की साफ़-सफाई करते हैं और रंगोली सजाते हैं। तुलसी के गमले को गोमय एवं गेरू से लीप कर उसके पास पूजन की चौकी पूरित की जाती है। गणेश पूजा पूर्वक पंचांग पूजन के बाद तुलसी विवाह की सारी विधि होती है। मंगल वाद्ययंत्रों के साथ उन्हें पालकी में बिठाकर मंदिर परिसर एवं घर-आंगन में घूमाकर पूर्व स्थान से दूसरे स्थान पर रख देते हैं। इस अवसर पर ‘’मगन भई तुलसी राम गुन गाइके मगन भई तुलसी। सब कोऊ चली डोली पालकी रथ जुड़वाये के।। साधु चले पाँय पैया, चीटी सो बचाई के। मगन भई तुलसी राम गुन गाइके।‘‘ जैसे बधाई के गीत लोकसंस्कृति में खूब प्रचलित हैं। इस सुअवसर पर शगुन में मिष्ठान्न, प्रसाद, फल एवं दक्षिणा दी जाती है। शाम के समय तुलसी चौरा के पास गन्ने का भव्य मंडप बनाकर उसमें साक्षात् नारायण स्वरूप शालिग्राम की मूर्ति रखते हैं और फिर विधि-विधानपूर्वक उनके विवाह को संपन्न कराते हैं। मंडप, वर पूजा, कन्यादान आदि सब कुछ पारम्परिक हिंदू रीति-रिवाजों के साथ निभाया जाता है। इस विवाह में शालिग्राम वर और तुलसी कन्या की भूमिका में होती है। यह सारा आयोजन यजमान सपत्नीक मिलकर करते हैं। इस दिन तुलसी के पौधे को लाल चुनरी-ओढ़नी ओढ़ाई जाती है। तुलसी विवाह में सोलह श्रृंगार के सभी सामान चढ़ावे के लिए रखे जाते हैं। यजमान वर के रूप में शालिग्राम को और यजमान की पत्नी कन्या के रूप में तुलसी के पौधे को दोनों हाथों में लेकर अग्नि के फेरे लेते हैं। विवाह के पश्चात प्रीतिभोज का आयोजन किया जाता है। तुलसी विवाह का यह महोत्सव वैष्णव धर्मावलम्बियों में खूब लोकप्रिय है। मान्यता है कि तुलसी विवाह का यह आयोजन करने से कन्यादान के समतुल्य फल मिलता है और वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।
जीवन से मरण तक अतुलनीय तुलसी
मान्यता है कि देवोत्थानी एकादशी को तुलसी जी पृथ्वी लोक से बैकुंठ में चली जाती हैं और देवताओं की जागृति होकर उनकी समस्त शक्तियां पृथ्वी लोक में आकर लोक कल्याणकारी बन जाती हैं। तुलसी को माता कहा जाता है क्योंकि तुलसी पत्र चरणामृत के साथ ग्रहण करने से अनेक रोग दूर होते हैं। तुलसी पत्र व मंजरी पूरे वर्ष भर देवपूजन में प्रयोग होते हैं। तुलसी दल अकाल मृत्यु से बचाता है। वैष्णव उपासकों के लिए तुलसी जी का विशेष महत्व होता है। वह तुलसी की माला पहनते हैं और जपते हैं। तुलसी पत्र के बिना भोजन नहीं करते। कहा जाता है कि तुलसी पत्र डालकर जल या दूध चरणामृत बन जाता है तथा भोजन प्रसाद बन जाता है। ग्रहणकाल में भोज्य पदार्थों को अशुद्ध होने से बचाने के लिए भी तुलसीपत्र डाले जाते हैं। तुलसी की महिमा बताते हुए भगवान शिव देव ऋषि नारदजी से कहते हैं- हरिप्रिया तुलसी का पत्ता, फूल, फल, मूल, शाखा, छाल, तना और मिट्टी आदि सभी पूजनीय व पवित्र है। जिन घरों में तुलसी का पौधा लगाया जाता है, वहां सदैव सुख-शांति और समृद्धि रहती है और आस-पास का वातावरण पवित्र होता है। यही वजह है कि प्राचीन युग से ही हमारी संस्कृति और हमारे घरों में इस अमृततुल्य बूटी की स्थापना और सम्मान होता आया है। आज भी हमारे घरों में सुबह-शाम इसकी आरती-पूजा का विधान है और लोग मानते हैं कि जिस घर तुलसी, वह घर निरोगी। धर्मशास्त्रों में तुलसी से प्रार्थना की गयी है- महाप्रसाद जननी सर्व सौभाग्य वर्धिनी। आधिव्याधि हरिर्नित्यं तुलेसित्व नमोस्तुते॥ अर्थात हे तुलसी! आप सम्पूर्ण सौभाग्यों को बढ़ाने वाली हैं, सदा आधि-व्याधि को मिटाती हैं, आपको नमस्कार है। बैकुंठ वासिनी तुलसी मनुष्य को न केवल आरोग्य देती हैं वरन अंतकाल में भी काम आती है। इसीलिए सनातन धर्म में व्यक्ति के मरने पर उसके मुख में तुलसी व गंगाजल डालने की परंपरा है। देवोत्थानी एकादशी को आयोजित किया जाने वाला तुलसी विवाह न सिर्फ विशुद्ध आध्यात्मिक प्रसंग है; वरन वायुशोधक गुणों के मद्देनजर भी इसकी उपयोगिता भी कम नहीं है।
पर्यावरण रक्षक महान औषधि है तुलसी
वेदों में तुलसी को महौषधि बताया गया है, जिससे सभी रोगों का नाश होता है। आधुनिक वैज्ञानिक प्रयोगों में साबित हो चुका है कि तुलसी एक बेहतरीन एंटी-ऑक्सीडेंट, एंटी-एजिंग, एंटी-बैक्टेरियल, एंटी-सेप्टिक व एंटी-वायरल है। इसे फ्लू, बुखार, जुकाम, खांसी, मलेरिया, जोड़ों का दर्द, ब्लड प्रेशर, सिरदर्द, पायरिया, हाइपरटेंशन आदि रोगों में लाभकारी पाया गया है। तुलसी के पौधे में एक प्रकार का तेल होता है जो वायुमंडल में हवा के बहाव से घर के वातावरण को प्रदूषण से दूर रखने में सहायक होता है। तुलसी साधारण पौधा नहीं, बल्कि प्रदूषण नियंत्रक और औषधीय गुणों से भरपूर पौधा है। आजकल की भागमभाग की जीवनचर्या, जगह की तंगी, समय की कमी, पश्चिमी सभ्यता के प्रभाव से सनातन संस्कारों का क्षरण के कारण तुलसी को अपेक्षित सम्मान नहीं मिल रहा। वर्तमान के चिंतनीय पर्यावरणीय संकट में इस दिशा में जनजागरूकता बेहद जरूरी है। इस दिशा में भारतीय संस्कृति में विश्वास रखने वाले और पर्यावरण के प्रति जागरूक लोगों को अपने स्वास्थ्य और पर्यावरण की रक्षा के लिए अपने बगीचा अथवा गमले में तुलसी का पौधा अवश्य ही लगाना चाहिए और दूसरों को प्रेरित भी करना चाहिए।
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